नवभारत टाइम्स, 17 मई, 2005 : 1947 में भारत आज़ाद जरूर हुआ लेकिन वह आजादी मूलत: नेताओं और नौकरशाहों की आज़ादी थी| अंग्रेज के ज़माने में हुक्मरानों को जो अधिकार, रूतबे और ठाठ-बाट मिले हुए थे, वे सब हमारे सत्तारूढ़ लोगों को मिल गए लेकिन जनता की स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ा| जनता को भी संविधान ने अनेक मौलिक अधिकार दिए लेकिन वे सिर्फ कागज पर बने रहे| अब सूचना का अधिकार देकर भारतीय संसद ने भारत की जनता को अपने से अधिक शक्तिशाली बना दिया है| सांसदों को मंत्रियों से सवाल पूछने का अधिकार जरूर है लेकिन इस अधिकार के उपयोग में कई बाधाऍं हैं| एक तो यही कि सवाल पूछने के लिए सिर्फ एक घंटा होता है| एक घंटे में कितने सवाल पूछे जा सकते हैं? चार-छह सवाल में ही एक घंटा पूरा हो जाता है| उस एक घंटे में भी अक्सर हंगामा होता है| कभी-कभी सवाल और उनके जवाब उस हंगामे में ही डूब जाते हैं| दूसरा, मंत्रिगण हर सवाल का जवाब दें, यह जरूरी नहीं है| ‘जवाब देना जनहित में नहीं’, ऐसा कहकर वे बच निकलते हैं| इतनी बड़ी सरकार और उसके इतने लम्बे-चौड़े काम-काज की सारी सूचनाएं आखिर संसद कैसे बाहर निकलवा सकती है? सरकार के साथ करोड़ों लोगों का जैसा सीधा सरोकार होता है, वैसा 800 सांसदों का कैसे हो सकता है? अब सूचना का अधिकार मिलने पर देश के सौ करोड़ लोग वही अधिकार पा गए हैं, जो इन चुने हुए केवल 800 लोगों को था| यह ठीक है कि आम आदमी सांसदों की तरह न तो कानून बना सकता है और न ही सरकार गिरा सकता है लेकिन अगर उसे पहल (इनीशिएटिव), निषेध (रिफरेंडम) और वापसी (रिकॉल) का अधिकार भी मिल जाए तो संपूर्ण भारत की जनता वास्तव में उतनी ही आज़ाद हो जाएगी, जितने कि हमारे नेता और नौकरशाह हैं|
सूचना का अधिकार जनता को मिलने से नेताओं और नौकरशाहों की हड्डयिों में कंपकंपी दौड़ रही है| इसीलिए प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को अपने भाषण में यह कहना पड़ा कि नौकरशाहों को घबराने की जरूरत नहीं है| जो ईमानदार और निर्भीक नौकरशाह हैं, वे तो पहले भी नहीं घबराते थे लेकिन ऐसे लोग कितने हैं? ज्यादातर नेता और नौकरशाह इस कानून के लागू होते ही लकवाग्रस्त हो जाएंगे| उन्हें पल्ले ही नहीं पड़ेगा कि वे अपना काम कैसे करें? बरसों से उन्हें निरंकुश निर्णयों की आदत पड़ गई है| उनकी कारगुजारियों पर मजबूत ढक्कन ढका रहता है| विधायक और सांसद उसे उघाड़ नहीं पाते| एक तो गलत निर्णयों से हमेशा उन पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ता और दूसरा सदनों में इतना समय नहीं होता कि मंत्र्िायों और अफसरों की तथाकथित गोपनीय टिप्पणियों को खुलवाया जाए और उनकी चीर-फाड़ करवाई जाए| अब इस कानून के मातहत आम जनता का कोई भी सदस्य किसी भी मंत्री या अफसर की फाइलें, रेकार्ड, टिप्पणी, दस्तावेज़, आदेश, स्मरण-पत्र, विश्लेषण, अनुबंध, लॉग बुक आदि को देख सकेगा और उनकी प्रमाणित प्रतिलिपि भी प्राप्त कर सकेगा| उसे केवल फोटो-प्रति आदि का वास्तविक खर्च देना होगा, जो कि नगण्य होगा| जो लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं, उन्हें सूचना पाने के लिए न्यूनतम खर्च भी नहीं देना होगा| यह व्यवस्था केंद्र, राज्य, जिला और पंचायत तक की समस्त सरकारी संस्थाओं पर लागू होगी| उन संस्थाओं को भी इसके घेरे में आना होगा जो सरकारी अनुदानों से चलती हैं| जो भी अफसर सूचना नहीं देगा या गलत सूचना देगा, उस पर जुर्माना होगा| विधेयक में पहले सजा का प्रावधान था| उसे हटा लिया गया है| यदि जीवन-मृत्यु या व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मसला हो तो सूचना 48 घंटे में ही देनी होगी| मॉंगी हुई सूचनाऍं ठीक तरह से दी जाएं और शीघ्र दी जाएं, यह देखने के लिए केंद्र और राज्यों में सूचना आयोग बनाए जाएंगे|
अब ज़रा हम सोचें कि इस कानून का सरकार के काम-काज पर क्या असर पड़ेगा? मान लीजिए कि अफसर और नेतागण ऐसे रास्ते निकाल लेंगे जिनसे सूचना छिपा ली जाएगी या देने पर भी वह निरर्थक साबित होगी या इतनी देर से दी जाएगी कि वह बेकार हो जाएगी| यह भी हो सकता है कि लोग उकता जाएं और सूचना के अधिकार का उपयोग ही न करें| यदि ऐसा भी हो तो भी इस कानून की भूमिका जबर्दस्त होगी| सबको पता है कि भूत-प्रेत कुछ नहीं होता, फिर भी उसके डर के मारे बड़े-बड़े पहलवानों को कंपकंपी चढ़ जाती है| यह डर कि हमारा सारा किया-धरा जनता को पता चल सकता है, अपने आप में काफी है| यह नेताओं और अफसरों को सीधी पटरी पर चलाएगा| इसके अलावा सूचना आयोगों पर निर्भर होगा कि वे कितने कठोर और दृढ़ हैं| यह दुखद है कि सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में भारत के उच्चतम न्यायाधीश का कोई हाथ नहीं होगा| केवल प्रधानमंत्री, विपक्षी नेता और प्रधानमंत्री द्वारा नामजद कोई मंत्री इन आयुक्तों को नियुक्त करेंगे| यदि इस प्रक्रिया में उच्चतम न्यायालय या लोकसभा-राज्यसभा अध्यक्षों को भी जोड़ लिया जाता तो सूचना आयोगों की विश्वसनीयता बढ़ जाती| इसी प्रकार सुरक्षा, विदेशनीति, गुप्तचर विभाग, प्रतिरक्षा आदि कुछ नाजुक क्षेत्रों को इस अध्किार की परिधि से बाहर रखा गया है याने ऐसे मसलों पर सरकार कोई ऐसी सूचना नहीं देगी, जिससे राज्य का नुकसान हो सकता है| फिर भी यदि मामला मानव अधिकार उल्लंघन या भ्रष्टाचार का हो तो सरकार को सूचना देनी ही पड़ेगी| यहां काफी विवाद होंगे, क्योंकि इस कानून में जो ‘अस्पृश्य-क्षेत्र’ हंै, उन्हेंे ठीक-ठीक परिभाषित नहीं किया गया है| जैसे किसी तोप की खरीद में हुए भ्रष्टाचार का मामला इस आधार पर नहीं खोला जाएगा कि भारत के प्रतिरक्षा रहस्य उजागर हो सकते हैं| किसी सुप्रतिष्ठित व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने के कारण इसलिए छिपाए जा सकते हैं कि यदि उन्हें उजागर कर दिया गया तो आतंकवादियों का बड़ा जाल नहीं पकड़ा जा सकेगा| इस तरह की सीमाओं के बावजूद इस कानून का दायरा काफी बड़ा है| अमेरिका में इस तरह के निषिद्घ क्षेत्र 13 हैं जबकि भारत में केवल सात हैं| दुनिया के लगभग 50 देशों में सूचना के अधिकार का कानून बन चुका है| हमारी संसद ने उन सब कानूनों का अध्ययन करके ही यह विधेयक तैयार किया था और इसमें भी 150 संशोधन हुए हैं| इतने संशोधन पहले किसी विधेयक में नहीं हुए| यह तो गनीमत है कि यह विधेयक पारित हो गया, क्योंकि मूलत: यह किसी भी सरकार के लिए फॉंसी की सजा जैसा है| इस एतिहासिक विधेयक को पारित करने का श्रेय मनमोहन-सरकार को मिलेगा लेकिन अफसोस है कि भाजपा-गठबंधन वाला विपक्ष इस विधेयक के पारित होते समय सदन में नहीं था| भाजपा-सरकार ने 2002 में जो ‘सूचना की स्वतंत्रता विधेयक’ पारित किया था, यह विधेयक उसी विधेयक का उन्नत और व्यावहारिक संस्करण है| भाजपा सरकार न तो उस विधेयक को लागू कर सकी और न ही उसमें ऐसे प्रावधान डाल सकी कि जिससे वह कठोरतापूर्वक लागू किया जा सके| मनमोहन-सरकार ने इस विधेयक को काफी कठोर बनाया है और सबसे बड़ी बात यह है कि स्वयं प्रधानमंत्री काफी साफ-सुथरे आदमी हैं| आम आदमी को यह भरोसा है कि यदि उसने टेढ़े सवाल भी पूछे तो अफसरों को जवाब देना ही पड़ेगा क्योंकि उन्हें पता है कि जो आदमी सबसे ऊपर बैठा है, वह ईमानदार है| भारत के आठ राज्यों में सूचना के अध्किार का कानून पहले से बना हुआ है| उसके कुछ फायदे भी सामने आए हैं लेकिन अभी तक कोई चमत्कारी परिणाम दिखाई नहीं पड़े| अब इस केंद्रीय कानून के लागू होते ही नौकरशाही और राज-काज का औपनिवेशिक ढॉंचा अपने आप चरमराने लगेगा| खोजी पत्रकारों की चॉंदी होगी| अनेक भ्रष्टाचारों की कब्र खुदेगी| विधानसभाओं और संसद की शक्तियों में चार चॉंद लगेंगे| नौकरशाह शब्द में से ‘शाह’ वाला हिस्सा अब घिसने लगेगा| सरकार सचमुच नौकर होगी और जनता मालिक !
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