Dainik Bhaskar, 3 Dec 2004 : प्रधानमंत्री तो दोनों ही हैं, डॉ. मनमोहनसिंह और श्री शौकत अजीज भी, लेकिन दोनों बराबर नहीं हैं| मनमोहन भारत के नम्बर-एक हैं जबकि पाकिस्तान के नम्बर-एक जनरल मुशर्रफ हैं| इसीलिए मनमोहन-अज़ीज़ वार्ता में से कुछ चमत्कारी निष्कर्षों की आशा कोई भी नहीं कर रहा था| इसके अलावा शौकत अज़ीज़ भारत की द्विपक्षीय-यात्रा पर नहीं आए थे| वे सिर्फ भारत नहीं आए थे| वे दक्षेस के सभी देशों में अध्यक्ष की हैसियत से जा रहे हैं| इसीलिए कोई संयुक्त-बयान या संयुक्त पत्रकार-परिषद्र जैसी घटना भी आयोजित नहीं की गई| इसके अलावा मनमोहनजी की श्रीनगर-यात्रा के दौरान दोनों तरफ से ऐसी बेमुरव्वत बयानबाजी हुई कि अज़ीज़-यात्रा के विफल होने के आसार बन गए थे| इस पृष्ठभूमि के प्रकाश में अगर देखा जाए तो यही कहा जाएगा कि शौकत अज़ीज़-यात्रा सफल रही| सफलता का यह दावा इस्लामाबाद पहॅुंचते ही खुद शौकत अज़ीज़ ने किया है|
यदि मुशर्रफ की आगरा-यात्रा से तुलना करें तो लगता है कि यह यात्रा सचमुच सफल रही| कोई अपि्रयता पैदा नहीं हुई, क्या यह अपने आप में बड़ी बात नहीं है? मुशर्रफ ने पत्रकारों के साथ हुई नाश्ता-बैठक में कश्मीरी आतंकवाद को स्वातंत्र्य-संग्राम की संज्ञा क्या दी कि सारी यात्रा ही चौपट हो गई| पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने भी दो घंटे की नाश्ता बैठक की| उसमें हम लोगों ने उनसे कई आड़े-टेढ़े सवाल पूछे| स्वातंत्र्य-संग्रामवाली बात भी उठी लेकिन उनके हर सवाल का जवाब इतना संजीदा था कि कोई तनाव पैदा नहीं हुआ| उन्होंने नाश्ते के समय अपने प्रारंभिक वक्तव्य में यह साफ़-साफ़ कहा कि जब तक कश्मीर-समस्या पर प्रगति नहीं होती, अन्य मुद्दों पर भी नहीं होगी लेकिन लगता है कि यह बात उन्होंने पाकिस्तान के विरोधी दलों का मॅुंह बंद करने के लिए कही थी, क्योंकि थोड़ी ही देर में वह कहने लगे कि कश्मीर समस्या बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन उसकी वजहसे अन्य सभी मामलों को ठप नहीं करना है| अगर यह मूल दृष्टि लेकर वे भारत नहीं आते तो उनकी-यात्रा के दौरान बदमज़गी जरूर पैदा हो जाती, क्योंकि प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह श्रीनगर में दो-टूक शब्दों में कह ही चुके थे कि न तो भारत-पाक सीमा में कोई फेर-बदल होगा और न ही दुबारा कोई विभाजन होगा| वे कश्मीर पर ज्यादा जोर देते तो मनमोहनजी को शायद अधिक कठोरता से पेश आना पड़ता| इस मौके पर सबसे मज़ेदार बात यह हुई कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने न तो कश्मीर के मुद्दे को तूल दिया और न ही जनरल मुशर्रफ के विचार-बिंदुओं को उछाला| भारतीय पक्ष को यह आशंका थी कि शौकत अजीज़ मुशर्रफ के कश्मीर संबंधी प्रस्तावों को औपचारिक तौर पर भारत सरकार को सौपेंगे| विदेश मंत्री नटवरसिंह ने कई बार कहा था कि वे प्रस्ताव, जिनमें कश्मीर के दुबारा विभाजन की बात कही गई है, अगर औपचारिक रूप में आऍंगे तो हम उन पर अपनी प्रतिक्रिया देंगे| श्री शौकत अजीज़ ने हमारे विदेश मंत्रालय को इस दुविधा में पड़ने ही नहीं दिया| इसका मतलब साफ़ है कि मुशर्रफ-सरकार कश्मीर को अंगद का पॉंव नहीं बना रही है|
शौकत अजीज़ को हुर्रियत से मिलने दिया गया, यह अच्छा ही रहा| तीन टुकड़ों में टूटी हुई हुर्रियत से विचार-विनिमय करने के बाद उस रात शौकत अज़ीज़ को नींद आई होगी कि नहीं, कुछ पता नहीं| पाकिस्तान, जिसे कश्मीर का आइना समझता है, वह तीन जगह से तड़का हुआ है| इस तड़के हुए आइने में अज़ीज़ ने जब झॉंका होगा तो उन्हें कैसा लगा होगा, क्या वे यह राज़ की बात मुशर्रफ के अलावा किसी और को बता सकते हैं| वे हुर्रियत के कई टेढ़े सवालों का जवाब न दे सके| अपना-सा मॅुंह लेकर रह गए| उन्हें पता चल गया कि मुशर्रफ के प्रस्ताव भारत के सामने क्या पेश करें, उसके पहले हुर्रियत के गले तो उतारें| पाकिस्तान की इस मुसीबत का रहस्य अगर भारत के नीति-निर्माता अगर ठीक से समझ लें तो मुशर्रफ के आगे उन्हें कूटनीतिक मात खाने की जरूरत नहीं पड़ेगी| मुशर्रफ के प्रस्तावों को हम एकदम रद्द करें, उससे बेहतर यह है कि हम उन्हें दोनों तरफ के कश्मीरियों के पाले में फेंक दें| ये कश्मीरी ही उन्हें कच्चा चबा डालेंगे| पहले कश्मीरी आपस में लड़ेंगे, फिर वे पाकिस्तान के विरोधी दलों से भिड़ेंगे और अंत में पाकिस्तानी फौज इन प्रस्तावों का कचूमर निकाल देगी| भारत चाहे तो इस प्रक्रिया को इतना लम्बा चलवा सकता है कि उस दौरान रेल, बस, गैस पाइप लाइन, मुक्त व्यापार आदि सभी झरने बह निकल सकते हैं| इस रचनात्मक संभावना के परवान चढ़ते ही पाकिस्तान में एक ऐसी मजबूत लॉबी खड़ी हो जाएगी, जो आतंकवाद का विरोध भारत से भी ज्यादा डटकर करेगी| इस रचनात्मक प्रक्रिया के समर्थन में ईरान, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के पॉंचों मुस्लिम गणतंत्र तो उठकर खड़े हो ही जाऍंगे, महाशक्तियॉं भी भारत और पाक सरकारों की पीठ ठोकेगी| उस माहौल में कश्मीर समस्या का सुलझाना अधिक आसान होगा| यों भी जनवरी 2004 के मुशर्रफ-वाजपेयी वक्तव्य में यह साफ़-साफ़ कहा गया है कि कश्मीर का ऐसा हल निकाला जाएगा, जो दोनों को मान्य हो|
शौकत अज़ीज़ की खूबी यह है कि वे नेता नहीं हैं, बैंकर हैं| उन्हें ज्यादा दॉंव-पेंच पसंद नहीं हैं| उन्हें गर्व है कि वित्त मंत्री के तौर पर उन्होंने पाकिस्तान को आत्म-निर्भर बना दिया है| उसे आर्थिक संप्रभुता दिला दी है| इसीलिए उनका जोर सारे दक्षिण एशिया में आर्थिक सहकार बढ़ाने पर होगा| यह तत्व मुशर्रफ के दॉव-पेंचों को थोड़ा नरम भी करेगा| इधर मनमोहनसिंह भी उसी सॉंचे में ढले हैं बल्कि वे शौकत अज़ीज़ के लिए आदर्श-पुरुष हैं| यही कारण है कि दोनों देशों में राजनीतिक मतभेद होते हुए भी खोकरापार-मुनाबाओ रेल लाइन, श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस तथा गैस पाइप लाइन की बात आगे बढ़ी है| अज़ीज़ ने हमसे बात करते हुए कई बार कहा कि आप गैस पाइप लाइन लें या न लें, हम तो उसे क़तर और ईरान से ला ही रहे हैं| इसी प्रकार उन्होंने दोनों देशों में एक-दूसरे के बैंक खोलने की भी पेशकश की है| अन्य मुद्दों पर बात करने के लिए दोनों तरफ के अफसर भी अपने पूर्व-निश्चित कार्यक्रम के अनुसार मिलते रहेंगे| दूसरे शब्दों में पाकिस्तान ने मान लिया है कि कश्मीर के अड़ंगे के बावजूद भारत-पाक रथ अब रुकेगा नहीं| धीरे-धीरे ही सही, वह आगे बढ़ेगा|
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