दैनिक भास्कर, 22 जुलाई 2010| भारत का स्थान जो भी रहा हो, अफगानिस्तान में हुआ अन्तराष्ट्रीय सम्मेलन अपूर्व रहा| आधुनिक अफगानिस्तान के ढाई सौ साल के इतिहास में इतने देशों के विदेश मंत्र्ी और प्रतिनिधि एक साथ वहां कभी इकट्रठेनहीं हुए| लगभग 70 देशों के इस सम्मेलन का संदेश क्या है ? इसका सबसे पहला संदेश तो यही है कि दुनिया नेअफगानिस्तान से अपना मुंह नहीं मोड़ा है| वह अभी भी अफगानिस्तान के भविष्य के बारे में चिंतित है| यदि ऐसा नहीं होतातो 40 देशों के विदेश मंत्री काबुल-जैसी खतरनाक जगह पर जाते ही नहीं| जनवरी 2010 में वे लंदन में मिलने के बावजूदकाबुल आए, इसी से सिद्घ होता है कि अफगान-संकट का मुकाबला करने में उनकी गहरी रूचि है|
दूसरा संदेश यह है कि अफगान राष्ट्रपति हामिद करज़ई को जबर्दस्त अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली है| राष्ट्रपति के चुनाव में अनेकपश्चिमी राष्ट्रों ने करज़ई की वैधता को चुनौती दी थी| इस सम्मेलन ने न सिर्फ करज़ई की वैधता में चार चांद लगा दिए हैं बल्किअफगानिस्तान के अंदर उनके विरोधियों को भी पस्त कर दिया है| यह ध्यातव्य है कि जिन अशरफ गनी ने करजई केविरूद्घ राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा था, वे ही इस सम्मेलन के आयोजक थे|
अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने जिस मजबूती से करज़ई का समर्थन किया है, उससे स्पष्ट होता है कि अब ओबामा औरकरज़ई प्रशासनों के बीच चले वाक्-युद्घ का दौर समाप्त हो गया है| दूसरे शब्दों में अगले तीन-चार साल तक करज़ई-सरकारको अमेरिका का पूर्ण समर्थन मिलते रहने की संभावना है|
काबुल-प्रकि्रया के नाम से जाने जा रहे इस सम्मेलन ने लंदन और दुबई-प्रक्रिया को काफी आगे बढ़ा दिया है| लंदन में जिनमुद्दों पर सहमति की घोषणा हुई थी, इन सब पर काबुल प्रकि्रया ने अपनी मोहर लगा दी है| दुबई में चलते रहे पाक अफगानसंवाद को भी इस प्रकि्रया ने मान्यता दी है| तालिबान से बातचीत, भ्रष्टाचार निवारण, अफीम उत्पादन पर नियंत्र्ण, क्षेत्रीयसहयोग, नौकरशाही में कसावट, मानवाधिकार आदि मुद्दों को लंदन की तर्ज पर दोहराया गया है लेकिन दो बातें बिल्कुल नईऔर मूलभूत हैं|
एक तो अफगानिस्तान को मिलनेवाली कुल सहायता का 50 प्रतिशत अब अफगान-सरकार के ज़रिए खर्च होगा और दूसरा2014 तक विदेशी सेनाओं की जगह राष्ट्रीय अफगान सेना कमान संभाल लेगी| दोनों घोषणाएं स्वागत योग्य हैं| जहां तकविदेशी मदद का सवाल है, आजकल अफगान सरकार को वह लगभग 20 प्रतिशत तक मिलने लगी है| कुछ वर्ष पहले तकयह मदद गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा ही खर्च की जाती थी| लगभग 95 प्रतिशत विदेशी सहायता पर अफगान-सरकार काकोई नियंत्र्ण नहीं होता था| इस मदद पर अनेक विदेशी और देशी संस्थाएं हाथ साफ़ करती रही हैं| पिछले सिर्फ एक साल मेंलगभग 80 हजार करोड़ डॉलर काबुल से विदेशों में भेजे गए हैं| अफगानिस्तान में खर्च के लिए आई हुई यह राशि वापसविदेशों में कैसे चली जाती है ? अब इस पर काफी हद तक रोक लगेगी| इसके अलावा विदेशी मदद पर केंद्रीय नियंत्र्ण नहींहोने के कारण विकास-कार्य बिल्कुल बेतरतीब ढंग से हो रहे थे| अब अफगान सरकार विकास को राष्ट्रीय नीति बनाकर उसेलागू कर सकेगी| वास्तव में शेष 50 प्रतिशत मदद जो कि गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा खर्च की जाएगी, उस पर भी काबुलसरकार का नियंत्र्ण होना चाहिए| अफगानिस्तान पर खर्च की गई लगभग 60 बिलियन डॉलर की मदद का यदि सदुपयोगहुआ होता तो न सिर्फ इस देश का अपूर्व विकास होता बल्कि बेकारी दूर हो जाती और अफीम-उत्पादन सिरदर्द नहीं बनता| बेकारी और अफीम की आमदनी तालिबान के पुनरोत्थान की रीढ़ हैं|
जहां तक विदेशी फौजों की वापसी का सवाल है, कोई भी घोषणा करना आसान है| उस पर अमल करना कठिन है| ओबामाने घोषणा की थी कि जुलाई 2011 में अमेरिकी फौजें वापस आ जाएंगी| थोड़े दिन बाद उन्होंने इस घोषणा में मिलावट की औरकह दिया कि जुलाई 2011 में उनका वापस होना शुरू हो जाएगा और अब नाटो अधिकारियों ने यह कहना भी शुरू कर दियाहै कि अंतरराष्ट्रीय फौजों की वापसी किसी तिथि नहीं, स्थिति के आधार पर तय होगी| याने जरूरत हुई तो वे लंबे समय तकअफगानिस्तान में रह सकती हैं| पिछले छह माह में विदेशी फौजों की जितनी दुर्गति हुई है, अफगानिस्तान में पहले कभी नहींहुई| फौजियों की संख्या बढ़ाने के बावजूद युद्घ के अंत का कोई सिरा दिखाई नहीं पड़ रहा है| ऐसे में 2014 तक सैन्य आत्मनिर्भरता का करज़ई का दावा विश्वसनीय नहीं लगता| अफगानिस्तान के पास कोई वायु सेना नहीं है| जल-सेना का प्रश्न ही नहींउठता, क्योंकि वह भूवेष्टित राष्ट्र है| थल सेना के पास न तो समुचित हथियार हैं, न बख्तरबंद गांडि़यां और न ही उचितप्रशिक्षण| जवानों के वेतन भी दयनीय हैं| यदि अगले एक साल में 1 लाख 70 हजार फौजी और 1 लाख 34 हजार पुलिसवालेभर्ती कर भी लिए गए तो क्या वे पाकिस्तानी फौज और आईएसआई द्वारा प्रशिक्षित और प्रेरित तालिबान का मूलोच्छेद करसकेंगे ?
इस प्रश्न का जवाब भारत के पास है| यदि काबुल-प्रकि्रया के देश भारत से अनुरोध करें तो वह साल भर में अफगान-फौज कोअपने पांव पर खड़ा कर सकता है| यह ठीक है कि पाकिस्तान इसका डटकर विरोध करेगा लेकिन पश्चिमी राष्ट्र पाकिस्तान कोभी इस प्रकि्रया से जोड़ सकते हैं और यदि वह नहीं जुड़ता तो उसे छोड़ भी सकते हैं| वह क्या कर लेता ? इस संबंध में भारतसरकार की उदासीनता आश्चर्यजनक है| उसे आगे जाकर इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी| न सिर्फ उसकी लगभग 7-8 हजार करोड़ की मदद पर पोंछा फिर जाएगा बल्कि अफगानिस्तान जैसे मित्र्-राष्ट्र की भूमि का इस्तेमाल भारत के विरूद्घहोगा| काबुल प्रकि्रया में दोहराई गई क्षेत्रीय सहयोग की बात को पाकिस्तान ने अभी-अभी ठुकराया है| उसने अफगान मालभारत ले जाने की सहमति दी है लेकिन भारतीय माल अफगानिस्तान ले जाने की नहीं| यदि काबुल-प्रकि्रया में भारत कोउचित महत्व नहीं मिलेगा तो यह निश्चित है कि अफगानिस्तान को पाकिस्तान अपना पांचवां प्रांत बनाने की कोशिश करेगा औरइस उलट-प्रकि्रया में अभागे अफगान दुबारा अराजकता के शिकार हो जाएंगे|
(लेखक अफगान मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ हैं)
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