नवभारत टाइम्स, 18 जनवरी 2007 : पिछले छह दशकों में अनेक भारतीय और पाकिस्तानी विदेश मंत्री एक-दूसरे के देशों में गए, लेकिन प्रणव मुखर्जी की यात्र-जैसी अन्य कोई यात्र नहीं हुई| क्या कभी ऐसा हुआ कि भारत का विदेश मंत्री अभी घर लौटा नहीं कि उसे पता चले कि पाकिस्तान के प्रमुख राजनीतिक दल एकजुट होकर अपने ही राष्ट्रपति का विरोध करने लगे हैं| मुत्तहिदा, पीपल्स पार्टी, मुस्लिम लीग (न) तथा पाक-अधिकृत कश्मीर के नेताओं ने मुशर्रफ के विरुद्घ मोर्चा खोल दिया है| इन पार्टियों को डर है कि भारतीय विदेश मंत्री और राष्ट्रपति मुशर्रफ के बीच कोई गुप्त समझ बन गई है, जिसके तहत कश्मीर पाकिस्तान के हाथों से फिसलनेवाला है| इस गलतफहमी के लिए प्रणव मुखर्जी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता| उन्होंने अपने पाकिस्तान-दौरे के वक्त एक शब्द भी ऐसा नहीं कहा, जिसका मतलब यह लगाया जा सके कि सारा कश्मीर भारत को मिलनेवाला है| इसके विपरीत, उन्होंने बहुत ही नपे-तुले शब्दों में मुशर्रफ के चार-सूत्री प्रस्ताव के सबसे भारी प्रावधान को टाल दिया है| उन्होंने कहा है कि संपूर्ण कश्मीर पर संयुक्त नियंत्र्ण की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है और अभी सीमाओं को खत्म करने की बात भी व्यावहारिक नहीं है| हां, यह हो सकता है कि दोनों देशों के लोगों के बीच संपर्क बढ़े, व्यापार बढ़े, वीज़ा आसान हो, प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए साझा कार्रवाई हो| जो कुछ भी हो, धीरे-धीरे हो और सोच-समझकर हो|
प्रणव मुखर्जी के इस रवैए पर पाकिस्तान के विरोधी दलों को तो खुश होना चाहिए था| विरोधी और सत्तारूढ़ दलों के नेताओं को नाश्ते पर बुलाकर भारतीय विदेशमंत्री ने अपना पक्ष भी समझाया| उन सबने बड़े मधुर वातावरण में बात भी की, लेकिन अब अचानक वे बौखला क्यों उठे ? इसका एक ही कारण समझ में आता है| वह है, अगले साल होनेवाला चुनाव| पाकिस्तान के दलीय नेताओं को लग रहा है कि मुशर्रफ नामक यह फौजी उनसे भी ज्यादा चतुर निकला| उसने जनता की नब्ज़ पर हाथ रख दिया है| पाकिस्तान की जनता कश्मीर और आतंकवाद, दोनों से ही थक रही है, ऊब रही है और उनसे पिंड छुड़ाना चाहती है| मुशर्रफ ने आतंकवाद-विरोधी मोर्चा खोलकर अमेरिका को अपनी मुट्ठी में कर लिया है और कश्मीर पर मीठी-मीठी बातें करके वे भारत को पटा रहे हैं| दूसरे शब्दों में अगले साल के चुनावी तूफान में नेताओं की दुकान डूबने के आसार बनते जा रहे हैं| यदि पाकिस्तान में शांति का माहौल बनाने का सेहरा फौजी तानाशाह के सिर बंध गया तो क्या नेतागण बेरोजगार नहीं हो जाएंगे ? नेताओं की यह चिंता बेबुनियाद है| क्या वे भूल गए कि पाकिस्तान के पिछले आम चुनाव में कश्मीर नाम का कोई मुद्दा ही नहीं था| प्रचंड बहुमत से जीतनेवाले प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने चुनाव के बाद व्यक्तिगत बातचीत में और बाद में सार्वजनिक तौर पर भी कहा था कि वे कश्मीर का मुद्दा बातचीत से हल करेंगे| वे दक्षेस को यूरोपीय संघ की पटरी पर चलाने के लिए कृत-संकल्प थे, लेकिन पहले वे अपने राष्ट्रपति और उच्चतम न्यायालय से भिड़ गए और फिर सेना से ! उनके तख्ता-पलट और अफगानिस्तान के बदलते हुए परिदृश्य ने दक्षिण एशिया का राजनीतिक नक्शा ही बदल दिया| अब अगर मुशर्रफ उसी पटरी पर लौटना चाहते हैं तो नवाज़ शरीफ की मुस्लिम लीग और बेनज़ीर की पीपल्स पार्टी उनका विरोध क्यों कर रही हैं ? वे मुत्तहिदा-जैसी मज़हबी पार्टी से हाथ क्यों मिला रही हैं ? कश्मीर की हांडी अब दुबारा चूल्हे पर नहीं चढ़ पाएगी| पाकिस्तान के लोग अपनी गरीबी, बेराज़गारी, असुरक्षा और फौजी बूटों से निज़ात पाना चाहते हैं| जब तक कश्मीर का हव्वा बना रहेगा, पाकिस्तानी जनता के सीने पर फौजी बूट धमकते रहेंगे| यह काम मुशर्रफ अपने हाथों में लेकर अपना और पाकिस्तान का रूपान्तरण करना चाहते हैं लेकिन पाकिस्तानी नेतागण उन्हें फौजी से नेता नहीं बनने देना चाहते|
मुशर्रफ और पाकिस्तान के नेताओं का यह टकराव भारत-पाक संबंधों की बाधा जरूर बनेगा लेकिन मुशर्रफ चाहें तो वे सारे दलों को दरकिनार करके अपनी जनता से सीधा संवाद कायम कर सकते हैं| लगभग वही चमत्कार दोहरा सकते हैं, जो उन्होंने अफगानिस्तान के बारे में किया था| उन्होंने तालिबान के विरुद्घ झंडा गाड़ दिया और अफगानिस्तान पर अमेरिकी कार्रवाई का खुला समर्थन कर दिया| सारे राजनीतिक दल हक्के-बक्के रह गए| वे फौजी होते हुए भी शांति के मसीहा के तौर पर उभर सकते हैं|
जाहिर है कि उनके इस प्रयास में भारत उनका पूरा समर्थन करेगा| भारतीय क़ैदियों को पाकिस्तानी जेलों से रिहा करने की मुशर्रफ की घोषणा ने भारत में उनकी छवि को सुधारा है| जनता से जनता का संपर्क बढ़ाने की रफ्तार काफी धीमी है| भारतीय विदेश मंत्री ने इस महत्वपूर्ण मुद्दे को जमकर उठाया है| यह मुद्दा ऐसा है कि जिस पर चर्चा करना ही काफी नहीं है| कुछ ठोस काम भी होना चाहिए| अभी तक कराची और मुंबई मंे भी वीज़ा की सुविधा उपलब्ध नहीं है| लोगों को दिल्ली और इस्लामाबाद के धक्के खाने पड़ते हैं| जरूरी तो यह है कि दोनों देशों में कम से कम चार-चार वीज़ा-केंद्र खुल जाएं| अनेक श्रेणियों के लोगों के लिए वीज़ा की जरूरत ही नहीं होनी चाहिए| जैसे मंत्र्ी, सांसद, विधायक, पार्षद, संपादक, प्रोफेसर, डॉक्टर आदि| अच्छा होता कि भारत के विदेश मंत्री मुशर्रफ और प्रधानमंत्री शौकत अजीज़ को दक्षेस के लिए निमंत्रित करने के साथ-साथ दिल्ली मे जन-दक्षेस (पीपल्स सार्क) आयोजित करने की बात भी करते| सभी दक्षेस-राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों ही नहीं, साधारण नागरिकों का भी सम्मेलन हो तो पाकिस्तान के लोग उसमें बड़े उत्साह से भाग लेंगे| मुशर्रफ ने दक्षेस का निमंत्र्ण टाल दिया है, यह अच्छा नहीं किया| अगर वे आते तो उनके चार-सूत्री प्रस्ताव पर औपचारिक बात भी होती|
प्रणव मुखर्जी की यात्र के दौरान कोई नाटकीय घोषणा नहीं हुई, लेकिन सियाचिन, सर क्रीक, आतंकवाद-विरोधी संयुक्त कार्रवाई आदि महत्वपूर्ण मुद्दों पर काम की बात हुई| किसी प्रकार की अपि्रयता नहीं हुई, लेकिन हमें यह भी नहीं मान बैठना चाहिए कि ये अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण मुद्दे भी पलक झपकते ही हल हो जाएंगे| असल बात यह है कि किसी तरह गाड़ी चलती रहनी चाहिए| कश्मीर का रोड़ा अटकाकर इस गाड़ी को कई बार पटरी से उतार दिया गया लेकिन अब इतिहास की शक्तियां उनके साथ हैं, जो रोड़ा अटकाने में विश्वास नहीं करते| कश्मीर पर उसी तरह बात होती रहे, जैसे सीमा-विवाद पर भारत और चीन लगातार बात कर रहे हैं तो किसी को क्या एतराज़ हो सकता है ? सीमा-विवाद के बावजूद जैसे भारत-चीन व्यापार सर्वोच्च शिखर पर पहुंच गया है, वैसे ही कश्मीर के बावजूद भारत-पाक संबंध अत्यंत सहज हो सकते हैं| यह मुशर्रफ पर निर्भर है कि वे अपने रास्ते पर कितना डटते हैं| जहां तक पाकिस्तानी राजनीतिक नेताओं का सवाल है, उन्हें मनाने-पटाने का काम भारत के उन बुद्घिजीवियों और पत्र्कारों पर छोड़ दिया जाना चाहिए, जो उन नेताओं को सीधे जानते हैं और जिनके साथ उनका खुला संवाद है|
Leave a Reply