Dainik Hindustan : कश्मीर के हालात पर दिया गया प्रधानमंत्री का भाषण अत्यंत मार्मिक था| उसके शब्द और शैली दिल में घर करनेवाले थे लेकिन उसका कितना असर हुआ ? दो दिन बाद ही कश्मीरी जनता फिर मैदान में निकल आई और फिर चार-पांच नौजवान मारे गए| पिछले दो माह में जितन दिन होते हैं, लगभग उतने ही नौजवान मारे गए| दो माह लंबे इस बगावती माहौल ने क्या सिद्घ किया ? केंद्र की तोप के मुकाबले हुर्रियत की तूती ज्यादा ताकतवर है| हुर्रियत के नेता अली शाह जीलानी की अपील कश्मीर के नौजवानों ने तुरंत मान ली और पत्थर-वर्षा बंद कर दी| तीन-चार दिन शांति रही और अब फिर पत्थर-वर्षा शुरू हो गई है| अब जीलानी का कहा भी कौन मानेगा ?
तो सरकार के पास अब क्या विकल्प रह गया है ? पत्थर-वर्षा के मुकाबले गोली-वार्ता ! हमारे जवानों ने शुक्रवार को यही किया ! क्या गोली-वर्षा पत्थर-वर्षा का सही जवाब है ? क्या यही एक मात्र् जवाब है ? पहले माना जाता था कि पत्थर-वर्षा का यह पैंतरा पाकिस्तान से बनकर आया है और पत्थर मारनेवाले लोग किराये पर रखे गए हैं| अब यह भ्रम टूट गया है| अगर गुस्साए हुए नौजवान पत्थर चलाते हैं तो उन्हें रोकने और भगाने के अन्य हजार तरीके हैं| दुनिया के दूसरे देशों में वे तरीके सफलतापूर्वक आजमाए जाते हैं लेकिन हमारे देश में पुलिस प्रदर्शनकारियों पर भेडि़यों की तरह टूट पड़ती है| यह सिर्फ कश्मीर में ही नहीं, सारे देश में होता है| कल्पना करें कि पुलिस की तरह अगर प्रदर्शनकारियों के हाथ में भी बंदूकें और बम हों तो क्या होगा ? या यों सोचे कि यदि पुलिसवालों के पास बंदूकें और बम न हो तो क्या होगा ? क्या पुलिसवाले कुछ बहादुरी दिखाएंगे ? क्या वे पत्थरों का मुकाबला पत्थरों से कर पाएंगे ? दूसरे शब्दों में कश्मीर में पुलिसवाले जो कर रहे हैं, वह बहादुरी बिल्कुल नहीं है| वह शुद्घ दादागीरी है| मूढ़ता है| पत्थरों से बचने के लिए हर पुलिसवाले के पास बेंत का रक्षा-कवच और लौह टोप होता है| यदि पत्थर मारनेवाले नौजवान कोई प्राणलेवा हिंसा कर रहे हों और वह गोली चलाए बिना नहीं रूक सकती हो तो जरूर गोली चलाई जाए लेकिन यदि वे सिर्फ तोड़-फोड़ कर रहे हैं तो उन पर गोली चलाना तो अपराध घोषित होना चाहिए| हम प्राण और वस्तु में ज़रा अंतर करें| वस्तु की हिंसा को हम प्राण की हिंसा से भी बड़ा मान रहे हैं|
इसी सैद्घांतिक आधार पर उस विशेष फौजी कानून को वापस लिया जाना चाहिए, जो कश्मीर और मणिपुर-जैसे सीमांत राज्यों पर थोपा गया है| यह कानून हमारे फौजी जवानों को निरंकुश बना देता है| उनकी हर हरकत को इस कानून के आधार पर उचित ठहरा दिया जाता है| राज्य का मैदानी नियंत्र्ण चुनी हुई सरकार के हाथ से निकलकर फौज के हाथ में चला जाता है| करती है, फौज और भरती है, सरकार ! प्रधानमंत्री ने इस गड़बड़ी को ठीक से समझा है| इसीलिए उन्होंने अपने भाषण में इस कानून को भी सुधारने के संकेत दिए हैं लेकिन असली सवाल है कि उनके संकेत को कश्मीर में तैनात हमारी फौज और पुलिस ने क्या रंचमात्र् भी ग्रहण किया है ? यदि किया होता तो मस्जि़द से लौट रही भीड़ पर वे गोलियां क्यों चलाते ? यह गोली-वर्षा सिर्फ कश्मीरियों के घावों पर तेजाब छिड़कना ही नहीं है, यह भारतीय लोकतंत्र् का भी अपमान है|
बेहतर तो यह हो कि सीमावर्ती इलाकों को छोड़कर पूरे कश्मीर से भारतीय फौज को तुरंत हटा लिया जाए| ऐसा करने से क्या हमारा कश्मीर पाकिस्तान के हाथ में चला जाएगा ? यह असंभव है, क्योंकि सीमा पर हमारी फौज अड़ी ही रहेगी और इसके अलावा फौज को दुबारा भेजने में कितने देर लगती है ? यह 2010 है, 1948 नहीं| इस समय पाकिस्तान अफगानिस्तान में इस बुरी तरह उलझा हुआ है कि वह भारत से भिड़ने की बात सपने में भी नहीं सोच सकता| यदि फौज के हटने पर कश्मीर के विघ्नसंतोषी तल बड़े पैमाने पर लूट-पाट और आगजनी आदि करेंगे तो वे कश्मीरी जनता के कोप-भाजन बनेंगे और भारत सरकार को वे जोरदार मौका देंगे कि वह कश्मीर पर अपना फौजी शिकंजा कस दे| यह असंभव नहीं कि फौज के हटने पर कश्मीरी लोग अहिंसा का रास्ता अपना लें| उस स्थिति में उनसे सीधे संवाद की बेहतर परिस्थितियों का निर्माण हो सकता है| इसका एक लाभ यह भी होगा कि पाकिस्तान की बोलती बंद हो जाएगी| भारत कश्मीर से फौज हटाए, यह पाकिस्तान का तकि़या कलाम है| इस कलाम को कलम कर देने से इस्लामी जगत में भारतीय विदेश नीति का पव्वा अपने आप मजबूत हो जाएगा| यदि भारत दुबारा कश्मीर में फौज भेजने पर मजबूर हुआ तो सारी दुनिया उसका समर्थन करेगी|
प्रधानमंत्री ने कश्मीरी नौजवानों के लिए रोजगार की जो पहल की है, उसकी कौन सराहना नहीं करेगा| लेकिन कब तो पेड़ उगेगा और कब उस पर फल लगेंगे ? अभी तो जंगल की आग की तरह फैल रही बगावत पर काबू पाना सबसे जरूरी है| कश्मीरियों को स्वायत्ता देने की बात भी काफी अच्छी है लेकिन वह इतनी निर्गुण-निराकार है कि वह उनके सिर पर से फिसल गई| वह कह रहे हैं कि स्वायत्ता तो दूर की बात है, आप पहले धारा 370 तो ईमानदारी से लागू कीजिए| स्वायत्ता के बारे में प्रधानमंत्र्ी नरसिंहराव ने कहा था कि उसकी कोई सीमा नहीं है| वे आकाश तक जा सकते हैं लेकिन किसी भी सरकार ने आज तक कोई ठोस पहल नहीं की| मुशर्रफ के प्रस्ताव भी फाइलों में सोये हुए हैं| भारत के नेताओं में आत्म-विश्वास की बड़ी कमी है| उनमें इतनी कूव्वत ही नहीं कि स्वायत्ता के सवाल पर पहले वे अपने अंदर एक राय कायम करें और फिर कश्मीरियों से बात करें| यदि उनमें आत्म-विश्वास होता तो वे कश्मीर से फौज को भी हटा लेते लेकिन कश्मीरियों को यह भी बता देते कि यदि वे अराजकता फैलाएंगे तो उन्हें केंद्र की भयंकर निर्ममता का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा| कश्मीर के बारे में हमारी सरकारों की नीतियां अक्सर लुंज-पुंज और कामचलाऊ होती हैं| यदि उनमें पुष्प् की-सी कोमलता के साथ-साथ लोहे की-सी कठोरता भी हो तो उनकी सफलता की संभावना कहीं ज्यादा होगी| किसी भी कश्मीर-नीति के सफल होने के लिए जरूरी है, साहसिकता की ! ऐसी साहसिकता, जो शमन और दमन के बीच उचित संतुलन कायम कर सके|
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