नवभारत टाइम्स, 24 मई 2005 : दक्षिण एशिया के सांसदों के सामने मुशर्रफ ने कश्मीर के बारे में जो कहा है, उस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है| खुद मुशर्रफ को पता है कि उनके हाथ में कोई जादू की छड़ी नहीं है लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि कश्मीर के हल को लेकर मुशर्रफ जितनी पतंग उड़ा रहे हैं, उतनी अब तक किसी पाकिस्तानी शासक ने नहीं उड़ाई| अक्तूबर में उन्होंने सारे जम्मू-कश्मीर को सात भागों में बांटने और हर भाग के बारे में अलग समझौता करने की बात कही थी| उनका यह प्रस्ताव न पाकिस्तान में किसी को पसंद आया और न भारत में| लेकिन इस बार उन्होंने कुछ ऐसे मुद्दे पेश किए हैं, जिन्हें जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती सईद ने काफी पसंद किया है| पहले देखें कि मुशर्रफ ने क्या कहा है|
पहला तो यह कि कश्मीर का हल मज़हबी आधार पर नहीं हो सकता| दूसरा, हल ऐसा हो कि वह भारत और पाकिस्तान के साथ-साथ कश्मीर की जनता को भी स्वीकार हो| तीसरा, यह हल मनमोहनसिंह और उनके सत्ता में रहते हुए ही हो जाए| इन तीन आधारों पर अगर उन तीन विकल्पों को तोलें, जिन्हें अपनी दिल्ली-यात्रा के दौरान मुशर्रफ ने उछाला था तो कुछ नई राह निकल सकती हैं| मुशर्रफ ने कहा कि पाकिस्तान नियंत्रण-रेखा को स्थायी-सीमा नहीं मानेगा| उन्होंने यह भी कहा कि भारत, जम्मू-कश्मीर की सीमा दुबारा खींचने को तैयार नहीं है| तो क्या तीसरा विकल्प यह है कि सीमाएं अन्तर्ध्यान हो जाएं, अदृश्य हो जाएं, असंगत हो जाएं ?
इस बार मुशर्रफ ने इस तीसरे विकल्प पर ही जोर दिया है और उसे अधिक स्पष्ट किया है| जिन पहले दो विकल्पों की चर्चा मुशर्रफ ने की थी, वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं| दोनों का मतलब एक ही है| भारत और पाक जम्मू-कश्मीर के बंटवारे को तैयार नहीं हैं अर्थात्र इस बात के लिए राजी नहीं हैं कि भारत अपने कश्मीर से और पाकिस्तान अपने कश्मीर से संतुष्ट हो जाए| तो क्या इसका उलट सही है? याने भारत वह कश्मीर भी लेना चाहता है, जो पाक के पास है और पाक वह कश्मीर भी लेना चाहता है, जो भारत के पास है? सैद्घांतिक तौर पर तो यह बात सही है| लेकिन व्यावहारिक तौर पर दोनों देशों ने इस बात को रद्द भी किया है, क्योंकि दोनों ने 6 जनवरी 2004 की संयुक्त घोषणा में कहा है कि वे कश्मीर का शांतिपूर्ण हल निकालेंगे और हल ऐसा होगा, जो दोनों को स्वीकार हो| अब मुशर्रफ ने इसमें तीसरी पार्टी कश्मीरी जनता को भी जोड़ दिया है| जाहिर है कि इन तीनों पार्टियों को कोई ऐसा हल मंजूर नहीं होगा, जिसकी वजह से पूरा जम्मू-कश्मीर किसी एक पार्टी की धरोहर बन जाए| भारत और भारत से ज्यादा पाकिस्तान यह बिल्कुल नहीं चाहेगा कि कश्मीर एक स्वतंत्र, पृथक, सार्वभौम राष्ट्र बन जाए| तो क्या किया जाए?
कुछ ऐसा किया जाए, जिससे कश्मीर की वर्तमान स्थिति में ज्यादा उथल-पुथल न मचे लेकिन फिर भी कारवां आगे बढ़े और इस कारवां को तीनों पार्टियों का टेका मिले| दूसरे शब्दों में कोई ऐसा हल निकाला जाए, जिससे तीनों पार्टियों को यह अहसास हो कि वे तीनों फायदे में हैं और अभी वे जहां खड़ी हैं, उससे कहीं आगे बढ़ रही हैं| ऐसा हल कौनसा हो सकता है?
यह वही है, जो मुशर्रफ चाहते हैं| मुशर्रफ कह रहे हैं कि सीमाएं खोलो| इतनी खोलो कि वे गायब हो जाएं| बसों की आवाजाही पहला कदम है| वीज़ा की छुट्टी, मुक्त-व्यापार, फौजों की वापसी, दोनों तरफ बराबर की स्वायत्तता, आगे जाकर संयुक्त विधान सभा, संयुक्त सरकार, संयुक्त विकास – यह सब धीरे-धीरे अपने आप चला आएगा| जाहिर है कि मनमोहन-मुशर्रफ अवधि इस काम के लिए कम पड़ेगी लेकिन कारवां अगर इस दिशा में बढ़ चला तो वह कश्मीर ही नहीं, भारत और पाकिस्तान को नए मुकाम पर ले जाएगा| जो कश्मीर दोनों राष्ट्रों के बीच शत्रुता की जड़ है, वह मित्रता की बेल बन जाएगा| दोनों राष्ट्रों की सबसे ज्यादा दुखती रग कश्मीर ही है| बीमारी का इलाज इसी रग से शुरू क्यों न किया जाए? दोनों कश्मीर मिलकर जो उदाहरण पेश करेंगे, भारत और पाक उसका अनुकरण कर सकते हैं|
यह रास्ता जितना सुगम मालूम पड़ रहा है, उतना ही दुर्गम है| आतंकवाद पहली समस्या है| पाकिस्तान को उसके विरुद्घ तहे-दिल से जुटना पड़ेगा और भारत को उसके आंतरिक कारणों पर प्रहार करना होगा| केवल पाकिस्तान के माथे ठीकरा फोड़ने से काम नहीं चलेगा| दूसरी तरफ पाकिस्तान को यह बताना होगा कि आतंकवाद को खत्म किए बिना भारत फौजों की वापसी कैसे करेगा? स्वायत्तता और लोकतंत्र, दोनों कश्मीरों को मिले, यह जरूरी है लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है, लोगों को रोज़गार और इज्जत मिले| भारत और पाक, दोनों को मिलकर संयुक्त योजनाएं बनानी होंगी| यदि वे ऐसा करेंगे तो क्या भारत-पाक बृहत्तर संबंधों में बुनियादी परिवर्तन नहीं हो जाएगा? यदि दोनों कश्मीरों की सीमा गायब हो जाएंगीं तो भारत-पाक सीमाएं कब तक टिकी रहेंगी? पूरा दक्षिण एशिया ही यूरोप नहीं बन जाएगा? यह प्रश्न लगभग निरर्थक हो जाएगा कि कौनसा कश्मीर किसके पास है? सारे दक्षिण एशिया में जो जहां रहता है, वह ही वहां का सर्वोच्च स्वामी होगा| सच पूछा जाए तो यह प्रक्रिया स्वाधीनता और संप्रभुता की परिभाषा ही बदल देगी|
कोई भी संविधान इस एतिहासिक प्रक्रिया के आड़े नहीं आ सकता| संवैधानिक दृष्टि से पाकिस्तानी कश्मीर ‘आजाद कश्मीर’ है| स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र है| उसका अपना संविधान, अपना प्रधानमंत्री, अपनी लोकसभा, अपना उच्चतम न्यायालय आदि है| ये सब कागजी सत्य हैं| इसी प्रकार संपूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का है, यह भी केवल कानूनी सत्य है| संवैधानिक प्रावधान और संसद का प्रस्ताव यदि अंतिम और अटल सत्य हैं तो फिर कौनसा विवाद है? जो फिर कश्मीर पर हम बात ही क्यों कर रहे हैं? हम यह न भूलें कि राजनीतिक सच्चाइयां दूल्हे की तरह होती हैं, जो आगे-आगे चलती हैं और कानूनी प्रावधान बारात की तरह होते हैं, जो अपने आप पीछे-पीछे चले आते हैं| यदि कश्मीर पर बर्फ पिघल गई तो दक्षिण एशिया के सभी संविधानों के कई पन्ने अपने आप गलकर गिर जाएंगे|
लेकिन कश्मीर पर बर्फ पिघलाने के लिए फिलहाल किसी भी संविधान को छेड़ने की जरूरत नहीं है| संवैधानिक प्रावधान अपनी जगह बने रहें और दोनों कश्मीरों में सहयोग बढ़ता चला जाए| कश्मीरियों को लगने लगे कि उनकी स्वायत्तता और समृद्घि बढ़ रही है| भारत को लगे कि पाकिस्तानी कश्मीर के भाग्य-निर्धारण में उसकी सुनी जा रही है और पाक को लगे कि भारतीय कश्मीर में उसकी सुनी जा रही है तो क्या यह त्र्िाविध संतोष कश्मीर के पूर्ण समाधान का प्रस्थान-बिंदु नहीं बनेगा? यह ठीक है कि दोनों राष्ट्रों में कश्मीर के सवाल पर अत्यंत उग्र जनमत बना हुआ है, जो मुशर्रफ और मनमोहन की राह का रोड़ा जरूर बनेगा लेकिन उसे यह भी पता है कि डंडे के जोर पर न तो पाकिस्तान भारत के कश्मीर को छीन सकता है और न ही भारत पाकिस्तान के कश्मीर को ! ऐसी स्थिति में क्या यह ठीक नहीं होगा कि दोनों राष्ट्र अपने-अपने कश्मीरों को अपने पास रखें लेकिन इस अदा से रखें कि वे न रखे हुए दिखाई पड़ें| वे दो होते हुए भी एक दिखाई पड़ें या एक होते हुए भी दो दिखाई पड़ें|
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