दैनिक भास्कर, 14 सितंबर 2010 | यह सवाल ‘भास्कर’ को पूछना चाहिए था, देश के गांधीवादियों से, आर्य समाजियों से, समाजवादियों से, संघियों से, हिंदी साहित्य सम्मेलनों से और दक्षिण के हिंदी प्रचारकों से लेकिन उन्होंने यह मुझसे पूछ लिया है| क्यों पूछा है, यह तो वे ही बता सकते हैं लेकिन इस सवाल का जवाब आसान नहीं है|
इसका पहला जवाब तो यही दिया जाता है कि देश में अब हिंदी आंदोलन की जरूरत ही क्या है ? इस समय भारत की गति कुछ ऐसी है कि यहां कोई भी आंदोलन नहीं चल पा रहा तो हिंदी आंदोलन कैसे चल सकता है ? सारे आंदोलन लगभग रीत गए हैं| न शराबबंदी, न खादी, न जंगल बचाओ, न जात तोड़ो, न मंदिर प्रवेश – अब कोई भी आंदोलन उभार पर नहीं है| 20 साल पहले राम मंदिर का आंदोलन चला जरूर लेकिन वह राजनीति की भेंट चढ़ गया| वह हिंदु-मुसलमान का मुद्रदा बनकर रह गया| वह भी अधर में लटक गया| वह वोट-बैंक का शिकार हो गया|
दूसरे शब्दों में अब आंदोलन वही चल सकता है, जिसका वोट और नोट से सीधा संबंध हो| किसी जात को आरक्षण चाहिए, किसी तबके को अपनी ज़मीन की ज्यादा क़ीमत चाहिए, किसी प्रांत को ज्यादा पानी चाहिए, कुछ नेताओं को सुल्तानी के सपने सताते रहते हैं, इसलिए उन्हें स्वायत्ता चाहिए| तात्पर्य यह कि सभी लोग अपना-अपना उल्लू सीधी करने में लगे हुए हैं| उन्हें देश की नहीं, खुद की चिंता है| ऐसे में हिंदी आंदोलन कौन चलाएगा ? हिंदी से किसी खास तबके को कोई खास फायदा नहीं है| तुरंत फायदा तो बिल्कुल नहीं है| जो फायदा है, वह सबका है| गहरा है| लेकिन निर्गुण-निराकार है| स्वभाषा के प्रयोग से कोई राष्ट्र शक्तिशाली, महान और समृद्घ कैसे बनता है, स्वभाषा किसी भी शासन पद्घति को समतामूलक, आधुनिक और लोकतांत्र्िक कैसे बनाती है, विदेशी भाषा का ‘वर्चस्व’ राष्ट्रीय अस्मिता और मौलिकता को कैसे नष्ट करता है – इन सब बातों की समझ क्या आज किसी नेता को है ? किसी राजनीतिक दल को है ? सारे नेता वोट और नोट के चक्कर में हैं| क्या दयानंद, गांधी और लोहिया की परंपरा को आगे बढ़ानेवाला कोई नेता आज भारत में है ? नेताओं की कुर्सियों में आज पिछलग्गू लोग जमे हुए हैं, सभी दलों में ! उन्हें नेता मानना नेताई का अपमान है| ये नेतागण वही करते हैं, जो जनता चाहती है|
जनता क्या चाहती है ? हमारी जनता सहजयानी है| उसे हर चीज़ सेंत-मेत में चाहिए| वह ज्यादा सोच-विचार में नहीं पड़ती| जिधर दो पैसे का फायदा दिखे, उधर ही चल पड़ती है| वह हिंदी के लिए क्यों लड़े ? अपने बच्चों पर अंग्रेजी लदवाने के लिए सभी तैयार हैं| भेड़-चाल चल पड़ी है| सरकार ने चौखट नीची कर दी तो क्या हुआ ? सिर झुकाएंगे, घुटने टिकाएंगे और निकल जाएंगे| चौखट को ऊँचा करवाने की आवाज़ कोई नहीं उठाएगा ? अंग्रेजी की चौखट को तोड़ने में हम ताकत खर्च क्यों करें ? यदि गरीबों, ग्रामीणों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के बच्चे अंग्रेजी में फेल हो जाते हैं और उन्हें नौकरियां नहीं मिलती हैं तो हम क्या करें ? हमारे बच्चे तो रो-धोकर पास हो ही जाते हैं| 22 करोड़ बच्चों में से अगर सिर्फ 35 लाख बच्चे ही बी.ए. तक पहुंच पाते हैं तो यह तो और भी अच्छा है| प्रतिस्पर्धा घट जाती है| हमारे बच्चों को अदृश्य आरक्षण मिल जाता है| अपना उल्लू तो सीधा हो रहा है, न ! हम क्यों हिंदी के लिए आंदोलन करें ? इस देश के जितने आरक्षणवादी नेता हैं, वे भी इस धोखे से सतर्क नहीं हैं| वे सवर्णों, संपन्नों, शहरियों की नक़ल करते हैं| उन्हें अपनी जातियों के आम लोगों की ज़रा भी परवाह नहीं है| वे अपनी और अपने बच्चों की रोटियॉं चुपड़ने में पागल हुए जा रहे हैं| पिछड़ों की मलाईदार पर्तों और मलाईदार अगड़ों का यह अदृश्य गठबंधन इस देश में अंग्रेजी के वर्चस्व और जातिवाद की रक्षा पर कमर कसे हुए है| हिंदी आंदोलन से जिस विशाल और बेजुबान तबके का हित-संपादन होगा, उसकी परवाह उन्हें नहीं है|
देश के सबसे बड़े समझे जानेवाले नेता जब अंग्रेजी की गुलामी को अपना अहोभाग्य मानते हैं तो नौकरशाह और बुद्घिजीवियों से हम क्या आशा करें ? सारा देश आज विकास के द्वंद्व में फंसा है| वह पश्चिमी ढंग का विकास चाहता है| डॉलरानंद ही ब्रहमानंद है| अमेरिका स्वर्ग है| ओबामा कृष्ण के अवतार हैं| आपने जब पटरी उधर जानेवाली डाल दी है तो रेल भी उधर ही जाएगी| मालिक की भाषा ही भाषा है, हिंदी-विंदी तो बोली भर है| उसे किसान-मजदूर बोलें, नौकर-चाकर बोलें, सिनेमा-टीवी पर वह सुनाई पड़ जाए, इतना काफी है| भला वह मान-सम्मान, मौलिक सोच, पद, शक्ति और पैसे की भाषा कैसे हो सकती है ? हॉं, चुनाव के वक्त गाड़ी अटकती है तो कोई बात नहीं| हिंदी में भाषण घसीटनेवाले टके सेर मिलते हैं| हिंदी को इस्तेमाल किया और फेंका !
इस द्वंद्वात्मक दौर में हमारे नेता और जनता दोनों ही दिग्भ्रम के शिकार हो गए हैं| ऐसे दिग्भ्रम का दौर लगभग हर राष्ट्र के इतिहास में आता है| वह यह तय नहीं कर पाता है कि वह अपनी सिंह-अस्मिता की रक्षा करे या भेड़-चाल चले| एक बार वह सच्चे अर्थों में शक्तिसंपन्न और आधुनिक बनना जैसे ही शुरू करेगा, वह अपनी परंपरा, अपनी अस्मिता और अपना भाषा की तरफ दौड़ेगा, जैसे कि कभी बि्रटेन, जापान और रूस दौड़े थे| यह काम खून बहाए बिना और आंदोलन चलाए बिना अपने आप भी हो सकता है| इतिहास के चक्र की गति अपरंपार है| अभी हिंदी के लिए कोई आंदोलन नहीं है तो न सही लेकिन क्या कोई गूंगा राष्ट्र महाशक्ति बन सकता है ? गूंगा ही नहीं, बहरा भी ! जो अपनी जनता की आवाज़ न सुन सके, ऐेसे बहरे और गूंगे राष्ट्र की आवाज कौन सुनेगा ? हिंदी के दिन फिरेंगे, इसमें मुझे जरा भी शंका नहीं है|
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाषा के सवाल पर महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डॉ. लोहिया की परंपरा को आगे बढ़ानेवालों में डॉ. वेदप्रताप वैदिक का नाम अग्रणी है|
1957 में सिर्फ 13 साल की आयु में उन्होंने हिंदी सत्याग्रह में अपनी पहली जेल-यात्र की| वे भारत के ऐसे पहले राजनीतिशास्त्र्ी हैं, जिन्होंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखा| ‘स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़’ (ज.ने.वि) ने इसी मुद्दे पर उनकी छात्र्वृत्ति रोक दी और उनका निष्कासन किया, जिसे लेकर 1966-67 में भारतीय संसद में जबर्दस्त हंगामा हुआ| डॉ. राममनोहर लोहिया, मधु लिमए, आचार्य कृपालानी, हीरेन मुखर्जी, प्रकाशवीर शास्त्र्ी, अ.वि. वाजपेयी, चंद्रशेखर, भागवत झा आजाद, हेम बरूआ आदि ने वैदिक का समर्थन किया| श्रीमती इंदिरा गांधी की पहल पर ‘स्कूल’ के संविधान में संशोधन हुआ और वैदिक को वापस लिया गया| वैदिक ने इतिहास रचा| वे हिंदी के संघर्ष के राष्ट्रीय प्रतीक बन गए|
डॉ. वैदिक ने पिछले 50 वर्षों में अनेक हिंदी आंदोलन चलाए और अपने चिंतन व लेखन से यह सिद्घ किया कि स्वभाषा में किया गया काम अंग्रेजी के मुकाबले कहीं बेहतर हो सकता है| वे कई विदेशी भाषाओं के जानकार हैं| वे नवभारत टाइम्स और पीटीआई-भाषा के संपादक रहे और अनेक भारतीय और विदेशी शोध-संस्थानों और विश्वविद्यालयों में ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ रहे हैं| उन्होंने भारतीय विदेश नीति के चिंतन और संचालन में उल्लेखनीय भूमिकाएं निभाई हैं| उन्होंने लगभग 80 देशों की यात्रएं की हैं| वे भास्कर के जाने-माने स्तंभकार हैं|
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