Nav Bharat Times, 26 June 2009 : महिला आरक्षण विधेयक जिस रूप में हमारे सामने है, वह कभी पास हो ही नहीं सकता। हमारे सांसद इतने भ्रमित नहीं हो गए हैं कि उसे इस रूप में पास कर देंगे। वह पास हो जाए, यह सभी कहते हैं लेकिन वह पास न हो, यह सभी चाहते हैं। पिछले 12 साल से वही हो रहा है, जो असल में वह चाहते हैं।
वे इस विधेयक को पास क्यों नहीं होने देना चाहते? इसके तीन मुख्य कारण हैं। यदि यह विधेयक पास हो गया तो लगभग 265 पुरुष सांसदों की आजीविका खतरे में पड़ जाएगी। राज्यसभा और लोकसभा के कुल लगभग 800 सांसदों की एक तिहाई संख्या हुई लगभग 265। यदि 800 में से 265 सांसद महिलाएं होंगी तो पुरुषों को अपनी सीट खाली करनी पड़ेगी। यदि महिलाएं चाहें तो इन 265 आरक्षित सीटों के अलावा शेष सभी सीटों पर भी लड़ सकती हैं। यह विधेयक उन पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाता है। यानी जिन सीटों से महिलाएं पहले से पुरुषों के मुकाबले जीतती चली आ रही हैं, उन्हें वे क्यों छोड़ेंगी? ऐसी महिला सीटों का औसत 30 से 50 तक है यानी 300-325 पुरुष सांसदों को हर चुनाव में अपनी सीटें छोड़नी ही पड़ेंगी। यह अनुपात ज्यादा भी हो सकता है। अभी तो मुश्किल से 8-9 प्रतिशत महिलाएं ही संसद में पहुंचती हैं। फिर 40 प्रतिशत पहुंच सकेंगी। पुरुष सांसद इस विधेयक को पास करके अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी क्यों मारेंगे?
दूसरा कारण। विधेयक को पुरुष सांसद तब भी शायद पास कर देते, जब उन्हें पक्की तौर पर मालूम होता कि फलां-फलां चुनाव क्षेत्र हमेशा के लिए महिला-क्षेत्र घोषित हो गए हैं। नेतागण अपने-अपने चुनाव-क्षेत्र सुरक्षित कर लेते और अपने कमजोर क्षेत्रों को महिला-क्षेत्र घोषित करवा देते, लेकिन यह विधेयक बहुत पेचीदा है। यह कहता है कि हर चुनाव में एक तिहाई महिला सीटों का निर्णय लॉटरी द्वारा होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि बड़े से बड़े नेता की मजबूत से मजबूत सीट भी उसके नीचे से खिसक सकती है। उसकी 30-40 साल से पाली-पोसी सीट किसी भी महिला के हाथ लग सकती है। इसीलिए सभी नेता डरे हुए हैं। वे बहाने बनाकर इस विधेयक को अधर में लटका देते हैं।
तीसरा कारण यह भी है कि यदि संसद में 33 या 40 प्रतिशत महिलाएं आ गईं तो मंत्रिमंडल में उन्हें कम से कम 25 प्रतिशत प्रतिनिधित्व तो देना ही पड़ेगा। वे ज्यादा भी मांग सकती हैं। इतनी सीटें कहां से लाएंगे? दूसरे शब्दों में पुरुष मंत्रियों की संख्या घटेगी। एक समस्या यह भी हो सकती है कि कोई ऐसी पाटीर् या गठबंधन सत्तारूढ़ हो जाए, जिसमें 20-25 प्रतिशत महिलाएं भी सांसद न हों। तब वह मंत्रिमंडल कैसे बनेगा? महिला मंत्रियों का कोटा कैसे भरा जाएगा? क्या विपक्ष की महिला सांसदों को मंत्री बनाया जाएगा? सभी दलों के सांसदों में पुरुषों की भरमार है। वे संसद और मंत्रिमंडल, दोनों में अपने वर्चस्व को बनाए रखना चाहते हैं।
जब तक ये अड़ंगे दूर नहीं होंगे, यह विधेयक पारित नहीं होगा। सबसे पहला तरीका तो यह है कि पुरुष सांसदों को यह अभय-वचन मिलना चाहिए कि उनकी एक भी सीट कम नहीं होगी। महिला सांसदों के लिए जितनी भी सीटें आरक्षित होंगी, वे नई होंगी। नई सीटें दो प्रकार की हो सकती हैं। एक तो बड़े चुनाव क्षेत्रों को छोटा करके एक के दो या दो के तीन या तीन के पांच किए जा सकते हैं। यानी 800 की जगह 1065 सीटें बनाई जा सकती हैं। हजार-ग्यारह सौ सांसदों की संख्या से डरने की जरूरत नहीं है। रूस और चीन के सांसदों की संख्या इससे कहीं ज्यादा रही है। नेपाल जैसे छोटे से देश में 600 सांसद हैं। चुनाव क्षेत्र छोटे हों तो जनता का प्रतिनिधित्व बेहतर होता है। दूसरा तरीका यह है कि एक ही सीट से दो उम्मीदवारों को चुना जा सकता है, उनमें से एक उम्मीदवार का महिला होना अनिवार्य हो। इस तरह से सीटों की संख्या आठ सौ ही रहे, लेकिन सांसदों की संख्या 1065 या कुछ ज्यादा हो जाए। इसका एक लाभ और है। यदि हर चुनाव में महिला सीटें बदल भी दी जाएं तो भी लोगों को ज्यादा आपत्ति नहीं होगी।
जहां तक आरक्षण में आरक्षण का सवाल है यानी आरक्षित महिला सीटों के अंदर भी आरक्षण देने का सुझाव है, संविधान इसकी अनुमति नहीं देता। ऐसा करना आरक्षण को चोर दरवाजे से अंदर पहुंचाना है। महिलाओं की ओट में कुल आरक्षित सीटों की संख्या 33 प्रतिशत और बढ़वाना है, लेकिन यही काम अगर कुल सीटों की 33 प्रतिशत संख्या बढ़ाकर किया जाए तो इसमें कोई बुराई दिखाई नहीं पड़ती। 265 नई महिला सीटों में अगर अनुसूचित जाति, जन-जाति और पिछड़े वर्ग की महिलाओं को आरक्षण दे दिया जाए तो समतामूलक समाज के निर्माण में सहायता ही मिलेगी। भारत केग्रामीण, गरीब और वंचित वर्ग की सच्ची आवाज संसद में गूंजेगी। यदि आरक्षण में आरक्षण नहीं दिया गया तो यह निश्चित है कि देश के संपन्न, सुशिक्षित, शहरी, सवर्ण वर्ग की महिलाओं का इन 265 सीटों पर लगभग पूर्ण आरक्षण हो जाएगा। इसमें संदेह नहीं कि हर वर्ग की महिलाएं अपने पुरुष वर्ग के मुकाबले अन्यायग्रस्त है, फिर भी अगर विशेष प्रावधान नहीं किया जाएगा तो सभी सीटों पर उच्च वर्ग की संभ्रांत महिलाएं ही विराजमान हो जाएंगी। इसीलिए, यदि जरूरी हो तो संविधान में संशोधन भी किया जाना चाहिए।
यदि हमारे राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों पर भी यही आरक्षण संख्या लागू कर दें तो क्या कहने? स्केनडिनेवियाई देशों के दलों से हम यह सीख ले सकते हैं। हमारे दलों के पदाधिकारियों में भी महिलाओं को 33 प्रतिशत स्थान मिलने लगे, तो भारतीय राजनीति का बुनियादी रूपांतरण शीघ्र शुरू हो जाएगा। दुनिया की लगभग 50 संसदों में 9 से 40 प्रतिशत तक आरक्षण महिलाओं को मिला हुआ है। रवांडा, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे देश भारत से कहीं आगे हैं। सिर्फ राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, स्पीकर और मुख्यमंत्री के पद पर एकाध महिला को बिठा देने से कर्त्तव्य पूरा नहीं हो जाता। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्या हम दूसरे देशों के मुकाबले महिलाओं को सबसे बड़ा हिस्सेदार बना सकते हैं ?
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