अल्लामा इक़बाल की यह पंक्ति भारत का ताबीज है। सारा रहस्य इसी में छिपा है। यह अपने आप में एक रहस्य है, पहेली है, यक्ष-प्रश्न है। सिर्फ भारत ही नहीं है, जो नहीं मिटा है। नहीं मिटनेवाले याने क़ायम रहनेवाले और देश भी हैं। चीन है, यूनान है, रोम है, बेबीलोन है, ईरान है। ये देश क़ायम तो हैं लेकिन क्या भारत की तरह क़ायम हैं ? शायद नहीं है। इसीलिए इक़बाल ने कहा है कि अगर वे क़ायम हैं तो भी सिर्फ नाम के लिए कायम हैं। उनकी हस्ती तो मिट चुकी है। उनकी मूल पहचान नष्ट हो चुकी है। इन पुरानी सभ्यताओं को समय ने इतने थपेड़े मारे हैं कि उनका सातत्य भंग हो चुका है। जिसे कहते है, परंपरा, वह धागा टूट चुका है। परिवर्तन ने परंपरा को परास्त कर दिया है। कुछ देशों ने अपना धर्म बदल लिया, कुछ ने अपनी भाषा बदल ली, कुछ ने अपना नाम बदल लिया और कुछ ने अपनी जीवन-पद्धति ही बदल ली। परिवर्तन की आँधी ने परंपरा के परखचे उड़ा दिए। यह ठीक हुआ या ग़लत, यह एक अलग प्रश्न है लेकिन भारत में ऐसी क्या खूबी है कि परंपरा और परिवर्तन यहाँ कंधे से कंधे मिलाकर आगे बढ़े जा रहे हैं। उनकी द्वंद्वात्मकता उनके विनाश का पर्याय नहीं बन रही है बल्कि नित्य नूतन सृजन की गर्भ-स्थली बन गई है।
द्वंद्व में से सृजन की निष्पत्ति भारत में लगभग उसी तरह हो रही है, जैसा कि जर्मन दार्शनिक हीगल ने कभी सोचा था। थीसिस और एंटी-थीसिस के टकराव में से सिन्थेसिस निकलता चला जाता है। वाद, प्रतिवाद और सम्वाद। सम्वाद याने सम्यक् वाद, समन्वय वाद ! यह समन्वय ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें मूल सदा वर्तमान रहता है। कभी नष्ट नहीं होता। बीज रूप में रहता है। सूक्ष्म रूप में रहता है। यदि मूल अशक्त है तो उसे निर्मूल होने में देर नहीं लगतीं। भारत की मूल पहचान इतनी सशक्त है कि सैकड़ों हमलों के बावजूद वह कायम है। हमलावर यों तो सोने की चिड़िया को लूटने के लिए आते रहे लेकिन उनमें से कुछ को यह बुखार भी चढ़ा कि वे भारत को सभ्य बनाएँगे। उसके धर्म, संस्कृति, भाषा और संपूर्ण जीवन-पद्धति को नए रूप में ढालेंगे। लेकिन हुआ क्या ? जो भी भारत में रह गए, वे भारत के रूप में ढल गए। इक़बाल ने गलत नहीं कहा कि भारत के किनारे पर सभ्यताओं के अनेक जहाज आए और डूब गए। आखिर यह हुआ कैसे ?
इसका पहला कारण तो मुझे यह सूझता है कि दुनिया की दूसरी सभ्यताएँ अभी जब अपने शैशव में भी नहीं पहुँची थीं, भारतीय सभ्यता अपने चिर-यौवन में गमक रही थी। ज+रा हम पीछे मुड़कर देखें तो पाएँगे कि भारत उस समय बेजोड़ था। जब सिंकदर, हूण, अरब, मंगोल, मुगल आदि भारत आए तो जिन देशों से वे आए थे, वे देश कहाँ थे और उस समय भारत कहाँ था। यदि सिकंदर के यूनान में चलें तो वह युग प्लेटो और अरस्तू का था। प्लेटो और अरस्तू की रचनाओं – रिपब्लिक और पॉलिटिकस-की तुलना ज+रा करें, हमारी उपनिषदों से, रामायण और महाभारत से, कालिदास और कौटिल्य की रचनाओं से तो हम किस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे ? ये तो बहुत बाद की रचनाएँ हैं। ऋग्वेद, षड्दर्शन, जैन और बौद्ध धर्म आदि के मुकाबले की कोई चीज क्या हमें पश्चिम में दिखाई पड़ती हैं ? ये सभ्यताएँ, ये समाज, ये राष्ट्र जब विकास की पहली सीढ़ी पर पाँव रख रहे थे, तब तक भारत में वर्ण-व्यवस्था मूलक समाज स्थापित हो चुका था, राज्य-व्यवस्थाएँ परिपक्व हो चुकी थीं, अर्थ-व्यवस्थाएँ अपने चरमोत्कर्ष पर थीं। राज्य, परिवार, व्यक्ति और व्यक्तिगत सम्पदा की संस्थाएँ न केवल स्वस्थ रूप से काम कर रही थीं बल्कि उनके पारस्परिक संबंध भी सुपरिभाषित हो चुके थे। जहाँ तक पहुँचने में पश्चिम को शताब्दियाँ लग गई, पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजरना पड़ा, हजार साल के अंधकार युग में भटकना पड़ा, फ्रांस और रूस की खूनी क्रांतियों के अग्निकुंड में कूदना पड़ा, साम्राज्यवाद के राक्षस को अपने कंधे पर बिठाना पड़ा और विश्व-युद्ध की विभीषिकाओं को सहना पड़ा, वहाँ तक भारत कई हजार साल पहले ही पहुँच चुका था। अब से ढाई-तीन हजार साल पहले के भारत ने जिन विचारों को उछाला था, क्या उनसे बेहतर विचार अभी तक किसी अन्य सभ्यता ने मानवता के सामने प्रस्तुत किए हैं ?
भारत में जो भी आया, वह उसके भौगोलिक सौन्दर्य और भौतिक सम्पन्नता से तो अभिभूत हुआ ही, बौद्धिक दृष्टि से वह भारत का गुलाम होकर रह गया। वह भारत को क्या दे सकता था ? भौतिक भारत को उसने लूटा लेकिन वैचारिक भारत के आगे उसने आत्म-समर्पण कर दिया। ह्वेन-सांग, फाह्यान, इब्न-बतूता, अल-बेरूनी, बर्नियर जैसे असंख्य प्रत्यक्षदर्शियों के विवरण इस सत्य को प्रमाणित करते हैं। जिस देश के हाथों में वेद हों, सांख्य और वैशेषिक दर्शन हो, उपनिषदें हों, त्रिपिटक हो, अर्थशास्त्र हो, अभिज्ञानशांकुतलम् हो, रामायण और महाभारत हो, उसके आगे बाइबिल और कुरान, मेकबेथ और प्रिन्स, ओरिजिन ऑफ स्पेसीज+ या दास केपिटल आदि की क्या बिसात है ? दूसरे शब्दों में भारत की बौद्धिक क्षमता ने उसकी हस्ती को कायम रखा।
भारत के इस अखंड बौद्धिक आत्म-विश्वास ने उसके जठरानल को अत्यंत प्रबल बना दिया। उसकी पाचन-शक्ति इतनी प्रबल हो गई कि इस्लाम और ईसाइयत जैसे एकचालकानुवर्तित्ववाले मजहबों को भी भारत आकर उदारमना बनना पड़ा। भारत ने इन अभारतीय धाराओं को आत्मसात कर लिया और इन धाराओं का भी भारतीयकरण हो गया। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि इस्लाम और ईसाइयत भारत आकर उच्चतर इस्लाम और उच्चतर ईसाइयत में परिणत हो गए। धर्मध्वजियों और धर्मग्रंथों पर आधरित इन मजहबों में कर्मफल और पुनर्जन्म का प्रावधान कहीं नहीं है लेकिन इनके भारतीय संस्करण इन बद्धमूल भारतीय धारणाओं से मुक्त नहीं हैं। भक्ति रस में डूबे भारतीयों के मुकाबले इन मजहबों के अभारतीय अनुयायी काफी फीके दिखाई पड़ते हैं। भारतीय मुसलमान और भारतीय ईसाई दुनिया के किसी भी मुसलमान और ईसाई से बेहतर क्यों दिखाई पड़ता है ? इसीलिए कि वह पहले से उत्कृष्ट आध्यात्मिक और उन्नत सांस्कृतिक भूमि पर खड़ा है। यह धरोहर उसके लिए अयत्नसिद्ध है। उसे सेत-मेंत में मिली है।
यह बात मध्ययुगीन अभारतीय धाराओं पर ही लागू नहीं होती। आधुनिकता और वर्तमान भारत के सम्वाद में भी इस चिरंतन जुगलबंदी के स्वर गूंज रहे हैं। अंग्रेजी राज के दो सौ वर्षों में पश्चिम का प्रभाव जमकर आया लेकिन भारत चीन की तरह साम्यवादी नहीं बना और जापान की तरह पूंजीवादी नहीं बना। वह आधुनिक जरूर बना लेकिन उसने अपना पश्चिमीकरण नहीं होने दिया। वह किसी सभ्यता की कार्बन-कॉपी कभी नहीं बना। उसकी आदि मौलिकता ने उसे पश्चिम की चकाचौंध में बहने नहीं दिया। उसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि उनसे रस पाकर उसका एक फ़कीर सम्राटों को नाच नचाता रहा। यह उसकी आदिम शक्ति का ही चमत्कार है कि आज आधुनिकता की दौड़ में भारत अपने पुराने मालिकों से भी आगे निकला जा रहा है। उनकी भाषा सीखकर, उनके घर में बैठकर वह उनकी शतरंज पर उनको मात दे रहा है। अमेरिका में रहनेवाले भारतीय आज वहाँ के सर्वाधिक संपन्न वर्गों में गिने जाते हैं। यदि भारत का वर्चस्वी भद्रलोक स्वभाषा का महत्व समझ ले और अपने स्वरूप में स्थितप्रज्ञ होकर काम करे तो भारत को विश्व-शक्ति बनने से कौन रोक सकता है ?
यह समय सिर्फ अपनी हस्ती के बने रहने पर संतोष करने का नहीं है। उससे भी आगे जाने का है। हजारों वषों की जीवन-यात्रा में भारत ने जो अनुभव संजोए हैं, उनकी धरोहर से संसार का उपकार करना भी उसका धर्म है। यह ठीक है कि आज भी भारत के पास इतना पैसा नहीं है कि वह दुनिया को मुक्त हस्त से बाँट सके और इतनी ताकत नहीं कि वह विश्व-दरोगा बन सके लेकिन उसके पास आदर्शों, विचारों, जीवन-मूल्यों की ऐसी विरासत है, जो संसार का कल्याण कर सकती है। यह क्या कम बड़ी बात है कि संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र आज भारत में ही है ? क्या वजह है कि एशिया और अफ्रीका के इतने विशाल महाद्वीपों में अकेला भारत ही ज्वाजल्यमान दीप-स्तम्भ की तरह खड़ा दीखता है ? विलक्षण पाचन-शक्ति और असीम सहनशक्ति भारत को अनूठा राष्ट्र बनाती है। अपना यह अनूठापन भारत सारी दुनिया को क्यों नहीं बाँटें ? इसमें वह कोताही क्यों करे ? क्या यह सत्य नहीं कि जैसी जुगलबंदी हम भारत में अध्यात्म और विज्ञान, इहलोक और परलोक, भक्त और भगवान, राज्य और नागरिक, स्वार्थ और परमार्थ के बीच देखते हैं, वैसी दुनिया के किसी भी देश में नहीं देखते ? यही वह खूबी है, जो भारत को सभ्यताओं की मुठभेड़ से अलग और आगे ले जाती है। यह भारतीय संस्कृति ही है, जो सभ्यताओं में मुठभेड़ नहीं, गठजोड़ करवाती है। परमाणु शस्त्रों, आतंकवाद और गरीबी के राक्षसों से घिरी इस बेचारी दुनिया को अब पूंजीवाद और साम्यवाद नहीं बचा सकते। साम्यवाद के घुटने टूट चुके है और पूंजीवाद अपने घुटने टेक रहा है। संक्रमण की इस विकट-वेला में जिस भारत ने खुद को सदियों से बचाकर रखा है, वह दुनिया को भी बचा सकता है। अपना मंत्र वह दुनिया के कानों में क्यों नहीं फूंक सकता ?
डॉ जगन्नाथ स्मृति ग्रंथ के लिए।
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