NavBhart Times, 5 Nov 2005 : सुभद्राकुमारी चौहान ने कभी पूछा था, ‘वीरों का कैसा हो वसंत?’ अब पूछने का समय आ गया है कि ‘भारत की कैसी हो प्रतिकि्रया’, दिल्ली के बम-विस्फोटों पर, रघुनाथ मंदिर पर, अक्षरधाम पर, संसद पर और लालकिले पर हुए हमले पर ! संसद पर हुए हमले से भारत थोड़ा हिला जरूर था लेकिन उसका मुख्य कारण शायद नाटकीय दृश्यों का बार-बार टी वी पर दिखाया जाना था| वरना हर आतंकवादी हमले पर क्या भारत सोता हुआ या उंघता हुआ नहीं पाया जाता है? हर हमले के बाद सरकारी नेता अपना मुंह लटकाए हुए एक ही बयान देते हैं, जिसका मतलब होता है, ‘अबकी बार तो तुम मार गए, अब देखते हैं, आगे कैसे मारोगे?’ इस रेडीमेड नुस्खे के बाद वे सीमा-पार आतंकवाद की पुडि़या खोल देते हैं| हर आतंकवादी घटना के बाद पुलिस, अस्पताल, मुआवज़े की स्टेन्डर्ड डि्र्रल चलने लगती है, जैसे कि किसी रेल या हवाई-दुर्घटना के बाद चलती है| यह है, सरकारी भारत की प्रतिकि्रया ! और जनता के भारत का क्या हाल है? वह शायद इससे भी बदतर है| कोई भी आतंकवादी हमला करोड़ों भारतीयों के लिए एक खबर, सिर्फ खबर होता है| उसे टी वी पर देखा, अखबारों में पढ़ा और अपने काम में लग गए| ज्यादा हुआ तो आपस में चर्चा कर ली| ऐन दिवाली के वक्त दिल्ली में हुए विस्फोटों पर भी भारत की यही प्रतिकि्रया रही| जिन घरों के दीप बुझ गए, जिन आंखों में अंधेरा छा गया, जिनकी जीवन-नावें डूब गईं, उनके लिए क्या हमारे दिलों में कोई सहानुभूति थी? क्या हमारा बर्ताव यह सिद्घ करता है कि हम एक राष्ट्र्र हैं, एक परिवार हैं, एक एकात्म-समुदाय है? यदि हम अपने साथी नागरिकों की पीड़ा से पीडि़त नही तो हम कैसे राष्ट्र्र हैं? जहां बम-विस्फोट हुए, दूसरे ही दिन वहां वही गहमागहमी फिर शुरू हो गई| वही चहल-पहल, वही शोर-शराबा, वही खरीद-फरोख्त ! जैसे कि कल कुछ हुआ ही नहीं| शेष देश में भी पटाखे, मिठाइयां, तोहफे बराबर चलते रहे| क्या कहा जाए, इसे? निष्ठुरता की भी हद है| विदेशी अखबार इसे भारतीयों की जवांमर्दी बता रहे हैं| इतने बड़े हादसों को भी भारत हंसते-हंसते झेल जाता है| यही वह ताकत है, जिसने सदियों से भारत को टिकाए रखा है| कोई उसका बाल भी बांका नहीं कर पाया| वह हर हाल में अविचल हिमालय की तरह खड़ा रहता है| किसी स्थानीय हादसे की वजह से दीवाली और ईद जैसे त्योहार रद्द क्यों किए जाएं? ये धार्मिक त्योहार हैं| हजारों बरस से चले आ रहे हैं| क्या भारतीय लोग इतने कमजोर हैं कि सौ-दो सौ लोगों के मरने पर वे अपना संतुलन खो बैठें? यह तर्क पर्याप्त प्रबल है| प्रबल ही नहीं है, हमारी रग-रग में व्याप्त है| यह तर्क नहीं, भारतीयों का स्थायी भाव है|
यह वही स्थायी भाव है, जिसने गोरी-गज़नी जैसे लुटेरों को भारत में पसरने दिया, बाबर और नादिरशाह जैसे हमलावरों को खुलकर खेलने दिया, क्लाइव और हेस्टिंग्ज़ की दुकानें चलने दीं| ‘कोउ नृप होइ, हमें का हानी’ का ही समसामयिक अनुवाद है, ‘कोई मरे हमें क्या?’ आतंकवादी हादसों पर वे लोग क्यों दुखी हों, जिनके रिश्तेदार और मित्र् नहीं मरे? क्या आधुनिक भारत के नागरिक की दुनिया केवल अपने रिश्तेदारों और मित्रें तक ही सिकुड़ी रहनी चाहिए? क्या आतंकवादी हादसा कोई व्यक्तिगत दुर्घटना है? आतंकवादियों के बमों से मारे जानेवाले लोग क्या किसी व्यक्तिगत राग-द्वेष के कारण मारे गए हैं? वे राष्ट्र्रीय समस्या के शिकार हुए हैं| वे राष्ट्र्र की बलिदेवी पर शहीद हुए हैं| क्या राष्ट्र्र के नाते हमने कोई प्रतिकि्रया जाहिर की है? हमारी कोई राष्ट्र्रीय प्रतिकि्रया भी होती है या नहीं? यह जरूरी नहीं कि सारा राष्ट्र्र दीवाली और ईद को र्रद कर देता| न दिए जलाता न नमाज़ पढ़ता| ऐसा नहीं| लेकिन कम से कम वह पटाखेबाजी, तोहफेबाजी, मिठाई और उत्सवबाजी से तो बाज आता|
यदि वह ऐसा करता तो आतंकवादियों और उनके आकाओं को जबर्दस्त नसीहत मिलती| उनके दिलों में दहशत बैठ जाती| उन्हें संदेश मिलता कि दिल्ली में मारे गए लोग और शेष एक अरब भारतीय चट्रटान की तरह अभेद्य हैं, अपृथक हैं, अविभाज्य हैं| दिवाली और ईद दोनों नहीं मनतीं तो इस्लाम के नाम पर आतंकवाद फैलानेवालों को पता चलता कि देश के शेष मुसलमान, उन्हें मुसलमान नहीं, हैवान समझते हैं| उनकी नापाक हरकतेां में अब एक बंदा भी साझेदार नहीं होगा| यदि वे अपने आपको मुसलमान मानते हैं तो उन पर लानत है कि उन्होंने ईद में खलल डाला| अल्लाह का काम बिगाड़ा| वे खालिस शैतान हैं| सिर्फ आतंकवादियों को ही नहीं, उनके आकाओं को भी चेतावनी मिलती कि राष्ट्र्र के रूप में भारत जाग गया है| उनके दिलों में वही दहशत बैठती, जो इस्राइल और अमेरिका ने बैठा रखी है| इस्राइल के जहाज का अपहरण हुआ तो उसने भारत की तरह सौदेबाजी नहीं की| उसने यात्र्ियों की जान को खतरे में डाला और आतंकवादी अपहर्ताओं को जहाज में घुसकर भून डाला| अपहर्ताओं को सदा के लिए सबक मिल गया| यही हाल अमेरिका ने किया हुआ है| ट्र्रेड टॉवर के बाद उसने ऐसा टेंटुआ कस दिया है कि पिछले चार साल में कोई परिंदा भी वहां पर नहीं मार सका| लेकिन हम हैं कि न तो सरकार और न ही आम लोग राष्ट्र्र के रूप में पेश आते हैं| हजारों वर्षों का दब्बूपन धारावाहिक रूप में चलता चला आ रहा है| नामर्दी को हम जवांमर्दी कहते हैं| न हम आतंकवाद पर पलटवार करते हैं, न हम उनके आकाओं को सबक सिखाते हैं और न ही भारत को राष्ट्र्र के तौर पर खड़ा करते हैं| यह ठीक है कि लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की तरह प्रेरक नेतृत्व का आज देश में अभाव है लेकिन देश के लोगों को क्या हुआ है? हमारे मरियल और भ्रष्ट नेताओं के मुकाबले साधारण जन तो अधिक बलवान और राष्ट्र्रप्रेमी हैं| अनेक अ-राजनैतिक संगठनों के करोड़ों अनुयायी चुप क्यों हैं? सब मिलकर कोई पहल क्यों नहीं करते?
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