Nav Bharat Times, 20 July 2009 : भारत और पाकिस्तान के बीच पिछले 62 साल में दर्जनों दस्तावेजों पर दस्तखत हुए हैं, लेकिन जैसी लापरवाही शर्म-अल-शेख में हुई है, पहले कभी नहीं हुई। ताशकंद, शिमला, इस्लामाबाद और 2006 के हवाना समझौतों में भी भारत ने अनेक उचित और अनुचित रियायतें पाकिस्तान को दी हैं, लेकिन इस 16 जुलाई का साझा बयान भारतीय कूटनीतिक इतिहास का अत्यंत विचित्र हादसा है। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस वक्तव्य पर पोंछा फेरना पड़ा है।
सबसे पहले तो इस संयुक्त वक्तव्य में कहा गया कि ‘आतंकवाद के विरुद्ध की जाने वाली कार्रवाई को साझा संवाद प्रक्रिया के साथ जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए और उन्हें एक ही खांचे में नहीं रखा जाना चाहिए।’ वक्तव्य के चौथे पैरे का यह वाक्य भारत सरकार को शीर्षासन करवा रहा है। अब तक भारत सरकार क्या कह रही थी? संसद के अंदर और बाहर प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री कई बार दो-टूक शब्दों में कह चुके हैं कि भारत सरकार पाकिस्तान से तब तक बात नहीं करेगी, जब तक वह मुंबई हमले के अपराधियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं करेगा। क्या पाकिस्तान सरकार ने अभी तक कोई ऐसी कार्रवाई की है, जिसके कारण भारत सरकार को अपना रवैया एकदम बदल लेना पड़ा है? इस बीच पाकिस्तान ने क्या-क्या कदम उठाए हैं? उसने मुंबई कांड के सरगना हाफिज सईद पर से केस उठा लिया है, उसने नियंत्रण रेखा पर नए बंकर बनाए हैं, उसके फौजी अफसरों ने अमेरिका से कहा है कि वे तालिबान को पटा सकते हैं, बशर्ते अमेरिका भारत को अफगानिस्तान से हटाए।
दूसरे शब्दों में पिछले सात महीने में पाकिस्तान सात इंच भी आगे नहीं बढ़ा है, फिर भी यूसुफ रजा गिलानी ने मनमोहन सिंह पर ऐसी कौन सी मोहिनी डाल दी कि उन्होंने आतंकवाद-विरोध और साझा संवाद को एक दूसरे से अलग कर दिया? जो डोजियर पाकिस्तान ने भेजा है, क्या उसमें ऐसे तथ्य और सबूत हैं, जिन्हें पढ़कर हमारे प्रधानमंत्री मंत्रमुग्ध हो गए हैं? अगर ऐसा है तो वे संसद और राष्ट्र को उनसे अवगत करवाएं! अगर सचमुच डोजियर बेहद ईमानदाराना है, तो भी आतंकवाद-विरोध और साझा संवाद को अलग करने की जरूरत क्या है? वैसी स्थिति में तो दोनों का संबंध पहले से अभी अधिक घनिष्ठ हो जाना चाहिए था। दोनों राष्ट्र बात करें और आतंकवाद की बात न करें तो उस बात का मतलब ही क्या है? संयुक्त वक्तव्य में दोनों को एक सिक्के के दो पहलू बताया जाना चाहिए था। लेकिन दोनों में संबंध विच्छेद करके भारत सरकार ने आतंकवादियों की पीठ ठोक दी है। उसने कह दिया है कि आतंकवाद और बातचीत, दोनों साथ-साथ चलते रहेंगे। यह पाकिस्तान की कूटनीतिक विजय है।
हमारे प्रधानमंत्री सचमुच बहुत सज्जन और भोले हैं। वे शायद आसिफ जरदारी और गिलानी के आतंकवाद-विरोधी रवैये को अपना समर्थन देना चाहते हैं। वे पाकिस्तान में फौज तंत्र के मुकाबले लोकतंत्र को मजबूत बनाना चाहते हैं। लेकिन वे भूल गए कि पाकिस्तान की असली सरकार जरदारी और गिलानी नहीं है, फौज और आईएसआई है। यह संभव है कि जरदारी और गिलानी का आतंकवाद से कोई संबंध न हो, लेकिन उनके बहाने हमारे प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के पूरे सत्ता प्रतिष्ठान को अनापत्ति प्रमाणपत्र दे दिया है। यही भूल उन्होंने सितंबर 2006 में भी की थी। उन्होंने हवाना में जनरल मुशर्रफ से जो समझौता किया था, उसमें यह मान लिया गया था कि दोनों राष्ट्र आतंकवाद के साझा शिकार हैं और उससे लड़ने के लिए साझा तंत्र खड़ा करेंगे। उस समझौते का क्या हुआ? उस समझौते ने पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय समाज में आतंकवाद के शिकार की छवि दे दी और उसके प्रति सबकी सहानुभूति बढ़ा दी, तो यह स्थिति उससे भी बदतर है। संयुक्त वक्तव्य में मनमोहन सिंह ने यह मान लिया है कि भारत पर इधर जितने भी आतंकवादी हमले हुए हैं, वे बिल्कुल स्वायत्त हैं। आतंकवादियों को पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान से कोई मदद नहीं मिली है। इस साझा बयान ने 2004 के वाजपेयी-मुशर्रफ समझौते को भी गला दिया है, जिसमें मुशर्रफ ने वादा किया था कि वे आतंकवादियों को भारत के विरुद्ध पाकिस्तान की जमीन इस्तेमाल नहीं करने देंगे।
ऐसा लगता है कि मनमोहन सिंह हवाना और शर्म-अल-शेख में अपनी समझदारी से काम नहीं ले पाए और किसी दबाव में रहे हैं अथवा भलमनसाहत में वे ऐसा कर बैठे। इस तरह के संयुक्त वक्तव्य की तैयारी पहले से नहीं थी। हो सकता है कि जल्दबाजी में चौथे पैरे का वह पाकिस्तानी वाक्य हमारे अफसरों की आंखों से ओझल हो गया हो। संसद में लंबी-चौड़ी सफाई पेश करके प्रधानमंत्री ने भूल सुधार की कोशिश की है लेकिन वह अकेला मारक वाक्य नहीं है, दो अन्य भयंकर भूलें भी उस दस्तावेज में हैं। एक तो बलूचिस्तान का जिक्र है और दूसरा कश्मीर का नाम लिए बिना उसका जिक्र है। भारत ने यह पहली बार माना है कि बलूचिस्तान में बगावत के लिए भारत जिम्मेदार है या उससे उसका कुछ संबंध है। वरना यह बताएं कि भारत-पाक दस्तावेज में बलूचिस्तान का क्या काम है? उसका जिक्र ही क्यों आया? क्या बलूचिस्तान भारत का हिस्सा है? पाकिस्तान सरकार ने बलूचिस्तान में भारतीय हस्तक्षेप के जो आरोप लगाए हैं, इस दस्तावेज ने उन्हें औपचारिक रूप दे दिया है।
हमारे अफसर गदगद हैं कि इस बयान में कश्मीर का नाम नहीं आया है। कितने भोले हैं, वे? ‘सभी प्रमुख मुद्दों सहित, सभी मुद्दों पर बात करने का’ आश्वासन भारतीय प्रधानमंत्री ने दिया है। इसका अर्थ क्या है? क्या कश्मीर पाकिस्तान का ‘प्रमुखतम’ मुद्दा नहीं है? दस्तावेज के अनकहे को गिलानी ने साफ-साफ कह दिया है। यानी अब कश्मीर पर बात होगी, लेकिन आतंकवाद पर नहीं होगी। इसीलिए प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शेख में ही इसे स्पष्ट कर दिया। कूटनीतिक भूल सुधार के इस साहस के लिए प्रधानमंत्री को बधाई दी जानी चाहिए। गनीमत है कि यह संयुक्त वक्तव्य मात्र था, कोई संधि नहीं थी।
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