नवभारत टाइम्स, 29 अप्रैल 2009 : इस समय अफगानिस्तान के सभी नेता चुनावी दंगल में फँसे हुए हैं| 20 अगस्त को राष्ट्रपति का चुनाव होनेवाला है| यों तो चुनाव अप्रैल-मई में ही हो जाने चाहिए थे, क्योंकि राष्ट्रपति हामिद करज़ई की अवधि 21 मई को पूरी हो रही है लेकिन करज़ई ने असुरक्षा, खराब मौसम, अपर्याप्त तैयारी आदि कारणों से उसे आगे बढ़ा दिया| विपक्षी नेताओं ने काफी शोर मचाया लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के इस स्थगन को उचित ठहराया|
राष्ट्रपति पद के लिए इस समय कम से कम 50 उम्मीदवार हैं| लगभग दर्जन भर नामी-गिरामी उम्मीदवारों से तो मेरी भी भेंट हुई| ऐसे उम्मीदवारों से भी भेंट हुई, जो अभी दो-चार माह पहले तक करज़ई के मंत्रिमंडल के सदस्य भी थे, कुछ अभी सिर्फ सांसद हैं, कुछ पुराने राजघरानों के शाहज़ादे हैं और कुछ ऐसे भी हैं, जो राजनीति में पहली बार कदम रख रहे हैं| इन उम्मीदवारों को इस बात की बिल्कुल चिंता नहीं है कि अगले तीन-चार साल में अफगानिस्तान का भविष्य क्या होगा ? मैंने उनसे पूछा कि ओबामा जब तीन साल बाद दुबारा राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने की घोषणा करेंगे और अफगानिस्तान से वापसी को अपना मुख्य मुद्दा बनाऍंगे तो बताइए आपका क्या होगा ? अफगानिस्तान की रक्षा कौन करेगा ? तालिबान से आपको कौन बचाएगा ? क्या अफगानिस्तान, पाकिस्तान का पॉचवॉ प्रांत नहीं बन जाएगा ? इस प्रश्न का जवाब किसी भी अफगान नेता के पास नहीं था ? कइयों ने कहा कि इतने आगे की सोचने की फर्सत हमारे पास नहीं है| हम तो अभी चुनाव में भिड़े हुए हैं| दूसरे शब्दों में सब अपने-अपने भविष्य के बारे में चितिंत है, देश के भविष्य के बारे में कोई नहीं| एक प्रमुख उम्मीदवार ने मज़ाक में मुझसे कहा कि आप अफगानिस्तान के भविष्य के बारे में चितिंत है क्योंकि आप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार नहीं हैं|
पूरी संभावना है कि हामिद करजई दुबारा चुनाव लड़ेंगे| ओबामा के चुनाव अभियान के दौरान ऐसा लग रहा था कि यदि ओबामा राष्ट्रपति बन गए तो वे करज़ई को चुनाव के पहले ही हटवा देंगे लेकिन अब स्पष्ट संकेत है कि अमेरिका तटस्थ हो गया है| वह किसी खास उम्मीदवार के पक्ष में नहीं होगा| पहले माना जा रहा था कि अमेरिका ज़लमई खलीलजाद या अली जलाली को राष्ट्रपति बनाना चाहता है| खलीलजाद अफगान हैं, बरसों से अमेरिका के नागरिक हैं, काबुल में अमेरिका के राजदूत रहे हैं और बुश-प्रशासन के कूटनीतिक स्तंभ रहे हैं| इसी प्रकार जलाली करजई के गृहमंत्री रह चुके हैं, बरसों से अमेरिका में बढ़ा रहे हैं, अमेरिकी विदेश मंत्रलय से उनका गहरा संपर्क है| ये दोनों इस समय चुनाव मैदान में दिखाई नहीं पड़ रहे| डेढ़ माह पहले वाशिंगटन में जलाली ने मुझसे कहा था कि वे चुनाव जरूर लड़ेंगे लेकिन इस समय पूर्व विदेश मंत्री डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला, पूर्व वित्त मंत्री डॉ. अहदी, बशरदोस्त, अशरफ गनी, दाउद सुल्तानजई आदि प्रमुख उम्मीदवार हैं| माना जा रहा है कि डॉ. अब्दुल्ला सबसे तगड़े उम्मीदवार होंगे| वे पाँच साल तक विदेश मंत्री रह चुके हैं| वे पंजशीरी होने के बावजूद अपने सुरक्षा के कारण पठान और ताजि़क दोनों हैं| अफगानिस्तान में यह बड़ी समस्या है| जैसे हमारे यहॉं जान बड़ा मुद्दा है, अफगानिस्तान में वंश बड़ा मुद्दा है| हर फैसले के पहले लोग पूछते हैं कि फलॉ-फलां का वंश क्या है| वह पठान है या ताजि़क है, या उजबेक है, या हजारा है ? पठान में भी कौनसा पठान है ? मुहम्मदजई है कि गिलजई है कि नूरजई है, कि पोपलजई है और उसमें भी कौनसे कबीला का है ? भाषा के हिसाब से भी लोग बंटे हुए हैं| फारसी, पश्तो, उज़बेकी आदि मुख्य भाषाऍं हैं| ऐसे में हामिद करजई के विरूद्घ सबसे ज्यादा वोट डॉ. अब्दुल्ला को मिल सकते हैं| करजई पोपलजई पठान हैं लेकिन चुनाव में सभी वंशों और जातियों के लोगों ने उनका समर्थन किया था| उनके प्रतिद्वंदी युनूस क़ानूनी थे, जो आजकल अफगान लोकसभा के अध्यक्ष हैं| इस बार करज़ई को पहले जैसा समर्थन मिलने की संभावना कम है, क्योंकि सब लोग कहते हैं, प्रशासन बिल्कुल ढीला है, भ्रष्ट है, बेकारी और असुरक्षा बढ़ गई है, तालिबान की वापसी हो रही है लेकिन सभी लोग मानते हैं कि इस समय करज़ई का कोई विकल्प नहीं है| यों तो डॉ. अब्दुल्ला जब्हे-मिल्ली (राष्ट्रीय मोर्चे) के उम्मीदवार हैं लेकिन राष्ट्रीस मोर्चे में भी कई पेचो-खम हैं| पूर्व राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी राष्ट्रीय मोर्चे के नेता हैं लेकिन इस मोर्चे के लगभग दो दर्जन नेतागण अपने आपको किसी से कम नहीं समझते| अब्दुल्ला की टांग कौन कब घसीट डालेगा, कुछ पता नहीं| यों भी करज़ई राष्ट्रपति पद पर रहते हुए चुनाव लड़ेंगे जबकि दूसरे उम्मीदवार अकिंचन होंगे| वे साधन और लोग कहाँ से लाएँगे ? उम्मीदवारों के पास पैसा नहीं है और राजनीतिक दलों का अभाव है| यों तो नब्बे पार्टियाँ हैं लेकिन वे सिर्फ नामों की तख्तियाँ हैं| वे संगठन नहीं हैं| इसलिए हामिद करजई बिल्कुल निश्चिंत मालूम पड़े| लगभग घंटे भर की भेंट में उन्होंने चुनाव के बारे में पाँच-सात मिनिट भी बात नहीं की| भारत के चुनावों के बारे में वे ज्यादा पूछते रहे|
करज़ई के विरोधियों का कहना था कि पाकिस्तान उन्हें ही बनाए रखना चाहता है, क्योंकि वे कमजोर शासक हैं| काबुल का शासक कमज़ोर हो तो तालिबान का डर दिखाकर पाकिस्तान अमेरिका से पैसा और हथियार वसूलता रह सकता है| करज़ई के विरोधी भारत का समर्थन चाहते हैं| मैंने उन्हें भारत सरकार की तटस्थता से अवगत करवाया और उनसे यह भी पूछा कि करज़ई की जगह अगर कोई गैर-पठान आ गया तो क्या सारे पठानों की सहानुभूति तालिबान के साथ नहीं हो जाएगी ? क्या पाकिस्तान के हाथ मजबूत नहीं हो जाएँगे ? तालिबान कमोवेश पठान ही हैं और वे भारत-विरोधी हें| मेरी राय तो यह थी कि तालिबान से भी आग्रह करना चाहिए कि वे मैदान में आएँ, चुनाव लड़ें और जीत जाएँ तो राज करें ! तालिबान के साथ क्या सलूक किया जाए, इस बारे में भी ज्यादातर लोगों की राय आनुवंशिक लकीर की फकीर है| इस समय कोई भी उम्मीदवार भारत-विरोधी नहीं है लेकिन पाकिस्तान का खुलेआम विरोध करनेवाले कई उम्मीदवार मुझे मिलते रहे| भारत द्वारा दी जा रही लगभग 6000 करोड़ रू. की मदद की सर्वत्र् सराहना हो रही है|
(लेखक अफगान-मामलों के विशेषज्ञ हैं और काबुल-यात्र से अभी ही लौटे हैं)
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