Dainik Hindustan, 10 Feb 2011 : हाल ही में सम्पन्न म्यूनिख के अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सम्मेलन में यों तो मिस्र की उथल-पुथल और ‘स्टार्ट’ संधि पर ज्यादा चर्चा हुई लेकिन नाटो राष्ट्रों- अमेरिका, रूस, भारत और पाकिस्तान- ने अफगानिस्तान पर काफी जोर दिया। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने खुद सम्मेलन को संबोधित किया और सार्वजनिक तौर पर पहली बार पश्चिम को अफगान रणनीति पर पुनर्विचार करने के लिए कहा।
ओबामा ने राष्ट्रपति बनते ही घोषणा की थी कि वे अफगानिस्तान से पश्चिमी फौजों की वापसी शीघ्र चाहते हैं। यह उनका चुनावी वादा भी था। कुछ माह तक अमेरिकी विषेषज्ञों ने गहन विचार-विमर्श किया और उसके आधार पर ओबामा ने घोषणा की कि जुलाई 2011 में वापसी शुरू हो जाएगी। यह घोषणा ऐसे शब्दों में की गई कि लोग भ्रम में पड़ गए। यह भी मान लिया गया कि जुलाई 2011 तक सभी पश्चिमी फौजें वापस बुला ली जाएंगी।
विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन को सफाई देनी पड़ी कि जुलाई 2011 में फौजों की वापसी नहीं होगी, वापसी शुरू होगी। यह शुरू हुई वापसी कब खत्म होगी, इसका पता हिलेरी को न तब था और न अब है। वापसी की घोषणा के बाद अमेरिका, नाटो और अन्य 47 देशों की फौजों की संख्या बढ़कर डेढ़ लाख हो गई है, लेकिन उनकी पूर्ण वापसी के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। आशा थी कि इस 46वें म्युनिख सुरक्षा सम्मेलन में कुछ बादल छटेंगे, लेकिन तीन दिन की लंबी-चौड़ी बहस के बावजूद कोई स्पष्ट नक्शा नहीं उभरा है।
तीन माह पहले नवंबर में हुए लिस्बन सम्मेलन में ओबामा ने कहा था कि 2014 तक नाटो फौजें अफगानिस्तान छोड़ देंगी और 2015 तक अमेरिकी फौजें भी वापस आ जाएंगी, लेकिन म्यूनिख में जैसे ही करजई ने कहा कि वे इसी साल 21 मार्च (नवरोज) से नाटो फौजों का काम अफगान फौजों को सौंपने लगेंगे तो काबुल स्थित नाटो सैन्य मुख्यालय में हड़कंप मच गया। उसके प्रवक्ता ने कहा कि उसे पता नहीं कि यह प्रक्रिया कैसे संपन्न होगी।
म्युनिख में ही हिलेरी को कहना पड़ा कि अमेरिका अफगानिस्तान को अधबीच में लटका कर छोड़नेवाला नहीं है। वह 2015 के बाद भी अफगानिस्तान की पीठ पर अपना हाथ धरे रहेगा। खुद करजई ने अपने म्युनिख-भाषण में ऐसे संकेत भी दिए कि 2015 के बाद भी पश्चिमी राष्ट्र अफगानिस्तान के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े रहेंगे यानी अफगानिस्तान अपने पांव पर खड़ा ही नहीं होगा।
सच्चाई तो यह है कि अफगानिस्तान के भविष्य के बारे में न तो पश्चिम के पास कोई स्पष्ट नक्शा है और न ही अफगानों के पास। पिछले दस साल से सारी व्यवस्था तदर्थ बनी हुई है। पश्चिमी राष्ट्र अरबों डॉलर झोंक चुके हैं, लेकिन वे अलकायदा और तालिबान पर काबू नहीं पा सके। 2010 में उनके जितने सैनिक मरे, पहले कभी नहीं मरे।
पश्चिमी गठबंधन के फौजियों का आत्मबल एकदम क्षीण हो चुका है। वे आसमान से बम बरसा सकते हैं, टैकों में बैठकर प्रहार कर सकते हैं, लेकिन जब मैदानों और पहाड़ियों में उन्हें अफगान छापामारों से दो-दो हाथ करने पड़ते हैं, तो वे भाग खड़े होते हैं। उन्हें न तो स्थानीय भाषा आती है और न ही अफगान-संस्कृति का कोई ज्ञान है। वे अफगान घरों में घुसकर छापा मारते हैं। मुस्लिम महिलाओं और बच्चों के साथ अनेक अमर्यादित बर्ताव के कारण वे आम जनता में अलोकप्रिय हो जाते हैं।
यद्यपि प्रबुद्ध अफगान लोग उनकी सैन्य-सहायता के लिए पश्चिमी देशों के कृतज्ञ हैं, लेकिन अफगानिस्तान की आम जनता तो यही चाहती है कि वे जल्दी से जल्दी वापस जाएं। हामिद करजई दरअसल म्यूनिख में इसी भावना को व्यक्त कर रहे थे।
लेकिन यदि पश्चिमी फौजें सचमुच विदा हो जाएं तो क्या काबुल में कोई सरकार कुछ घंटे भी टिक सकती है? वह टिकने की कोशिश करे तो भी पाकिस्तान उसे टिकने नहीं देगा। अलकायदा और तालिबान की संजीवनी बूटी तो पाकिस्तान ही है। जब तक काबुल को पाकिस्तान का ईमानदाराना सहयोग नहीं मिलेगा, पश्चिमी फौजों को अफगानिस्तान में निरंतर टिके रहना होगा। इसका सिर्फ एक ही हल है।
अफगानों की अपनी मजबूत राष्ट्रीय फौज खड़ी की जाए, कम से कम पांच लाख जवानों की। यह फौज लड़ेगी, अल-कायदा और तालिबान से और जरूरत पड़ने पर उनके आकाओं से भी। पांच लाख जवानों की प्रशिक्षित अफगान फौज आईएसआई के छक्के छुड़ा सकती है, क्योंकि पाकिस्तान में बसे लाखों पठान भी उसका साथ देंगे।
फिलहाल लगभग एक लाख अफगान जवानों की फौज पर साल भर में आठ बिलियन डॉलर खर्च हो रहे हैं और विदेशी फौजों पर 100 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा खर्च हो रहे हैं। यदि पश्चिमी राष्ट्र अपने कुछ फौजी-खर्च की एक-चौथाई राशि भी अफगान फौज पर खर्च कर दें तो वे 2015 क्या, इस साल के अंत तक ही अफगानिस्तान से ससम्मान वापस लौट सकते हैं। अन्यथा, ओबामा का ह्वाइट हाउस में लौटना मुश्किल हो जाएगा।
अमेरिका की इस वापसी में भारत उसकी सबसे ज्यादा मदद कर सकता है। पांच लाख जवानों की तगड़ी फौज भारत एक साल में ही खड़ी कर सकता है। उसका खर्च अमेरिकी खर्च के मुकाबले पांच प्रतिशत भी नहीं होगा। लाखों बेघर और बेरोजगार अफगान नौजवान फौज में शामिल होने के लिए दौड़े चले आएंगे। तालिबान को अपना शिकार खोना पड़ेगा। यदि पाकिस्तान को इस पर आपत्ति हो तो उसे भी इस अभियान में शामिल किया जा सकता है। वह शामिल हो तो अच्छा और न हो तो उसके बिना भी इस अभियान को सफल बनाने का दृढ़ संकल्प पश्चिमी राष्ट्रों, भारत और अफगानिस्तान में होना चाहिए।
यदि अफगानिस्तान में शांति और सुरक्षा होगी तो नव-निर्माण का काम अपने आप परवान चढ़ेगा। म्युनिख में करजई ने हिम्मत जुटाई और दो-टूक शब्दों में बोल दिया कि पश्चिमी राष्ट्र प्रांतीय नवनिर्माण टीमों (पीआरटी) की व्यवस्था खत्म करें। यह समानांतर सरकार है। विदेशी शक्तियां इन टीमों को रकम सीधे ही भेजती हैं।
अफगान सरकार को उसका सुराग तक नहीं लगता। यदि अमेरिका और उसके सभी राष्ट्र करजई की पीड़ा पर ध्यान दें और सारी विदेशी मदद अफगान सरकार के जरिए बांटें तो अफगानिस्तान 2015 के पहले ही अपने पांव पर खड़ा हो जाएगा। अफगान सरकार को भी लगेगा कि वह संप्रभु सरकार है। करजई सरकार को जिस दिन सच्ची संप्रभुता का अहसास होगा, अफगानिस्तान में उसका दबदबा दोगुना हो जाएगा। संसद से उसके रिश्ते सुधर जाएंगे, राजनीतिक दलों का निर्माण होगा और अफीम की काली कमाई पर भी प्रतिबंध लगेगा। 21वीं सदी के इस नए दशक में नए अफगानिस्तान के निर्माण की कुंजी पश्चिमी देशों के हाथ में है।
लेखक अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं
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