जनसत्ता, 17 जनवरी 2011 : भाजपा की कार्यकारिणी के राष्ट्रीय अधिवेशन से भाजपा के कार्यकर्ता काफी उत्साहित मालूम पड़ते हैं लेकिन गुवाहाटी की इस नौटंकी में से निकला क्या ? यदि थोड़ी गहराई में जाएँ तो पता चलेगा कि कांग्रेस के दुर्भाग्य को भाजपा अपना सौभाग्य बनाने पर तुली हुई है| इससे ज्यादा कुछ नहीं| मूल प्रश्न यह है कि क्या भाजपा सबल और शानदार विपक्ष की भूमिका निभाने को तैयार है ? अपने आप को सत्ता की वैकल्पिक पार्टी बतानेवाली भाजपा ने अगले चुनाव तक क्या अपने नेतृत्व, नीति, कार्यक्रम, लक्ष्य और विकल्प का कोई ठोस नक्शा तैयार किया है ?
जहां तक नितिन गडकरी का सवाल है, पार्टी अध्यक्ष के नाते उनकी भूमिका आशा से कहीं बेहतर रही और उनके भाषण में भी जोश-खरोश पर्याप्त था लेकिन उसमें कांग्रेस के भ्रष्टाचार, मंहगाई और पूर्वांचल में बढ़ रहे बांग्लादेशी खतरे के अलावा खास क्या था ? भाजपाई राज्यों में हो रहे रचनात्मक कार्यों का उन्होंने अत्यंत संक्षिप्त उल्लेख किया और विदेश नीति पर उन्होंने जो बोला, उसमें न तो गंभीरता दिखाई पड़ती है और न ही कोई भविष्य-दृष्टि ! भारत सरकार की पाकिस्तान-नीति की आलोचना यदि भाजपा-अध्यक्ष नहीं करेगा तो कौन करेगा लेकिन यह आलोचना सतही है| इतना ही नहीं, वे यह भी नहीं बताते कि आखिर पाकिस्तान के प्रति हमारी नीति क्या होना चाहिए ? क्या इंदिरा गांधी की तरह होनी चाहिए या अटलबिहारी वाजपेयी की तरह ? क्या पाकिस्तान के प्रति हमारी नीति का निर्धारण अमेरिकी दबाव में नहीं हो रहा है ? अफगानिस्तान में हमने साढ़े सात हजार करोड़ रू. लगा दिए लेकिन वहां हमारी स्थिति क्या है ? क्या अमेरिकी वापसी के बाद हम वहां टिक पाएंगें ? इसी तरह नेपाल की अस्थिरता भारत के लिए कितनी घातक सिद्घ हो सकती है, इस बारे में अध्यक्षजी ने एक शब्द भी नहीं कहा है| ईरान, बांग्लादेश, म्यांमार का जिक्र तक नहीं है और श्रीलंका आदि पड़ौसी देशों के बारे में भारतीय नीति का कोई वस्तुनिष्ठ मूल्याकन नहीं है|
आश्चर्य की बात तो यह है कि चीन के बारे में गोलमोल शब्दावली का प्रयोग किया गया है| यह ठीक है कि गडकरी अगले हफ्ते चीन जा रहे हैं लेकिन इतनी भी लिहाजदारी किस काम की कि आप चीन को यह नहीं बता सकें कि दोनों देशों के संबंधों को सहज बनाने के लिए चीन क्या-क्या कर सकता है ? अपने आप को राष्ट्रवादी कहनेवाली पार्टी का यह मौन अश्चर्यजनक है| अमेरिका के बारे में प्रयुक्त जलेबीछाप शब्दावली का अर्थ भी शायद गडकरी ही बेहतर समझ सकते हैं| अगली सरकार बनानेवाली पार्टी को यही पता नहीं कि महाशक्ति की तौर पर भारत के कर्तव्य क्या-क्या होंगे ? भाजपा अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अब भूल चुकी है, वरना इसी नींव पर वह बृहत्तर भारत या आर्यावर्त की विदेश नीति का महल खड़ा कर सकती थी| हम यह न भूलें कि अराकान (म्यांमार) से खुरासान (ईरान) और त्र्िविष्टुप (तिब्बत) से मालदीव तक फैला हुआ यह क्षेत्र् कभी भारतवर्ष ही था और इसका दायित्व कभी गांधार, कभी पाटलिपुत्र् और कभी उज्जयिनि से वहन किया जाता था|
जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है, कार्यकारिणी का राजनीतिक प्रस्ताव और अध्यक्षीय भाषण लगभग उसी पर केन्दि्रत है| सारा दोष कांग्रेस सरकार पर मढ़ा गया है| स्वाभाविक भी है| अध्यक्षीय भाषण में बोफोर्स का जि़क्र नहीं है, क्योंकि वह तो काफी पहले ही लिखा जा चुका होगा लेकिन तुरंत लिखे हुए राजनीतिक प्रस्ताव में उसे जमकर उछाला गया है| इसमें शक नहीं है कि इस समय भ्रष्टाचार का मुद्रदा देश में सर्वोपरि है और सरकार की छवि बहुत विकृत हो गई है लेकिन वर्तमान स्थिति की तुलना न तो 1977 से की जा सकती है और न ही 1987-88 से| यह मुद्रदा इंदिरा गांधी और राजीव गांधी, दोनों को ले बैठा लेकिन तब और अब में दो बड़े फर्क हैं| एक तो यह कि भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान को चलानेवाले प्रतीक-पुरूष का अभाव ! जयप्रकाश नारायण और विश्वनाथप्रताप सिंह की तरह देश में आज एक भी ऐसा स्वच्छ नेता नहीं है, जिसके आह्रवान पर पूरा देश उठ खड़ा हो| दूसरा, इंदिरा और राजीव की तरह आज कांग्रेस-अध्यक्ष और प्रधानमंत्री का नाम भ्रष्टाचार में एक दम सीधा नहीं आ रहा है| उन्हें जिम्मेदार जरूर ठहराया जा रहा है और निशाना भी उन्हीं पर साधा जा रहा है लेकिन तीर निशाने पर बैठेगा या नहीं, यह कोई नहीं बता सकता| यदि कांग्रेस के नेताओं ने पिछले हादसों से कुछ सबक सीख लिया होगा तो इस संकट से पार पाना उनके लिए ज्यादा कठिन नहीं है| यदि वे भ्रष्टाचारी मंत्रियों और अफसरों पर सीधे टूट पड़ें तो अभी अवाक्र हुआ यही देश तालियां पीटने लगेगा| अभी अधमरे से दिखाई पड़ रहे कांग्रेसी नेता शेर की तरह दहाड़ने लगेंगे| वरना होगा यह कि शक की सुई घूमकर उन्हीं के माथे पर गड़ने लगेगी|
लेकिन पता नहीं कि भाजपा को इससे कितना फायदा मिलेगा ? कांग्रेस चुप क्यों बैठेगी ? उसके तरकस में कई पुराने तीर हैं| बंगारू लक्ष्मण है, तहलका है, कारगिल का ताबूत-घोटाला है, हवाला है और सबसे बड़ा तो खुद माननीय मुख्यमंत्री येदियुरप्पा हैं और रेड्डी बंधु हैं| यह ठीक है कि भाजपा कर्नाटक के लिंगायतों और रेडि्रडयों को नाराज़ नहीं करना चाहती लेकिन क्या अकेला कर्नाटक ही भारत है ? कर्नाटक के स्थानीय चुनाव में अच्छी जीत हासिल करके येदियुरूप्पा ने अपने जमे रहने का इंतजाम कर लिया है लेकिन उनका जमा रहना क्या भाजपा के अखिल भारतीय भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान की हवा नहीं निकाल देगा ?
भ्रष्टाचार के विरोध में जुलूस, प्रदर्शन और सभाएं आयोजित करके भाजपा को क्या हासिल होगा ? वह देश के लोगों को कौनसी नई बात बताएगी ? लोगों की नज़र में तो सभी नेता एक-जैसे हैं| जैसे कांग्रेसी वैसे ही भाजपाई ! अब तो कम्युनिस्ट नेता भी इन्हीं के अनुयायी बनते जा रहे हैं| भाजपा की मुख्य मांग यह है कि फोन घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बिठाइए और कांग्रेस कहती है कि लोक लेखा समिति ही काफी है| दोनों की बीच समितियों को लेकर झगड़ा है| एक पार्टी अपनी खाल बचाने पर अमादा है और दूसरी उसे नोच डालने पर ! दोनों की चिंता दोनों ही हैं, भ्रष्टाचार नहीं है| यदि भ्रष्टाचार चिंता का विषय होता तो दोनों भ्रष्टाचारियों को तत्काल पकड़ने और दंडित करने पर अपना ध्यान केंदि्रत करतीं| सब मिलाकर ढाई लाख करोड़ रू. वसूल किए जाते ताकि राष्ट्रकुल खेल और फोन-घोटाले का निपटारा होता| संसद की कमेटियां बिठाकर हमारी ये पार्टियॉं आखिर क्या करेंगी ? खोदेंगी पहाड़ और निकालेंगी चूहा ! करोड़ों के भत्तों पर हाथ अलग से साफ़ होगा|
भ्रष्टाचार के मूल में जाने और उसे खत्म करने की विधि बताने में भाजपा के गुहावाटी अधिवेशन ने कोई रूचि नहीं दिखाई| अध्यक्ष ने मप्र सरकार के एक नए भ्रष्टाचार विरोधी प्रावधान का जिक्र जरूर किया लेकिन पूरे अधिवेशन की बहस में से कोई आशा की ऐसी किरण नहीं उभरी जिससे देश के लोगों को लगता कि भाजपा अपने आप में एक अलग पार्टी है| यदि पार्टी यह बताती कि भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए विरोध में रहते हुए और सत्ता में आने पर हम ये-ये कदम उठाएंगें तो देश को कुछ दिलासा मिलता| भाजपा नेताओं ने अपनी प्रांतीय सरकारों और अपने लिए कोई आत्मरोपित आचार-संहिता भी जारी नहीं की, जिसे देखकर देश के करोड़ों लोगों को प्रेरणा मिलती| भाजपा ने कोई ऐसी घोषणा भी नहीं की कि स्विस बैंकों में जमा काले धन को वापस लाने के लिए वह अभी क्या करेगी और सत्तारूढ़ होने पर क्या करेगी ? इसमें शक नहीं कि आयकर अदालत ने बोफोर्स का नया फैसला भाजपा पर वरदान की तरह बरसा दिया लेकिन क्या यह पुरानी हांडी दुबारा चूल्हे पर चढ़ पाएगी ?
महंगाई की हांडी बहुत चिकनी है, वह कब फिसल जाए, पता नहीं| वह कम-ज्यादा होती रहती है| वह किसी बड़े आंदोलन का आधार नहीं बन सकती| भाजपा ने गुवाहाटी में राम मंदिर के मसले को छुआ तक नहीं| इसका क्या अर्थ लगया जाए ? क्या गडकरी की भाजपा नई लीक पर चल पड़ी है या राम मंदिर भी बोफोर्स की तरह पुरानी हांडी बन चुका है ? असीमानंद के बयाने को बोफोर्स से ध्यान हटानेवाला तो बताया गया है लेकिन हिंदुत्व के नाम पर हिंसा और आतंक का सहारा लेनेवाले लोगों की भर्त्सना भाजपा ने अभी तक नहीं की है| भाजपा से अधिक नैतिक साहस तो मोहन भागवत ने दिखाया है, यह कहकर कि संघ ने उस तरह के लेागों को पहले ही दरवाजा दिखा दिया है| भाजपा तो एक लोकतांत्रिक संसदीय दल है| यदि वह आतंक की राजनीति की भर्त्सना नहीं करेगा तो उसका तथाकथित हिंदुत्व भी कलंकित हुए बिना नहीं रहेगा| यह ठीक है कि यदि इस मामले को कांग्रेस जरूरत से ज्यादा रगड़ेगी तो वह अपनी हिंदू-विरोधी छवि बना लेगी और बड़े पैमाने पर वोट खो देगी लेकिन भाजपा की चुप्पी या प्रच्छन्न समर्थन भारतीय समाज को अंदर से क्षत-विक्षत किए बिना नहीं रहेंगे| भाजपा यह न भूले कि आतंक के नए रहस्योद्रघाटनों ने हिंदुत्व ही नहीं, भारत को भी बहुत बड़े पसोपेश में डाल दिया है| पाकिस्तान-जैसा आतंकवादी राष्ट्र अब भारत पर ऑंखें तरेर रहा है|
गुवाहाटी अधिवेशन ने किसी वैकल्पिक भारत का नक्शा भी देश के सामने पेश नहीं किया| भारत की वर्तमान पंूजी-प्रधान अर्थ-व्यवस्था, उसकी विषमताकारी विषाक्त प्रवृत्तियॉं, भाषाई गुलामी से लदी फदी शिक्षा-व्यवस्था और पश्चिमी मूल्यमानों के अंधानुकरण के सवाल पर भाजपा और कांग्रेस में क्या अंतर है, कौन बता सकता है ? दोनों पार्टियों एक ही सिक्के के दो पहलू मालूम पड़ती हैं| दोनों परिवर्तनकामी नहीं, सत्ताकामी मालूम पड़ती हैं| दोनों का आतंरिक लोकतंत्र् सघन चिकित्सा प्रकोष्ठ में विश्राम कर रहा है| दोनों के शिखर पर शून्य पसरा हुआ है|
जैसे देश को कांग्रेस में नेतृत्व के अभाव का पता आजकल चल रहा है, वैसे ही भाजपा का संकट अभी तक टला नहीं है| भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी ने अपने पौरूष और प्रताप से अपनी छवि खड़ी की थी लेकिन अल्पमति नेपथ्य ने उनकी टांग खींचकर उन्हें बौना बना दिया| जिन्ना का जिन्न अभी भी भाजपा पर मंडरा रहा है| अभी तक भाजपा कार्यकर्ताओं और देश को पता नहीं कि भाजपा का प्रधानमंत्री कौन बनेगा ? जो लोग दिल्ली की वातानुकूलित राजनीति के आदी हैं, वे उस सर्वोच्च पद के अभिलाषी जरूर हैं लेकिन वे जनता के कितने अधिक निकट हैं ? वे सुदर्शन हैं, सुवक्ता हैं, सज्जन हैं लेकिन क्या वे सुनेता हैं ? क्या उनके पास भारत का कोई वैकल्पिक नक्शा है ? उनके पास न तो अपना जनाधार है और न ही संघाधार ! जिसकी जड़ें न जनता में हैं और न संघ में, वह भाजपा का नेतृत्व कैसे करेगा ? गडकरी जैसा कोई ‘अचानक नेता’ उभर आए तो और बात है, वरना भाजपा को सत्ता का सपना देखने के पहले अपने नेता और अपनी नीति, दोनों के बारे में जरा ज्यादा स्पष्ट होना होगा| यह स्पष्टता भी तभी काम आएगी, जबकि भाजपा कम से कम दो सौ सीटें जीतेगी और उसके 24 पार्टियों के पुराने गठबंधन के अन्य 21 साथी उसके पास लौटने को तैयार होंगे| यदि वे तैयार नहीं होंगे तो कांग्रेस का दुर्भाग्य भाजपा का सौभाग्य कैसे बनेगा|
(लेखक, प्रसिद्घ राजनीतिक चिंतक हैं)
कांग्रेस का दुर्भाग्य कैसे बनेगा भाजपा का सौभाग्य
जनसत्ता, 17 जनवरी 2011 : भाजपा की कार्यकारिणी के राष्ट्रीय अधिवेशन से भाजपा के कार्यकर्ता काफी उत्साहित मालूम पड़ते हैं लेकिन गुवाहाटी की इस नौटंकी में से निकला क्या ? यदि थोड़ी गहराई में जाएँ तो पता चलेगा कि कांग्रेस के दुर्भाग्य को भाजपा अपना सौभाग्य बनाने पर तुली हुई है| इससे ज्यादा कुछ नहीं| मूल प्रश्न यह है कि क्या भाजपा सबल और शानदार विपक्ष की भूमिका निभाने को तैयार है ? अपने आप को सत्ता की वैकल्पिक पार्टी बतानेवाली भाजपा ने अगले चुनाव तक क्या अपने नेतृत्व, नीति, कार्यक्रम, लक्ष्य और विकल्प का कोई ठोस नक्शा तैयार किया है ?
जहां तक नितिन गडकरी का सवाल है, पार्टी अध्यक्ष के नाते उनकी भूमिका आशा से कहीं बेहतर रही और उनके भाषण में भी जोश-खरोश पर्याप्त था लेकिन उसमें कांग्रेस के भ्रष्टाचार, मंहगाई और पूर्वांचल में बढ़ रहे बांग्लादेशी खतरे के अलावा खास क्या था ? भाजपाई राज्यों में हो रहे रचनात्मक कार्यों का उन्होंने अत्यंत संक्षिप्त उल्लेख किया और विदेश नीति पर उन्होंने जो बोला, उसमें न तो गंभीरता दिखाई पड़ती है और न ही कोई भविष्य-दृष्टि ! भारत सरकार की पाकिस्तान-नीति की आलोचना यदि भाजपा-अध्यक्ष नहीं करेगा तो कौन करेगा लेकिन यह आलोचना सतही है| इतना ही नहीं, वे यह भी नहीं बताते कि आखिर पाकिस्तान के प्रति हमारी नीति क्या होना चाहिए ? क्या इंदिरा गांधी की तरह होनी चाहिए या अटलबिहारी वाजपेयी की तरह ? क्या पाकिस्तान के प्रति हमारी नीति का निर्धारण अमेरिकी दबाव में नहीं हो रहा है ? अफगानिस्तान में हमने साढ़े सात हजार करोड़ रू. लगा दिए लेकिन वहां हमारी स्थिति क्या है ? क्या अमेरिकी वापसी के बाद हम वहां टिक पाएंगें ? इसी तरह नेपाल की अस्थिरता भारत के लिए कितनी घातक सिद्घ हो सकती है, इस बारे में अध्यक्षजी ने एक शब्द भी नहीं कहा है| ईरान, बांग्लादेश, म्यांमार का जिक्र तक नहीं है और श्रीलंका आदि पड़ौसी देशों के बारे में भारतीय नीति का कोई वस्तुनिष्ठ मूल्याकन नहीं है|
आश्चर्य की बात तो यह है कि चीन के बारे में गोलमोल शब्दावली का प्रयोग किया गया है| यह ठीक है कि गडकरी अगले हफ्ते चीन जा रहे हैं लेकिन इतनी भी लिहाजदारी किस काम की कि आप चीन को यह नहीं बता सकें कि दोनों देशों के संबंधों को सहज बनाने के लिए चीन क्या-क्या कर सकता है ? अपने आप को राष्ट्रवादी कहनेवाली पार्टी का यह मौन अश्चर्यजनक है| अमेरिका के बारे में प्रयुक्त जलेबीछाप शब्दावली का अर्थ भी शायद गडकरी ही बेहतर समझ सकते हैं| अगली सरकार बनानेवाली पार्टी को यही पता नहीं कि महाशक्ति की तौर पर भारत के कर्तव्य क्या-क्या होंगे ? भाजपा अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अब भूल चुकी है, वरना इसी नींव पर वह बृहत्तर भारत या आर्यावर्त की विदेश नीति का महल खड़ा कर सकती थी| हम यह न भूलें कि अराकान (म्यांमार) से खुरासान (ईरान) और त्र्िविष्टुप (तिब्बत) से मालदीव तक फैला हुआ यह क्षेत्र् कभी भारतवर्ष ही था और इसका दायित्व कभी गांधार, कभी पाटलिपुत्र् और कभी उज्जयिनि से वहन किया जाता था|
जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है, कार्यकारिणी का राजनीतिक प्रस्ताव और अध्यक्षीय भाषण लगभग उसी पर केन्दि्रत है| सारा दोष कांग्रेस सरकार पर मढ़ा गया है| स्वाभाविक भी है| अध्यक्षीय भाषण में बोफोर्स का जि़क्र नहीं है, क्योंकि वह तो काफी पहले ही लिखा जा चुका होगा लेकिन तुरंत लिखे हुए राजनीतिक प्रस्ताव में उसे जमकर उछाला गया है| इसमें शक नहीं है कि इस समय भ्रष्टाचार का मुद्रदा देश में सर्वोपरि है और सरकार की छवि बहुत विकृत हो गई है लेकिन वर्तमान स्थिति की तुलना न तो 1977 से की जा सकती है और न ही 1987-88 से| यह मुद्रदा इंदिरा गांधी और राजीव गांधी, दोनों को ले बैठा लेकिन तब और अब में दो बड़े फर्क हैं| एक तो यह कि भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान को चलानेवाले प्रतीक-पुरूष का अभाव ! जयप्रकाश नारायण और विश्वनाथप्रताप सिंह की तरह देश में आज एक भी ऐसा स्वच्छ नेता नहीं है, जिसके आह्रवान पर पूरा देश उठ खड़ा हो| दूसरा, इंदिरा और राजीव की तरह आज कांग्रेस-अध्यक्ष और प्रधानमंत्री का नाम भ्रष्टाचार में एक दम सीधा नहीं आ रहा है| उन्हें जिम्मेदार जरूर ठहराया जा रहा है और निशाना भी उन्हीं पर साधा जा रहा है लेकिन तीर निशाने पर बैठेगा या नहीं, यह कोई नहीं बता सकता| यदि कांग्रेस के नेताओं ने पिछले हादसों से कुछ सबक सीख लिया होगा तो इस संकट से पार पाना उनके लिए ज्यादा कठिन नहीं है| यदि वे भ्रष्टाचारी मंत्रियों और अफसरों पर सीधे टूट पड़ें तो अभी अवाक्र हुआ यही देश तालियां पीटने लगेगा| अभी अधमरे से दिखाई पड़ रहे कांग्रेसी नेता शेर की तरह दहाड़ने लगेंगे| वरना होगा यह कि शक की सुई घूमकर उन्हीं के माथे पर गड़ने लगेगी|
लेकिन पता नहीं कि भाजपा को इससे कितना फायदा मिलेगा ? कांग्रेस चुप क्यों बैठेगी ? उसके तरकस में कई पुराने तीर हैं| बंगारू लक्ष्मण है, तहलका है, कारगिल का ताबूत-घोटाला है, हवाला है और सबसे बड़ा तो खुद माननीय मुख्यमंत्री येदियुरप्पा हैं और रेड्डी बंधु हैं| यह ठीक है कि भाजपा कर्नाटक के लिंगायतों और रेडि्रडयों को नाराज़ नहीं करना चाहती लेकिन क्या अकेला कर्नाटक ही भारत है ? कर्नाटक के स्थानीय चुनाव में अच्छी जीत हासिल करके येदियुरूप्पा ने अपने जमे रहने का इंतजाम कर लिया है लेकिन उनका जमा रहना क्या भाजपा के अखिल भारतीय भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान की हवा नहीं निकाल देगा ?
भ्रष्टाचार के विरोध में जुलूस, प्रदर्शन और सभाएं आयोजित करके भाजपा को क्या हासिल होगा ? वह देश के लोगों को कौनसी नई बात बताएगी ? लोगों की नज़र में तो सभी नेता एक-जैसे हैं| जैसे कांग्रेसी वैसे ही भाजपाई ! अब तो कम्युनिस्ट नेता भी इन्हीं के अनुयायी बनते जा रहे हैं| भाजपा की मुख्य मांग यह है कि फोन घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बिठाइए और कांग्रेस कहती है कि लोक लेखा समिति ही काफी है| दोनों की बीच समितियों को लेकर झगड़ा है| एक पार्टी अपनी खाल बचाने पर अमादा है और दूसरी उसे नोच डालने पर ! दोनों की चिंता दोनों ही हैं, भ्रष्टाचार नहीं है| यदि भ्रष्टाचार चिंता का विषय होता तो दोनों भ्रष्टाचारियों को तत्काल पकड़ने और दंडित करने पर अपना ध्यान केंदि्रत करतीं| सब मिलाकर ढाई लाख करोड़ रू. वसूल किए जाते ताकि राष्ट्रकुल खेल और फोन-घोटाले का निपटारा होता| संसद की कमेटियां बिठाकर हमारी ये पार्टियॉं आखिर क्या करेंगी ? खोदेंगी पहाड़ और निकालेंगी चूहा ! करोड़ों के भत्तों पर हाथ अलग से साफ़ होगा|
भ्रष्टाचार के मूल में जाने और उसे खत्म करने की विधि बताने में भाजपा के गुहावाटी अधिवेशन ने कोई रूचि नहीं दिखाई| अध्यक्ष ने मप्र सरकार के एक नए भ्रष्टाचार विरोधी प्रावधान का जिक्र जरूर किया लेकिन पूरे अधिवेशन की बहस में से कोई आशा की ऐसी किरण नहीं उभरी जिससे देश के लोगों को लगता कि भाजपा अपने आप में एक अलग पार्टी है| यदि पार्टी यह बताती कि भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए विरोध में रहते हुए और सत्ता में आने पर हम ये-ये कदम उठाएंगें तो देश को कुछ दिलासा मिलता| भाजपा नेताओं ने अपनी प्रांतीय सरकारों और अपने लिए कोई आत्मरोपित आचार-संहिता भी जारी नहीं की, जिसे देखकर देश के करोड़ों लोगों को प्रेरणा मिलती| भाजपा ने कोई ऐसी घोषणा भी नहीं की कि स्विस बैंकों में जमा काले धन को वापस लाने के लिए वह अभी क्या करेगी और सत्तारूढ़ होने पर क्या करेगी ? इसमें शक नहीं कि आयकर अदालत ने बोफोर्स का नया फैसला भाजपा पर वरदान की तरह बरसा दिया लेकिन क्या यह पुरानी हांडी दुबारा चूल्हे पर चढ़ पाएगी ?
महंगाई की हांडी बहुत चिकनी है, वह कब फिसल जाए, पता नहीं| वह कम-ज्यादा होती रहती है| वह किसी बड़े आंदोलन का आधार नहीं बन सकती| भाजपा ने गुवाहाटी में राम मंदिर के मसले को छुआ तक नहीं| इसका क्या अर्थ लगया जाए ? क्या गडकरी की भाजपा नई लीक पर चल पड़ी है या राम मंदिर भी बोफोर्स की तरह पुरानी हांडी बन चुका है ? असीमानंद के बयाने को बोफोर्स से ध्यान हटानेवाला तो बताया गया है लेकिन हिंदुत्व के नाम पर हिंसा और आतंक का सहारा लेनेवाले लोगों की भर्त्सना भाजपा ने अभी तक नहीं की है| भाजपा से अधिक नैतिक साहस तो मोहन भागवत ने दिखाया है, यह कहकर कि संघ ने उस तरह के लेागों को पहले ही दरवाजा दिखा दिया है| भाजपा तो एक लोकतांत्रिक संसदीय दल है| यदि वह आतंक की राजनीति की भर्त्सना नहीं करेगा तो उसका तथाकथित हिंदुत्व भी कलंकित हुए बिना नहीं रहेगा| यह ठीक है कि यदि इस मामले को कांग्रेस जरूरत से ज्यादा रगड़ेगी तो वह अपनी हिंदू-विरोधी छवि बना लेगी और बड़े पैमाने पर वोट खो देगी लेकिन भाजपा की चुप्पी या प्रच्छन्न समर्थन भारतीय समाज को अंदर से क्षत-विक्षत किए बिना नहीं रहेंगे| भाजपा यह न भूले कि आतंक के नए रहस्योद्रघाटनों ने हिंदुत्व ही नहीं, भारत को भी बहुत बड़े पसोपेश में डाल दिया है| पाकिस्तान-जैसा आतंकवादी राष्ट्र अब भारत पर ऑंखें तरेर रहा है|
गुवाहाटी अधिवेशन ने किसी वैकल्पिक भारत का नक्शा भी देश के सामने पेश नहीं किया| भारत की वर्तमान पंूजी-प्रधान अर्थ-व्यवस्था, उसकी विषमताकारी विषाक्त प्रवृत्तियॉं, भाषाई गुलामी से लदी फदी शिक्षा-व्यवस्था और पश्चिमी मूल्यमानों के अंधानुकरण के सवाल पर भाजपा और कांग्रेस में क्या अंतर है, कौन बता सकता है ? दोनों पार्टियों एक ही सिक्के के दो पहलू मालूम पड़ती हैं| दोनों परिवर्तनकामी नहीं, सत्ताकामी मालूम पड़ती हैं| दोनों का आतंरिक लोकतंत्र् सघन चिकित्सा प्रकोष्ठ में विश्राम कर रहा है| दोनों के शिखर पर शून्य पसरा हुआ है|
जैसे देश को कांग्रेस में नेतृत्व के अभाव का पता आजकल चल रहा है, वैसे ही भाजपा का संकट अभी तक टला नहीं है| भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी ने अपने पौरूष और प्रताप से अपनी छवि खड़ी की थी लेकिन अल्पमति नेपथ्य ने उनकी टांग खींचकर उन्हें बौना बना दिया| जिन्ना का जिन्न अभी भी भाजपा पर मंडरा रहा है| अभी तक भाजपा कार्यकर्ताओं और देश को पता नहीं कि भाजपा का प्रधानमंत्री कौन बनेगा ? जो लोग दिल्ली की वातानुकूलित राजनीति के आदी हैं, वे उस सर्वोच्च पद के अभिलाषी जरूर हैं लेकिन वे जनता के कितने अधिक निकट हैं ? वे सुदर्शन हैं, सुवक्ता हैं, सज्जन हैं लेकिन क्या वे सुनेता हैं ? क्या उनके पास भारत का कोई वैकल्पिक नक्शा है ? उनके पास न तो अपना जनाधार है और न ही संघाधार ! जिसकी जड़ें न जनता में हैं और न संघ में, वह भाजपा का नेतृत्व कैसे करेगा ? गडकरी जैसा कोई ‘अचानक नेता’ उभर आए तो और बात है, वरना भाजपा को सत्ता का सपना देखने के पहले अपने नेता और अपनी नीति, दोनों के बारे में जरा ज्यादा स्पष्ट होना होगा| यह स्पष्टता भी तभी काम आएगी, जबकि भाजपा कम से कम दो सौ सीटें जीतेगी और उसके 24 पार्टियों के पुराने गठबंधन के अन्य 21 साथी उसके पास लौटने को तैयार होंगे| यदि वे तैयार नहीं होंगे तो कांग्रेस का दुर्भाग्य भाजपा का सौभाग्य कैसे बनेगा|
(लेखक, प्रसिद्घ राजनीतिक चिंतक हैं)
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