अमेरिका के नव-निर्वाचित उप-राष्ट्रपति जो बाइडन का शनिवार को अफगानिस्तान जाना और रविवार को अफगानिस्तान के राष्ट्रपति का अचानक भारत आना-ये दो अलग-अलग घटनाएँ नहीं हैं| यह अमेरिका की नई ओबामा-नीति का प्रथम चरण है| 20 जनवरी को राष्ट्रपति की गद्दी पर बैठने के पहले ओबामा दक्षिण एशिया की पेचीदगियों को भली-भांति समझ लेना चाहते हैं| उनकी दुविधा यह है कि वे बुश की नीति को ही चलाए रखें या दक्षिण एशिया के लिए कोई नई नीति बनाएँ ? भारत और अफगानिस्तान जाने के पहले बाइडन पाकिस्तान गए थे| अभी तक ओबामा खेमे ने किसी नई नीति के संकेत नहीं दिए हैं लेकिन ओबामा के ताज़ा बयान से यह जाहिर होता है कि मुंबई का ताप अभी ठंडा नहीं हुआ है| उनका माथा अभी भी गर्म है| ओबामा ने कहा है कि जो मुंबई में हुआ, वह न्यूयार्क, वाशिंगटन और शिकागो जैसे शहरों में भी हो सकता है| इसके पहले वे कह चुके हैं कि भारत को आत्म-रक्षा का पूरा अधिकार है| नाटो-फौजों के कमांडर जनरल पेट्रेयस का कहना है कि अफगान-समस्या का हल भारत की सहायता के बिना नहीं हो सकता ! उन्होंने कहा है कि दक्षिण एशिया से आतंकवाद और हिंसा का खात्मा करने के लिए ‘क्षेत्रीय समाधान’ ढूंढ़ना बहुत जरूरी है| इस ‘क्षेत्रीय समाधान’ के लिए रूस और चीन के अलावा पाकिस्तान के अन्य पड़ौसी देशों को भी साथ लेना होगा| अमेरिका ने अफगानिस्तान के ‘क्षेत्रीय समाधान’ की कोई योजना अभी तक पेश नहीं की है, सिवाय इसके कि अफगानिस्तान में वह 30 हजार जवान और भेज देगा| बुश प्रशासन के इस पुराने प्रस्ताव का क्षेत्रीय हल से कोई संबंध नहीं है| यह बासी जलेबी पर चाशनी की नई परत चढ़ाने-जैसा काम है| पश्चिमी फौज अफगानिस्तान में काफी कुर्बानी कर रही है लेकिन उसके मुकाबले उसकी सफलता बहुत कम है| काबुल स्थित पिछले नाटो राजदूत ने अपनी हताशा खुले-आम प्रकट भी कर दी थी| अमेरिकियों को पता है कि यदि नाटो-फौजों का यही हाल रहा तो अभी कम से कम 15 साल तक वे अफगानिस्तान में ही पड़ी रहेंगी| ये फौजें अफगान-जनता के बीच काफी अलोकपि्रय होती जा रही हैं| पिछले दिनों मुझे अफगानिस्तान के कई शहरों और गांवों में जाने का मौका मिला| अनेक अफगानों ने एक ही बात कही कि ये पश्चिमी जवान सोवियत जवानों से भी खराब हैं| ये हमारे घरों में घुसकर औरतों की तलाशी लेते हैं, बारातों और शादीघरों पर रॉकेट बरसाते हैं और हेलमंद घाटी में अफीम की तस्करी में भी हाथ बटाते हैं| पश्चिमी फौजों की अंधाधुंध कार्रवाई के कारण हामिद करज़ई सरकार भी बदनाम होती जा रही है| तालिबान का असर बढ़ता चला जा रहा है| सात साल बीत गए लेकिन करज़ई सरकार अपने पांव पर खड़ी नहीं हो सकी है| यदि नाटो फौजें वापस हो जाएँ तो काबुल पर कब्जा करने में तालिबान को चार-पाँच घंटे भी नहीं लगेंगे| अर्थात अफगानिस्तान का अमेरिका-समाधान विफल हो गया है| उसके मुकाबले अब ‘क्षेत्रीय समाधान’ की बात चल पड़ी है| अफगानिस्तान के ‘क्षेत्रीय समाधान’ की बात मैंने पाँच-छह माह पहले उठाई थी (देखिए, न.भा.टा. 9 जुलाई 2008) ! जनरल पेट्रेयस ने मोटे तौर पर उन्हीं शब्दों को दोहराया है| गत माह ओबामा के विदेश नीति सलाहकारों के एक दल ने दिल्ली आकर तीन-चार दिन इसी सवाल पर काफी मगजपच्ची की| वे काफी हड़बड़ी में दिखाई पड़े| ऐसा लगा कि अमेरिका अफगानिस्तान खाली करने की फि़राक में है| उसका हौसला पस्त हो रहा है| उसके फौजी थक रहे हैं, टूट रहे हैं| मंदी के दौर में करोड़ों डॉलर रोज़ खर्च हो रहे हैं| सात साल में वह लगभग 70 हजार करोड़ डॉलर बहा चुका है| पाकिस्तान उसे अलग नोच रहा है| उसे क्षेत्रीय समाधान ऐसा लगा जैसे डूबते को कोई तिनका दिखाई पड़ जाए| कोई आश्चर्य नहीं कि इसी ‘क्षेत्रीय समाधान’ के लिए यह कूटनीतिक दौड़-धूप हो रही हो| ‘क्षेत्रीय समाधान’ का अर्थ अमेरिका यही लगा रहा है कि भारत अपनी फौजें अफगानिस्तान में डटा दे| अमेरिकी फौजें निकल आएँ और उनकी जगह भारतीय फौजें चली जाएँ| ‘क्षेत्रीय समाधान’ का यह बहुत ही बचकाना स्वरूप है| 1981 में प्रधानमंत्री बबरक कारमल ने लगभग यही प्रस्ताव रखा था, जिसे मैंने तत्काल अव्यावहारिक बताया था| मुझे डर यह है कि हमारी सरकार कहीं इस अमेरिकी पुडि़या को बिना चबाए ही न निगल जाए| अमेरिका के साथ ‘सामरिक साझेदारी’, ‘बुश की दोस्ती’ और परमाणु-समझौते के मादक माहौल में कहीं हमारे सीधे-सादे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री गच्चा न खा जाएँ| हम यह न भूलें कि अफगानिस्तान ने पिछले डेढ़ सौ साल में तीन बार बि्रटिश फौजों को धूल चटाई है और सोवियत फौजों को परास्त ही नहीं किया, सोवियत संघ को भंग करने में भी अपना योगदान किया है| भारत को इतिहास से सबक लेने होंगे|
भारत अपनी फौजें अफगानिस्तान जरूर भेजे, क्योंकि वह क्षेत्रीय महाशक्ति है और संपूर्ण दक्षिण एशिया, ‘आर्यना’, उसका अपना क्षेत्र् है लेकिन उसका स्वरूप वैसा नहीं होना चाहिए, जैसा सोवियत या नाटो-फौजों का है| ये फौजें अफगानिस्तान पर लाद दी गईं जबकि अब जो नया प्रबंध हो, उसके अंतर्गत अफगानिस्तान की संसद से अनुमति ली जानी चाहिए| सिर्फ अफगान सरकार और ओबामा-प्रशासन की हरी झंडी काफी नहीं है| सिर्फ अफगानिस्तान ही नहीं, पाकिस्तान की संसद की सहमति भी आवश्यक है| पाकिस्तान के सहयोग के बिना अफगानिस्तान में किसी भी विदेशी फौज का सफल होना आसान नहीं है| मुंबई-हमले ने इस मूल परिदृश्य को बदल दिया है| पाकिस्तानी नेता जैसी हठधर्मी दिखा रहे हैं, उसके चलते पाकिस्तान अपने पिछवाड़े में भारतीय फौजों को किसी क़ीमत पर नहीं घुसने देगा| ऐसी स्थिति में भारतीय फौजों को काबुल ले जाने का अर्थ है, अमेरिका और पाकिस्तान का सीधा झगड़ा ! क्या अमेरिका इसके लिए तैयार है ? शायद ओबामा इतनी हिम्मत नहीं कर पाएँगे| क्या वे भारतीय फौज का खर्च उठाने को तैयार होंगे ? अमेरिकी फौज के मुकाबले वह बहुत कम होगा| भारतीय फौज नाटो-फौजों के मुकाबले काफी अधिक प्रभावशाली भी होगी| लेकिन ओबामा को 60 साल से चली आ रही अमेरिकी नीति को एकदम उलटना होगा| अभी तक वह सिर के बल खड़ी है| उसे पाँव के बल खड़ा करना होगा| दक्षिण एशिया में अमेरिका ने अब तक नक़ली शक्ति संतुलन की जो नीति अपना रखी है, उसे उसको कूड़ेदान के हवाले करना होगा| पाकिस्तान को भारत के समकक्ष खड़ा करना बंद करना पड़ेगा| यदि अमेरिका इस मौलिक परिवर्तन के लिए तैयार हो तो मुंबई-हमले का सच्चा प्रतिकार भी हो सकता है और अफगान-समस्या का हल भी ! यदि अमेरिका अपने पुराने ढर्रे पर चलता रहा और हमारी सरकार उसके ‘क्षेत्रीय समाधान’ के भुलावे में फँस गई तो भारत गच्चा खाए बिना नहीं रहेगा|
कहीं भारत गच्चा न खा जाए
Dainik Bhaskar, 13 Jan 2009 : अमेरिका के नव-निर्वाचित उप-राष्ट्रपति जो बाइडन का शनिवार को अफगानिस्तान जाना और रविवार को अफगानिस्तान के राष्ट्रपति का अचानक भारत आना-ये दो अलग-अलग घटनाएँ नहीं हैं| यह अमेरिका की नई ओबामा-नीति का प्रथम चरण है| 20 जनवरी को राष्ट्रपति की गद्दी पर बैठने के पहले ओबामा दक्षिण एशिया की पेचीदगियों को भली-भांति समझ लेना चाहते हैं| उनकी दुविधा यह है कि वे बुश की नीति को ही चलाए रखें या दक्षिण एशिया के लिए कोई नई नीति बनाएँ ? भारत और अफगानिस्तान जाने के पहले बाइडन पाकिस्तान गए थे| अभी तक ओबामा खेमे ने किसी नई नीति के संकेत नहीं दिए हैं लेकिन ओबामा के ताज़ा बयान से यह जाहिर होता है कि मुंबई का ताप अभी ठंडा नहीं हुआ है| उनका माथा अभी भी गर्म है| ओबामा ने कहा है कि जो मुंबई में हुआ, वह न्यूयार्क, वाशिंगटन और शिकागो जैसे शहरों में भी हो सकता है| इसके पहले वे कह चुके हैं कि भारत को आत्म-रक्षा का पूरा अधिकार है| नाटो-फौजों के कमांडर जनरल पेट्रेयस का कहना है कि अफगान-समस्या का हल भारत की सहायता के बिना नहीं हो सकता ! उन्होंने कहा है कि दक्षिण एशिया से आतंकवाद और हिंसा का खात्मा करने के लिए ‘क्षेत्रीय समाधान’ ढूंढ़ना बहुत जरूरी है| इस ‘क्षेत्रीय समाधान’ के लिए रूस और चीन के अलावा पाकिस्तान के अन्य पड़ौसी देशों को भी साथ लेना होगा|
अमेरिका ने अफगानिस्तान के ‘क्षेत्रीय समाधान’ की कोई योजना अभी तक पेश नहीं की है, सिवाय इसके कि अफगानिस्तान में वह 30 हजार जवान और भेज देगा| बुश प्रशासन के इस पुराने प्रस्ताव का क्षेत्रीय हल से कोई संबंध नहीं है| यह बासी जलेबी पर चाशनी की नई परत चढ़ाने-जैसा काम है| पश्चिमी फौज अफगानिस्तान में काफी कुर्बानी कर रही है लेकिन उसके मुकाबले उसकी सफलता बहुत कम है| काबुल स्थित पिछले नाटो राजदूत ने अपनी हताशा खुले-आम प्रकट भी कर दी थी| अमेरिकियों को पता है कि यदि नाटो-फौजों का यही हाल रहा तो अभी कम से कम 15 साल तक वे अफगानिस्तान में ही पड़ी रहेंगी| ये फौजें अफगान-जनता के बीच काफी अलोकपि्रय होती जा रही हैं| पिछले दिनों मुझे अफगानिस्तान के कई शहरों और गांवों में जाने का मौका मिला| अनेक अफगानों ने एक ही बात कही कि ये पश्चिमी जवान सोवियत जवानों से भी खराब हैं| ये हमारे घरों में घुसकर औरतों की तलाशी लेते हैं, बारातों और शादीघरों पर रॉकेट बरसाते हैं और हेलमंद घाटी में अफीम की तस्करी में भी हाथ बटाते हैं| पश्चिमी फौजों की अंधाधुंध कार्रवाई के कारण हामिद करज़ई सरकार भी बदनाम होती जा रही है| तालिबान का असर बढ़ता चला जा रहा है| सात साल बीत गए लेकिन करज़ई सरकार अपने पांव पर खड़ी नहीं हो सकी है| यदि नाटो फौजें वापस हो जाएँ तो काबुल पर कब्जा करने में तालिबान को चार-पाँच घंटे भी नहीं लगेंगे| अर्थात अफगानिस्तान का अमेरिका-समाधान विफल हो गया है| उसके मुकाबले अब ‘क्षेत्रीय समाधान’ की बात चल पड़ी है|
अफगानिस्तान के ‘क्षेत्रीय समाधान’ की बात मैंने पाँच-छह माह पहले उठाई थी (देखिए, न.भा.टा. 9 जुलाई 2008) ! जनरल पेट्रेयस ने मोटे तौर पर उन्हीं शब्दों को दोहराया है| गत माह ओबामा के विदेश नीति सलाहकारों के एक दल ने दिल्ली आकर तीन-चार दिन इसी सवाल पर काफी मगजपच्ची की| वे काफी हड़बड़ी में दिखाई पड़े| ऐसा लगा कि अमेरिका अफगानिस्तान खाली करने की फि़राक में है| उसका हौसला पस्त हो रहा है| उसके फौजी थक रहे हैं, टूट रहे हैं| मंदी के दौर में करोड़ों डॉलर रोज़ खर्च हो रहे हैं| सात साल में वह लगभग 70 हजार करोड़ डॉलर बहा चुका है| पाकिस्तान उसे अलग नोच रहा है| उसे क्षेत्रीय समाधान ऐसा लगा जैसे डूबते को कोई तिनका दिखाई पड़ जाए| कोई आश्चर्य नहीं कि इसी ‘क्षेत्रीय समाधान’ के लिए यह कूटनीतिक दौड़-धूप हो रही हो|
‘क्षेत्रीय समाधान’ का अर्थ अमेरिका यही लगा रहा है कि भारत अपनी फौजें अफगानिस्तान में डटा दे| अमेरिकी फौजें निकल आएँ और उनकी जगह भारतीय फौजें चली जाएँ| ‘क्षेत्रीय समाधान’ का यह बहुत ही बचकाना स्वरूप है| 1981 में प्रधानमंत्री बबरक कारमल ने लगभग यही प्रस्ताव रखा था, जिसे मैंने तत्काल अव्यावहारिक बताया था| मुझे डर यह है कि हमारी सरकार कहीं इस अमेरिकी पुडि़या को बिना चबाए ही न निगल जाए| अमेरिका के साथ ‘सामरिक साझेदारी’, ‘बुश की दोस्ती’ और परमाणु-समझौते के मादक माहौल में कहीं हमारे सीधे-सादे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री गच्चा न खा जाएँ| हम यह न भूलें कि अफगानिस्तान ने पिछले डेढ़ सौ साल में तीन बार बि्रटिश फौजों को धूल चटाई है और सोवियत फौजों को परास्त ही नहीं किया, सोवियत संघ को भंग करने में भी अपना योगदान किया है| भारत को इतिहास से सबक लेने होंगे|
भारत अपनी फौजें अफगानिस्तान जरूर भेजे, क्योंकि वह क्षेत्रीय महाशक्ति है और संपूर्ण दक्षिण एशिया, ‘आर्यना’, उसका अपना क्षेत्र् है लेकिन उसका स्वरूप वैसा नहीं होना चाहिए, जैसा सोवियत या नाटो-फौजों का है| ये फौजें अफगानिस्तान पर लाद दी गईं जबकि अब जो नया प्रबंध हो, उसके अंतर्गत अफगानिस्तान की संसद से अनुमति ली जानी चाहिए| सिर्फ अफगान सरकार और ओबामा-प्रशासन की हरी झंडी काफी नहीं है| सिर्फ अफगानिस्तान ही नहीं, पाकिस्तान की संसद की सहमति भी आवश्यक है| पाकिस्तान के सहयोग के बिना अफगानिस्तान में किसी भी विदेशी फौज का सफल होना आसान नहीं है| मुंबई-हमले ने इस मूल परिदृश्य को बदल दिया है| पाकिस्तानी नेता जैसी हठधर्मी दिखा रहे हैं, उसके चलते पाकिस्तान अपने पिछवाड़े में भारतीय फौजों को किसी क़ीमत पर नहीं घुसने देगा| ऐसी स्थिति में भारतीय फौजों को काबुल ले जाने का अर्थ है, अमेरिका और पाकिस्तान का सीधा झगड़ा ! क्या अमेरिका इसके लिए तैयार है ? शायद ओबामा इतनी हिम्मत नहीं कर पाएँगे| क्या वे भारतीय फौज का खर्च उठाने को तैयार होंगे ? अमेरिकी फौज के मुकाबले वह बहुत कम होगा| भारतीय फौज नाटो-फौजों के मुकाबले काफी अधिक प्रभावशाली भी होगी| लेकिन ओबामा को 60 साल से चली आ रही अमेरिकी नीति को एकदम उलटना होगा| अभी तक वह सिर के बल खड़ी है| उसे पाँव के बल खड़ा करना होगा| दक्षिण एशिया में अमेरिका ने अब तक नक़ली शक्ति संतुलन की जो नीति अपना रखी है, उसे उसको कूड़ेदान के हवाले करना होगा| पाकिस्तान को भारत के समकक्ष खड़ा करना बंद करना पड़ेगा| यदि अमेरिका इस मौलिक परिवर्तन के लिए तैयार हो तो मुंबई-हमले का सच्चा प्रतिकार भी हो सकता है और अफगान-समस्या का हल भी ! यदि अमेरिका अपने पुराने ढर्रे पर चलता रहा और हमारी सरकार उसके ‘क्षेत्रीय समाधान’ के भुलावे में फँस गई तो भारत गच्चा खाए बिना नहीं रहेगा|
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