दैनिक भास्कर, 21 जनवरी 2006 : कर्नाटक से बढ़कर बुरी खबर काँग्रेस के लिए क्या हो सकती थी? वोल्कर रिपोर्ट और क्वात्रेची-प्रसंग के बादलों ने काँग्रेस की मलिका को पहले से घेर रखा था और अब कर्नाटक में वज्रपात हो गया| काँग्रेस को पता था कि देवगौड़ा उसकी सरकार गिराने पर आमादा हैं और वह इस धक्के को सहने के लिए तैयार भी हो गई थी| वह जानती थी कि यदि विधानसभा भंग हुई तो चुनाव में उसकी असली ठक्कर भाजपा से होगी और बाप-बेटा पार्टी का सूँपड़ा साफ हो जाएगा| पंचायत चुनाव में यह स्पष्ट हो गया कि जनता दल (सेकुलर) से अलग हुए सिद्घरमैया और इब्राहीम आदि के साथ साँठ-गाँठ करने पर उसे करूवा और मुस्लिम मत मिल सकते हैं, जो कि कुल मतों का लगभग 20 प्रतिशत है| देवगौड़ा ने ‘इन्फोसिस’ पर प्रहार करके कर्नाटक के भद्रलोक को भी रूष्ट कर दिया था| इसीलिए काँग्रेस ने देवगौड़ा की धमकियों की बिल्कुल भी परवाह नहीं की और उसे ब्लेकमेल के पैंतरे कहती रही| उसे भरोसा था कि 8 फरवरी कभी नहीं आएगी याने देवगौड़ा ने समर्थन वापस लेने की जो तिथि घेषित की है, उसके पहले ही या तो कुछ लेन-देन हो जाएगा या सरकार गिर ही गई तो चुनाव लड़कर काँग्रेस स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लेगी| लेकिन अचानक उलट-पराकाष्ठा हो गई| काँग्रेस का सारा गाणित शीर्षासन की मुद्रा में आ गया|
काँग्रेस को पता ही नहीं चला और जद (से.) ने भाजपा के साथ मिला लिया| अनहोनी हो गई| काँग्रेस को अपनी सरकार गिरने का गम नहीं है| गम यह है कि अब विधानसभा भंग नहीं होगी, चुनाव नहीं हांगे| और उससे भी खराब बात यह है कि भाजपा और जद (से.) मिलकर सरकार चलाएँगे| यदि यह सरकार अगले 40 माह चलती रही तो अगले चुनाव में क्या होगा, कुछ पता नहीं| अभी सवा तीन साल और फिर शायद अगले पाँच साल भी विपक्ष में बैठना पड़े| विपक्ष मे बैठना काँग्रेसियों को सबसे घृणास्पद कार्य लगता है| इस घृणास्पद स्थिति में काँग्रेस को देवगौड़ा या भाजपा ने नहीं फँसाया है| वह खुद फँसी हैं| उसने अपनी कब्र खुद खोदी है|
काँग्रेस को अब भी गठबंधन-धर्म समझ में नहीं आया है| दिल्ली और बेंगलूर की तर्ज़ एक ही नहीं हो सकती| बेंगलूर की अनिवार्यताएँ काफी अलग हैं| जिनके सहारे आपकी सरकार चल रही है, आप उन्हीं की टाँग तोड़ने पर आमादा हैं| जद (से.) के उप-मुख्यमंत्री सिद्घरमैया आदि को पुरू के हाथी बनाने में क्या तुक थी? सिद्घरमैया से सांठ-गाँठ करके तीन-चार जि़लों में काँग्रेस ने देवगौड़ा को चित जरूर कर दिया लेकिन वह यह भूल गई कि देवगौड़ा अपने सीने में पहले से सीताराम केसरी का घाव पाले हुए हैं और वे बागी सिद्घरमैया को दंडित करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं| सिद्घरमैया के अनुयायियों और काँग्रेसियों के वे फोटो भी कर्नाटक के अखबारों में छापे हैं, जिनमें वे देवगौड़ा के चित्रें को जूतों से पीट रहे हैं| भारत का यह पर्वू प्रधानमंत्री ड्राइ्रंडरूम पोलिटिशियन नहीं है| वह मैदानी-तुफानी नेता है| यदि काँग्रेस की मलिका उनसे दिल्ली में ठीक से मिल लेतीं तो भी शायद घावों पर मरहम लग जाता लेकिन बेंगलूर लौटते हुए देवगौड़ा ने तय कर लिया था कि वे धर्मसिंह-सरकार को गिराकर ही दम लेंगे| बेंगलूर और दिल्ली के काँग्रेसियों ने देवगौड़ा के सोये शेर को जगा दिया|
इसके पहले कि देवगौड़ा दहाड़ते, बाप के अपमान का बदला बेटे ने ले लिया| देवगौड़ा काँग्रेस को ज़ख्मी करना चाहते थे लेकिन कुमारस्वामी ने उसे ज़ख्मी तो किया ही, उसके ज़ख्मों में मिर्ची भी भर दी| भाजपा से हाथ मिला लिया| दोहरा तख्ता-पलट कर दिया| अपने पिता और काँग्रेस दोनों का तख्ता पलट दिया| बेंगलूर और दिल्ली की सरकारों की आँख में धूल झोंक दी| दोनों सरकारों के गुप्तचरों को पता ही नहीं चला कि कुमारस्वामी अपने छुरों पर तेज़ धार चढ़ा चुके हैं| देवगौड़ा को यह तकलीफ़ कहीं ज्यादा है कि उनके बेटे ने उन्हें ही अँधेरे में रखा लेकिन उन्हें गर्व होना चाहिए कि उनका बेटा उनसे भी अधिक चालाक निकला| बाप डाल-डाल तो बेटा पात-पात! यदि देवगौड़ा की योजना पर अमल होता तो उन्हें चुनाव में भाजपा के साथ कोई न कोई गोपनीय समझौता करना पड़ता और चुनाव के बाद भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ती| इसके अलावा उनके पास कोई चारा नहीं था| जो काम वे छह महीने बाद करते, उनके बेटे ने अभी कर दिया| नौ नक़द, तेरह उधार! इसमें दुखी होने का कोई कारण नहीं है| जहाँ तक सेक्युलरिज़्म का सवाल है, इससे बड़ा कोई ढ़ोंग आज की राजनीति में नहीं है| क्या भाजपा ( या जनसंघ) 1967 में सेक्युलर थी, जब उसके साथ मिलकर समाजवादियों और कम्युनिस्टों ने अनेक प्रांतीय सरकारें चवलाई थीं? विश्वनाथ प्रतापसिंह की सरकार भाजपा के टेके पर चलती रही या नहीं? क्या देवगौड़ा जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव से बड़े सेक्युलरिस्ट हैं? क्या फारूक अब्दुल्ला, ममता बनर्जी और चंद्रबाबू नायडू को कोई ‘सांप्रदायिक’ कह सकता है? वे छह-सात साल तक भाजपा का हाथ थामे रहे या नहीं? क्या अब तो जिन्ना-प्रसंग के बाद मुसलमान मतदाता जितना आडवाणी को सुनने आते हैं, किसी अन्य नेता को सुनने नहीं आते| भाजपा के कारण नीतिश को फायदा हुआ या नुक्सान? देवगौड़ा व्यर्थ ही अपनी छाती कूट रहे हैं| क्या इस उम्र में भी वे यह नहीं समझ पा रहे कि राजनीति का सिर्फ एक ही लक्ष्य है और वह, सत्ता! जनसेवा, विचारधारा, सिद्घांत और आदर्श-ये सब गए-गुजरे ज़माने की बातें हो गई हैं|
कर्नाटक में अब या तो भाजपा-जद (से.) गठबंधन सरकार बनेगी या विधानसभा भंग होगी| यदि किसी तकनीकी कारण के आधार पर कुमारस्वामी के विधायकों की सदस्यता रद्द हो गई तो भी काँग्रेस सरकार का चलना असंभव हो जाएगा| संख्या-गणित और लोकमत, दोनों उसके विरूद्घ होंगे| त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी जैसा निर्भय व्यक्ति, कठपुतली राज्यपाल की भूमिका निभाएगा, यह स्वप्न में भी नहीं सोचा जा सकता|
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