दैनिक भास्कर, 25 मार्च 2009 : ईरान के नए साल पर बराक ओबामा ने संदेश जारी किया, यह तथ्य ही इस बात का सबूत है कि अमेरिका अब ईरान के साथ अपने संबंधों को पुनर्परिभाषित करना चाहता है| ओबामा के पहले छोटे या बड़े बुश या क्लिटन ने इस तरह का कोई संदेश क्या कभी जारी किया था ? ईरान के शाह के उलटने के बाद क्या कभी किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने ईरानी जनता और सभ्यता को महान कहने की उदारता दिखाई ? पिछले 30 साल में ईरान को क्या-क्या कहकर नहीं कोसा गया ? कभी उसे ‘शैतान की आँत’ कहा गया, कभी उसे आतंकवादी राष्ट्र कहा गया और कभी उसे विस्तारवादी राष्ट्र की संज्ञा दी गई| यह ठीक है कि ईरान ने भी कोई कोताही नहीं की| उसने अमेरिका को शैतान-ए-बुजुर्ग (बड़ा शैतान) कहा और उसे दंडित करने की भी धमकी दी| लेकिन ओबामा की पहल ने दोनों तरफ की भाषा को थोड़ा सुसंस्कृत किया है और दोनों राष्ट्रों के बारे में नए सोच का मौका पैदा किया है|
ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह खामेनई ने ओबामा के बयान का स्वागत तो किया है लेकिन यह भी कहा है कि सिर्फ गाल बजाने से काम नहीं चलेगा| जब तक कथनी और करनी में एकता नहीं होगा, अमेरिका से ईरान के संबंध नहीं सुधरेंगे| मखमली दास्तानों के अंदर फौलादी हाथ छुपे हो सकते हैं| खामनेई ने पूछा है कि ओबामा ने अपने संदेश में ईरान पर यह आरोप क्यों लगाया कि वह आतंकवाद और परमाणु हथियारों के पीछे पड़ा है| ओबामा ने अभी तक ईरान की जब्त संपत्तियों को वापस क्यों नहीं किया ? अन्तरराष्ट्रीय प्रतिबंध रद्द क्यों नहीं किए ? झूठे आरोप लगाना बंद क्यों नहीं किया और इस्राइल की ज़ायनवादी नीतियों का वे लगातार समर्थन क्यों कर रहे हैं ? खामनेई ने यह भी पूछा है कि अमेरिका को अपनी गलत नीतियों पर कोई अफसोस है या नहीं ? उसने एराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन को चंग पर क्यों चढ़ाया था और उसे ईरान पर हमला बोलने में मदद क्यों दी थी ? 1988 में अमेरिका ने ईरानी जहाज क्यों मार गिराया था ? खामनेई और अन्य कई ईरानी नेताओं ने कहा है कि वे भी अमेरिका से संबंध सुधारना चाहते हैं लेकिन पहले वे यह देखना चाहते हैं कि खुद अमेरिका के बर्ताव में कितना सुधार आया है|
ईरान की यह प्रतिकि्रया कठोर तो है लेकिन इससे बेहतर वह क्या हो सकती थी| जून में वहाँ राष्ट्रपति के चुनाव होने हैं| यदि वर्तमान राष्ट्रपति महमूद अहमदीनिजाद ओबामा के संदेश पर थिरकने लगते तो चुनाव में उन्हें शीर्षासन करना पड़ जाता, क्योंकि वे अमेरिका-विरोध के प्रतीक बन चुके हैं| अमेरिका के प्रति उनकी नरमी उनके लिए प्राणलेवा साबित होती| उनके विरूद्घ पहले पूर्व राष्ट्रपति मुहम्मद खातमी चुनाव लड़नेवाले थे लेकिन उन्होंने अब अपना समर्थन पूर्व प्रधानमंत्री मीर हुसैन भुसवी को दे दिया है| खातमी के बारे में माना जाता है कि वे उदार और मर्यादित व्यक्ति हैं, वे सभ्यताओं के समन्वय के पक्षधर हैं और वे ईरान-अमेरिकी तनाव खत्म करना चाहते हैं| मुसवी कठोरपंथी हैं| अमेरिका के बारे में उनके अपने पूर्वग्रह हैं| ऐसी स्थिति में ओबामा के संदेश की गर्मी से बर्फ पिघल उठेगी, ऐसा नहीं लगता लेकिन मुझे आशा की कुछ किरणें (अवश्य) दिखाई पड़ती हैं| अभी कुछ हफ्ते पहले जब ईरान में मैंने दर्जनों विदेश नीति विशेषज्ञों, नेताओं और पत्र्कारों से बात की तो मन पर यह प्रभाव पड़ा कि अहमदीनिजाद से लोग खुश नहीं हैं| सरकारी अफसर भी उनकी मज़ाक उड़ाते हैं| ईरान का आम आदमी मंहगाई और बेरोज़गारी के मारे परेशान है| इतनी परेशानी तो मुझे एराक-ईरान युद्घ के दौरान भी नहीं दिखाई दी थी| ईरान का हौंसला इसलिए भी पस्त हो रहा है कि तेल की क़ीमतें बहुत गिर गई हैं| अंतराष्ट्रीय प्रतिबंधों ने ईरान का टेंटुआ पहले से ही कस रखा है| इसके अलावा उसके दिमाग पर इस्राइल का भूत भी सवार है| उसे डर है कि इस्राइल में बन रही नेतनयाहू की कट्टरपंथी सरकार ईरान के परमाणु-ठिकानों पर उसी तरह हमला न बो दे, जैसे कि उसने एराक के संयन्त्र् पर बोल दिया था|
जो ईरान एशिया में कभी अमेरिका की आँख का तारा हुआ करता था, आज वह लगभग चारों तरफ अमेरिका से घिरा हुआ है| यह ठीक है कि ईरान के उत्तर में रूस है और रूस का रवैया उसके प्रति मैत्रीपूर्ण है लेकिन रूस ने उसके लिए वीटो का इस्तेमाल तो नहीं किया| इसके अलावा रूसी सरकार ओबामा प्रशासन के साथ मिसाइल डिफेंस प्लान और अफगानिस्तान को भेजे जानीवाली सप्लाय के बारे में कुछ नई आपसी समझ भी तैयार कर रही है| ऐसी हालत में अमेरिका से पंगा लेकर ईरान को क्या मिलनेवाला है ? ईरान के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि उसके बाएँ और दाएँ पड़ौस याने एराक और अफगानिस्तान में भी अमेरिका बैठा हुआ है| उसके उत्तर-पूर्व में तुर्की तो बाक़ायदा नाटो का सदस्य है ही| ईरान के दक्षिण में बहरीन अमेरिका के शक्तिशाली पाँचवें जंगी बेड़े का अड्रडा बना हुआ है| ईरान के दक्षिण-पश्चिम यान पाकिस्तान में भी अमेरिका दनदना रहा है| भारत-जैसा गुट-निरपेक्ष राष्ट्र भी अमेरिका का पिछलग्गू बन गया है, ऐसा ईरानी मानते हैं| ऐसी हालत में ईरान कब तक अन्तरराष्ट्रीय अछूत बना रहेगा और क्यों बना रहेगा ?
यह जरूरी है कि यह जड़ता भंग हो | कैसे हो ? क्यों हो ? इसलिए हो कि अमेरिका एराक़ और अफगानिस्तान, दोनों से अपना पिंड छुड़ाना चाहता है| बुश के पहले भी कई अल्पदर्शी राष्ट्रपति अमेरिका में हुए हैं लेकिन बुश की तरह किसी ने भी इस महान लोकतांत्रिक राष्ट्र को दो-दो बड़े युद्घों में एक साथ नहीं फंसाया| अमेरिका के कई खरब (टि्रलियन) डॉलर बर्बाद हो चुके हैं| मंदी ने उसकी कमर झुका दी है| यदि ईरान से उसके संबंध सुधर जाएँ तो उसे एराक़ और अफगानिस्तान से बाहर निकलने में बड़ी सुविधा होगी| एराक़ की शिया-बहुल जनता पर तो सीधा असर होगा ही, अफगानिस्तान का वैकल्पिक सप्लाय-रूट भी खुल जाएगा| फारस की खाड़ी से होता हुआ जरज-दिलाराम रूट (जो कि भारत-निर्मित है) खुल जाए तो अमेरिका को अफगानिस्तान में काफी सुविधा हो जाएगी| इसके अलावा जो ईरान आज अमेरिका विरोधी प्रचार का सबसे बड़ा स्त्रेत है, उसके मैत्रीपूर्ण होते ही सारे मुस्लिम जगत में अमेरिका की छवि चमक सकती है| मार्च के अंत में हालैंड में होनेवाले अफगानिस्तान-सम्मेलन में अमेरिका ने ईरान को बुलाया है| यह बुद्घिमता और लचीलेपन का संकेत है| ओबामा यदि ईरान के शांतिपूर्ण परमाणु-कार्यक्रम के दावों पर थोड़ा विश्वास जताएँ, प्रतिबंध कमोबेश हटाएँ और भारत-जैसे देशों की सत्सेवा लें तो ईरान-अमेरिका संबंधों की 30 वर्षीय जड़ता भंग हो सकती है|
(लेखक ईरान और अमेरिका की यात्रI से अभी ही लौटे हैं)
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