Rashtriya Sahara, 19 July 2011: अफगानिस्तान ने अपने पांवों पर खड़े होना शुरू कर दिया है. इस रविवार को नाटो सेनाओं ने बामियान नामक प्रांत की बागडोर अफगान सेना को सौंप दी है. यह बामियान वही प्रांत है, जहां भगवान बुद्ध की विश्व-प्रसिद्ध प्रतिमा सैकड़ों वर्षों से खड़ी थी और जिसे तालिबान ने ध्वस्त कर दिया था. बामियान की तरह अब छह अन्य स्थानों का सैन्य-संचालन भी शीघ्र ही अफगानों के हाथों में आ जाएगा. ये छह स्थान हैं- काबुल, मजारे-शरीफ, हेरात, पंजशेर, मेहतर लाभ और लश्करगाह !
इस समय लगभग डेढ़ लाख विदेशी फौजी जवान अफगानिस्तान में डटे हुए हैं. इन्हें 2014 तक अफगानिस्तान खाली करना है. पिछले दस वर्षों से यह विदेशी जवान ही पूरे अफगानिस्तान को काबू में किए हुए हैं. ये सारे जवान यूं तो नाटो कमांड के तहत हैं लेकिन मैदानी तौर पर हर देश के जवानों की अपनी-अपनी कमांड भी है. बामियान की कमांड न्यूजीलैंड के हाथ में थी. नाटो की ये सेनाएं लगभग स्वायत्त हैं. अफगान सरकार का इन पर कोई नियंत्रण नहीं है. अफगान सेनाओं के साथ इनका कई बार कोई ताल-मेल तक नहीं होता.
अब पहली बार अपने सुरक्षा से संबंधित फैसले अफगान सेना खुद करेगी. अब तक तो स्थिति यह थी कि नाटो सेनाएं अनेक गंभीर अभियान अपने आप शुरू कर देती थीं और उसकी खबर अफगान राष्ट्रपति और सेनापति को अखबारों के माध्यम से पता चलती थी. यह तो ठीक है कि अब हर महत्वपूर्ण फौजी फैसले इन सूबों में वे खुद करेंगे लेकिन प्रश्न यही है कि क्या अफगान फौज उन फैसलों को लागू करने में सक्षम सिद्ध होगी ? इस वर्ष अफगानिस्तान में जितने विदेशी फौजी मारे गए, उतने पहले कभी नहीं मारे गए. वास्तव में अफगान फौज का मनोबल इस समय काफी नीचे गिरा हुआ है, जिसके कई कारण हैं.
इनमें पहला तो यही है कि न तो उनके पास यथेष्ट शस्त्रास्त्र हैं और न ही उन्हें पर्याप्त प्रशिक्षण दिया गया है. विदेशी फौजों ने अफगान फौजियों पर कभी पूरी तरह से भरोसा ही नहीं किया. वे हमेशा इसी शंका से आक्रांत रहे कि यदि अफगान फौजियों को कीमती हथियार दे दिए गए तो वे या तो इन्हें बेच देंगे या इन्हें लेकर अपने तालिबान कबाइलियों के रेवड़ में शामिल हो जाएंगे. जहां तक उनके प्रशिक्षण का सवाल है तो ज्यादातर अफगान जवान पश्तो भाषा बोलते और समझते हैं. अमेरिकी फौजी प्रशिक्षक सिर्फ अंग्रेजी बोल सकते हैं. अफगान जवानों को फारसी और हिंदी-उर्दू में भी समझाया जा सकता है लेकिन यह भी नाटो प्रशिक्षकों के बस की बात नहीं है. इसके अलावा गांवों में रहने वाले पठानों के मन में अमेरिकियों या विदेशियों के प्रति स्वाभाविक दुराव होता है. वे उन्हें औपनिवेशिक मालिक मानते हैं. कहने का आशय है कि दस साल की लंबी अवधि के बावजूद नाटो सेनाएं कोई मजबूत राष्ट्रीय अफगान फौज खड़ी नहीं कर सकीं.
विदेशी सरकारें इसी गलतफहमी में जीती रहीं कि अपनी सेनाओं के जरिये वे तालिबान का मूलोच्छेद कर देंगी और अफगानिस्तान शांति का साम्राज्य बन जाएगा. इसमें उन्होंने न सिर्फ अरबों डॉलर गंवा दिए बल्कि उनके हजारों जवान भी बेमौत मारे गये. यही नहीं, उनके अपने देशों में उनके विरुद्ध राजनीतिक माहौल भी गरमा गया.
जॉर्ज बुश की चुनावी हार और ओबामा की जीत में अफगानिस्तान की भी सुनिश्चित भूमिका रही है. लेकिन पश्चिमी राष्ट्रों ने अपनी पिछली भूलों से भी कोई सबक नहीं सीखा. वे चाहते तो पिछले दो सालों में कम से कम पांच लाख जवानों की राष्ट्रीय अफगान फौज और पुलिस बल खड़ा कर सकते थे. अब जबकि उन्होंने अपनी कमान अफगान फौजों को सौंपना शुरू कर दिया है, काफी अनिश्चय का वातावरण बन गया है.
अफगानिस्तान से पिंड छुड़ाने की जल्दी में अगर पश्चिमी देश इसी तरह कमान छोड़ते चले गये तो अफगानिस्तान में अराजकता तो फैलेगी ही, विदेशी फौजों का वहां से निकल भागना भी मुश्किल हो जाएगा. जरा याद करें, पहले अफगान-ब्रिटिश युद्ध की घटनाओं को ! अंग्रेजों के 16 हजार फौजियों ने चार साल तक काबुल पर अपना कब्जा जरूर बनाए रखा लेकिन उनकी वापसी के वक्त पंद्रह हजार नौ सो निन्यानवे फौजियों को अफगानों ने कत्ल कर दिया. सिर्फ एक अंग्रेज फौजी डॉक्टर अपनी जान बचाकर भाग सका. 1842 में बरतानिया साम्राज्य की इज्जत को अफगानिस्तान ने धूल में मिला दिया. क्या अब 2014 में अमेरिका वही दिन देखना चाहता है? यदि हवाई जहाजों के जमाने में पश्चिमी जवान अपनी जान बचाने में सफल हो गए तो भी उनके राष्ट्र अपनी इज्जत बचाने में सफल नहीं होंगे.
तो अब उनकी इज्जत कैसे बचे? विदेशी फौजें अफगानिस्तान खाली जरूर करें. अगर वे नहीं करेंगी तो उनके राष्ट्रों की भी वही स्थिति हो सकती है, जो सोवियत संघ की हुई थी. अफगानों से लड़ते-लड़ते वे दीवालिया हो जाएंगे. यदि वे अफगानिस्तान से हट जाएं तो तालिबान का सबसे बड़ा आधार ढह जाएगा. उनके दबदबे का सबसे बड़ा आधार यही है कि वे अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए लड़ रहे हैं. उसे वे विदेशी कब्जे से मुक्त करवाएंगे. इस आधार के ढहते ही वे बातचीत की मेज पर भी आ जाएंगे. यही उनकी सबसे बड़ी रुकावट है.
लेकिन असल सवाल यह है कि विदेशी फौज के हटते ही क्या काबुल की सरकार धराशायी नहीं हो जाएगी? बिल्कुल हो जाएगी. वह कुछ घंटे भी नहीं टिक पाएगी. तो क्या किया जाए? पांच लाख अफगान जवानों की फौज और पुलिस को खड़े करने का काम पूरी तरह भारत को सौंपा जाए. पश्चिमी राष्ट्र सारा खर्च उठाएं तो भारत यह काम भली-भांति कर सकता है. पाकिस्तान इसका विरोध अवश्य करेगा. इस मामले में पाकिस्तान को साथ लेने की भरसक कोशिश की जाए. यदि भारत-पाक संयुक्त कमान बन सके तो क्या कहने? और यदि यह संभव न हो तो भारत को दृढ़तापूर्वक अपने मिशन पर डट जाना चाहिए. पाकिस्तान के हर अड़ंगे को उखाड़ने के लिए कमर कसनी चाहिए. यह काम अमेरिका की खुली सहमति के बिना नहीं हो सकता. पाकिस्तान यदि भारत का रास्ता रोकेगा तो भारत ने ईरान-अफगान सीमांत पर जरंज-दिलाराम सड़क आखिर क्यों बनाई है ? वह कब काम आएगी ? महाशक्तियों के विनम्र अनुगत बनने की बजाय भारत को अपने क्षेत्र की राजनीति अपने दम-खम से चलानी चाहिए.
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