Dainik Bhaskar, 3 March 2010 : जब तक पाकिस्तान में फौज का बोलबाला रहेगा, न आतंकवाद खत्म होगा, न अफगानिस्तान में शांति होगी, न कश्मीर हल होगा। पाक फौज अच्छे से समझ चुकी है कि वह युद्ध के जरिए कश्मीर नहीं छीन सकती। अब उसके पास आतंकवाद ही एकमात्र ब्रrास्त्र रह गया है। पाकिस्तान की जनता आतंकवाद के विरुद्ध है लेकिन वह आतंकवाद की असली अम्मा(फौज) के विरुद्ध कटिबद्ध कैसे हो?
काबुल में भारतीयों पर हुए हमले का अर्थ क्या है? क्या यह अफगानों ने किया हो सकता है? कतई नहीं। अफगान लोग तो भारत के प्रति कृतज्ञता से भरे हुए हैं। उनके दिल में जैसा आत्मीय भाव भारत के लिए है, किसी अन्य देश के लिए नहीं है। वे अमेरिका के भी आभारी हैं, लेकिन भारत न तो वहां किसी से लड़ रहा है, न किसी का खून बहा रहा है और न ही अफगान सरकार को अपने इशारे पर चला रहा है। भारत हर विवाद से परे हे।
इसीलिए कोई अफगान भारत पर हाथ क्यों डालना चाहेगा? फिर भी पहले भारत के राजदूतावास पर और अब उसके अफसरों और कर्मचारियों पर यह जानलेवा हमला क्यों हुआ है, किसने किया है? यह हमला अन्य हमलों से अलग था। आतंकियों ने हमारे लोगों को ढूंढ़-ढूंढ़कर मारा है। क्या अब भी कोई प्रमाण चाहिए?
जाहिर है कि यह हमला पाकिस्तानियों ने किया है। इसके लिए अफगान सरकार को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जैसा कि हर सरकार को ठहराया जाता है, लेकिन जो अफगानिस्तान में रहे हैं, उन्हें पता है कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान के पठानों में फर्क करना असंभव है और एक-दूसरे के देशों में उनकी आवाजाही पर पाबंदी लगाना भी।
ऐसे में सिर्फ अफगान सरकार की निंदा कर देने भर से कुछ नहीं होगा। वहां ऐसी घटनाएं लगभग प्रतिदिन होती रहती हैं। जरूरी यह है कि असली दोषी को पहचाना जाए और उस पर शिकंजा कसा जाए।
यह हमला पाकिस्तान के उन जिहादियों ने किया है, जिनकी पीठ पर पाकिस्तान की फौज और आईएसआई का हाथ है। यह तथ्य हमारे दूतावास पर डेढ़ साल पहले हुए हमले के वक्त अमेरिका ने ही खोज निकाला था। आतंकवादी अकेले दम पर इतना सुनियोजित और दुस्साहसिक हमला नहीं कर सकते। हम यह भी मान लें कि पाकिस्तान की गैर-फौजी सरकार का इन हमलों में कोई हाथ नहीं रहा है तो भी क्या हमें पता नहीं कि पाकिस्तान में एक सरकार और भी है और वही असली सरकार है।
वह है, फौजी सरकार! इस सरकार के राष्ट्रपति हैं, जनरल अशफाक परवेज कयानी! कयानी कई बार कह चुके हैं कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान सामरिक गहराई चाहता है यानी अफगानिस्तान को वह अपना पिछवाड़ा या सामरिक गद्दा बनाना चाहता है ताकि भारत का हमला होने पर वह धक्के झेल सके। इस लक्ष्य की पूर्ति में भारत सबसे बड़ी बाधा है।
यदि अफगानिस्तान में भारत की लोकप्रियता आजकल की तरह आसमान छूती रही तो पाकिस्तान का यह सपना कभी सच नहीं हो पाएगा। इसीलिए पाकिस्तान रुक-रुककर ऐसी कार्रवाई करता है कि अफगानिस्तान में कार्यरत हमारे हजारों मजदूर, इंजीनियर, तकनीशियन, डॉक्टर, अध्यापक, प्रशिक्षक वगैरह वहां से भाग खड़े हों। लेकिन इसका उलटा ही होता है। हर हमले के बाद हमारे कार्मिकों का हौसला पहले से भी ज्यादा बुलंद हो जाता है।
भारत विरोधी हमलों में चाहे पाकिस्तान सरकार का हाथ बिलकुल न हो, लेकिन क्या यह सत्य नहीं कि इन हमलों से वह खुश ही होती होगी? खुश होने के दो कारण हैं। एक तो सामरिक और दूसरा राजनीतिक। सामरिक कारण यह है कि भारतीयों पर ज्यादातर हमले इसलिए हुए कि जरंज-दिलाराम सड़क का बनना रुक जाए। क्यों?
क्योंकि इस सड़क के बनने से पाकिस्तान की दादागिरी हमेशा के लिए खत्म हो गई है। जब तक यह सड़क नहीं बनी थी, अफगानिस्तान पाकिस्तान पर निर्भर था। यदि पाकिस्तान रास्ता न दे तो न तो अफगानिस्तान विदेश व्यापार कर सकता था, न लोग थल मार्ग से देश के अंदर-बाहर आ-जा सकते थे और न ही रूस और मध्य एशियाई राष्ट्रों का भारत से कोई थल संपर्क बना रह सकता था। अब भारत ने जरंज-दिलाराम सड़क बनाकर अफगानिस्तान का वैकल्पिक मार्ग खोल दिया है।
अफगान-ईरान सीमांत पर बनी इस सड़क के कारण अब अफगानिस्तान ही नहीं, भारत को भी मध्य एशिया और यूरोप तक जाने के लिए थल मार्ग मिल गया है। पाकिस्तान ने 1950, 1955 तथा 1961-63 में अपने थल मार्ग को बंद करके जो ‘ब्लैक मेल’ किया था, वह अब भविष्य में नहीं हो सकेगा। इसके अलावा पाकिस्तान को यह डर भी है कि यदि भारत से कभी युद्ध हो गया तो कहीं अफगानिस्तान उसके विरुद्ध पीछे से दूसरा मोर्चा न खोल दे। 1965 और 1971 के युद्ध के दौरान अफगानिस्तान के मंत्रिमंडल ने इस संभावना पर भी विचार किया था, ऐसी मेरी जानकारी है।
भारतीयों पर हो रहे हमलों से खुश होने का दूसरा कारण वैचारिक और राजनीतिक है। काबुल में भारत का प्रभाव बढ़ता है तो लोकतंत्र बढ़ता है, धर्मनिरपेक्षता बढ़ती है, आधुनिकता बढ़ती है। ये सब बातें पाकिस्तान की विचारधारा के विरुद्ध हैं। भारत ने अफगानिस्तान को लोकतांत्रिक संविधान बनाने और चुनाव करवाने में सक्रिय मदद दी है और वह उसका संसद भवन भी बना रहा है।
लगभग 6000 करोड़ रुपए के अन्य सहायता कार्र्यो ने अफगानों के दिल जीत लिए हैं। ऐसे में पाकिस्तान की गैर-फौजी सरकार भारत विरोधी हमलों की रोकथाम में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाती। पाकिस्तानी सरकार को डर है कि जुलाई 2011 में अमेरिकी वापसी के बाद भारत कहीं उसकी जगह अफगानिस्तान में जम न जाए। तो क्या किया जाए?
आतंकवादियों पर भारत जवाबी हमला करने की स्थिति में नहीं है। वह युद्ध भी नहीं छेड़ सकता। अत: एक तो वह अपने लोगों की सुरक्षा बढ़ाए। जैसे उसने अपने दूतावास और राजदूत जयंत प्रसाद के घर को अभेद्य दुर्ग बना दिया है वैसी ही सुरक्षा सभी भारतीयों को प्रदान की जाए। दूसरा, अमेरिकियों से पाकिस्तान पर दबाव डलवाए। उसकी फौज का हुक्का-पानी बंद करवाए।
पाकिस्तानियों के दिल से भारत भय निकाले। भारत से अनाक्रमण की घोषणा करवाए और पाकिस्तानी फौज को नख-दंतहीन कर दे। उसका राजनीतिक पव्वा सदा के लिए खत्म कर दे। जब तक पाकिस्तान में फौज का बोलबाला रहेगा, न आतंकवाद खत्म होगा, न अफगानिस्तान में शांति होगी, न कश्मीर हल होगा क्योंकि ये सब खटकरम फौज की विदेश नीति के अभिन्न अंग हैं। पाकिस्तानी फौज अब अच्छी तरह समझ चुकी है कि वह युद्ध के जरिए कश्मीर नहीं छीन सकती।
अब उसके पास आतंकवाद ही एकमात्र ब्रrास्त्र रह गया है। पाकिस्तानी फौज के इस पैंतरे को परास्त करने के लिए यह जरूरी है कि अमेरिका पाकिस्तान की जनता व सरकार को फौज के विरुद्ध खड़ा करे। पाकिस्तान की जनता आतंकवाद के विरुद्ध है लेकिन वह आतंकवाद की असली अम्मा(फौज) के विरुद्ध कटिबद्ध कैसे हो?
अमेरिका चाहे तो पाक को लोकतंत्र की राह पर ठेल सकता है, लेकिन अमेरिका का लक्ष्य बहुत सीमित और स्वार्थमय है। यदि पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान सिर्फ अमेरिका विरोधी आतंकवाद को नरम कर दे तो काफी है। अमेरिका को इसकी खास परवाह नहीं है कि भारतविरोधी आतंकवाद खत्म हो रहा है या नहीं। यह रवैया आत्मघाती है। जब तक अमेरिका यह सोचना शुरू नहीं करेगा कि भारत पर हुआ हमला ‘अमेरिका पर हमला है’, वह पाकिस्तानी आतंकवाद पर लगाम नहीं लगा पाएगा।
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