हिन्दुस्तान, 21 जनवरी 2010 | काबुल के पश्तून चौक में हुआ तालिबानी हमला कोई पहला हमला नहीं है| लेकिन पिछले आठ साल में जितने भी हमले हुए हैं, उनमें यह हमला सबसे अधिक दुस्साहसिक था| भारतीय दूतावास और संयुक्तराष्ट्र की अतिथि-शाला पर हुए हमलों में ज्यादा लोग मारे गए थे और उनका शोर भी काफी मचा था लेकिन इस हमले ने यह सिद्घ किया है कि अब तालिबान का धैर्य टूट गया है और अब वे बड़े से बड़ा खतरा मोल लेकर संसार को यह दिखाना चाहते हैं कि वे जिंदा हैं, वे डरेंगे नहीं, वे लड़ेंगे| यह संदेश देने के लिए ही उन्होंने वह मौका चुना जबकि हामिद करज़ई का नया मंत्रिमंडल राजमहल में शपथ ले रहा था| वे चाहते तो काबुल के पश्तून चौक की बजाय हेरात या हेलमंद या कुनार का कोई मोहल्ला भी चुन सकते थे, जहां वे सौ-दो सौ लोगों को आसानी से मार सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसी जगह चुनी, जो काबुल का कलेजा है| यह वह स्थान है, जिस पर सबसे कड़ा पहरा रहता है और जहां कई मंत्रलयों के भवन, जन-संकुल शॉपिंग सेंटर, प्रसिद्घ सीरिना होटल आदि स्थित हैं| यहां से राजमहल मुश्किल से एक-डेढ़ फर्लांग पर है| राजमहल के द्वार पर भी बड़ा विस्फोट हुआ है|
तालिबान को पता था कि इस क्षेत्र् पर हमला करके वे ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं, फिर भी उन्होंने हमला किया| आखिर क्यों ? इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि तालिबान इस वक्त अपने आपको घिरा हुआ पा रहे हैं| अभी दो-दिन पहले ही राष्ट्रपति करज़ई ने अफगान संसद के सामने अपनी नई नीति की घोषणा की है| उसके तहत अफगान-सरकार तालिबान के 25-30 हजार नौजवानों को रोज़गार या दैनिक भत्ता देगी, उनमें से कुछ को फौज में भी भर्ती करेगी और यदि कुछ प्रमुख तालिबान आना चाहें तो उन्हें सरकारी पद भी मिल सकेंगे| इस घोषणा ने तालिबान के मतांध नेतृत्व की ज़मीन खिसका दी है| इसके अलावा अब 43 राष्ट्रीय ‘इसाफ’ की फौजों की संख्या भी डेढ़ लाख के ऊपर पहुंचनेवाली है| इतना ही नहीं, बि्रटेन के विदेश मंत्र्ी डेविड मिलिबंड की पहल पर लंदन में 28 जनवरी को एक विशाल सम्मेलन हो रहा है, जिसका मुख्य विषय ही यह है कि स्थानीय अफगान फौज को अपने पांव पर कैसे खड़ा करना और अफगान सरकार व जनता को आत्मनिर्भर कैसे बनाना| यदि एक सशक्त राष्ट्रीय अफगान सेना सचमुच खड़ी हो गई तो तालिबान कहीं के नहीं रहेंगे| तालिबान की दुकान चल ही इस बहाने रही है कि अफगानों की छाती पर विदेशी फौजें लदी हुई हैं| तालिबान ने अपने आप को ‘देशभक्ति’ का पर्याय बना लिया है| यदि विदेशी फौजें चली जाएं और स्वदेशी फौज अपने पांव को जमा ले तो सारे तालिबान अपने आप बेरोजगार हो जाएंगे| इसी भय ने तालिबान को मजबूर किया कि वे काबुल के कलेजे पर प्रहार करें|
तालिबान और उनके आका पाकिस्तान के चिढ़ जाने का एक बड़ा कारण यह भी है कि लंदन सम्मेलन में भारत को भी न्यौता मिला है| न्यौता इसलिए मिला है कि पश्चिमी राष्ट्र भारत को अफगानिस्तान का पड़ौसी मानते हैं और अफगानिस्तान में उसके रचनात्मक सहायता-कार्य को ऊँची नज़र से देखते हैं| पाकिस्तान के प्रधानमंत्र्ी और विदेश मंत्री ने लंदन सम्मेलन में भारत की भागीदारी का विरोध किया है| वे कहते हैं कि भारत और अफगानिस्तान पड़ौसी नहीं हैं| उनका यह दावा गलत है, क्योंकि कश्मीर के जिस उत्तरी हिस्से पर पाक ने कब्जा कर रखा है और जो कानूनी तौर पर भारत का हिस्सा है, उस क्षेत्र् में लगभग 100 कि.मी. तक भारत और अफगानिस्तान की सीमाऍं एक-दूसरे से मिलती हैं| पाकिस्तान नहीं चाहता कि अफगानिस्तान में भारत का असर बढ़े| यदि भारत सचमुच अफगानिस्तान का वैसा ही पड़ौसी होता, जैसा कि ईरान है तो पाकिस्तान किसी भी पड़ौसी देश को उस सम्मेलन में नहीं आने देता| वह अकेला उस पश्चिमी देशों के सम्मेलन में बैठता ताकि तालिबान विरोधी लड़ाई का वह एक मात्र् ठेकेदार बन जाता और इस नक़ली लड़ाई के नाम पर अरबों डॉलर डकार जाता, जैसा कि वह अब तक करता रहा है| भारत अपनी गांठ से 6-7 हजार करोड़ रू. लगाकर अफगान भाइयों की सेवा कर रहा है लेकिन पाकिस्तान को डर है कि भारत के कारण पाकिस्तान अफगानिस्तान को कभी अपना पांचवा प्रांत नहीं बना सकेगा| तालिबान और पाकिस्तान की हरचंद कोशिश यह होगी कि लंदन सम्मेलन में भारत भाग न ले और कुल मिलाकर लंदन सम्मेलन बांझ साबित हो|
अफगान मामलों में भारत का महत्व इतना बढ़ गया है कि डेविड मिलीबंड ने तो उसे सीधा निमंत्र्ण भेजा ही है, उसे बुलाने के लिए ओबामा के विशेष दूत रिचर्ड होलब्रुक और रक्षा मंत्री राबर्ट गेट्रस स्वयं भारत आए हुए हैं| इनके भारत-आगमन के पीछे अमेरिका का गहरा स्वार्थ है| अमेरिका अपनी घंटी भारत के गले में बांधना चाहता है| ‘इसाफ’ की फौजों की जगह भारत की फौजें जाएं और लड़ें| भारत सरकार सतर्क है| वह इस मुद्दे पर चुप है| चुप रहना ठीक है लेकिन अपने दिमाग को भी चुप कर देना ठीक नहीं है| भारत के नीति-निर्माताओं को अभी से सोचना चाहिए कि अमेरिकी फौजों की वापसी के बाद क्या होगा ? उस शून्य को कौन भरेगा ? क्या दुबारा तालिबान और उसका आका पाकिस्तान भरेगा ? क्या यह भारत के लिए अच्छा होगा ? अराजक अफगानिस्तान से जितना खतरा अमेरिका को है, उससे कई गुना ज्यादा भारत को है| अमेरिका में तो नाइन/इलेवन की केवल एक घटना हुई लेकिन भारत पिछले 20 साल से तंग हो रहा है| आतंकवाद ने लगभग एक लाख बेकसूर लोगों की जान ले ली है| इस आतंकवाद की जड़ पाक-अफगान सीमांत में ही है| क्या भारत की भूमिका केवल पैसा बहानेवाले पड़ौसी की ही रहेगी ? क्यों नहीं भारत यह जिम्मा लेता कि वह अफगान फौज और उसकी अर्थ-व्यवस्था को अपने पांव पर खड़ा करेगा| इस नेक काम में वह पाकिस्तान से भी सकि्रय सहयोग क्यों नहीं मांगता ? पाकिस्तान या तो सहयोग करेगा या खुद ही बेनक़ाब हो जाएगा| अमेरिकियों के गले भी यही तथ्य उतारा जाना चाहिए| वे पाकिस्तान को मजबूर करें कि वह क्षेत्रीय समाधान का हिस्सेदार बने| यदि पाकिस्तान मना करे तो उसे दी जानेवाली सारी पश्चिमी मदद एक दम बंद कर दी जाए| उसके होश ठिकाने आ जाएंगे| यदि अमेरिका पाकिस्तान की खुशामद करता रहा तो अफगानिस्तान कभी भी अपने पेरों पर खड़ा नहीं हो पाएगा| बि्रटिश विदेश मंत्री मिलीबंड ने आजकल क्षेत्रीय समाधान का जो मंत्र्-जाप शुरू किया है, शायद उसके पीछे यही सोच है| क्षेत्रीय समाधान में भारत की भूमिका अग्रणी होगी, यह बात पाकिस्तान को बर्दाश्त नहीं है| यह ठीक है कि पाकिस्तान के सहयोग के बिना अफगानिस्तान की अराजकता का अंत नहीं हो सकता लेकिन यदि पाकिस्तान का यही दोमुंहा खेल चलता रहा तो यह अराजकता अनंत काल तक बनी रहेगी| काबुल में हुए हमले की जड़ यदि सदा के लिए उखाड़नी हो तो लंदन सम्मेलन में उक्त तथ्य को विचार-विमर्श का केंद्रीय मुद्दा बनाया जाना चाहिए|
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