दैनिक भास्कर, 21 अक्तूबर 2017: गुरुदासपुर के संसदीय उप-चुनाव में भाजपा की करारी हार हुई। उसके साथ-साथ महाराष्ट्र के कुछ स्थानीय चुनावों और इलाहाबाद, गुवाहाटी, दिल्ली व ज.नेहरु विश्वविद्यालय के चुनावों में मिली हार ने मोदी सरकार के मुख पर चिंता की रेखाएं खींच दी हैं। हालांकि यह सरकार पिछले 30 वर्षों में बनी सरकारों में सबसे मजबूत सरकार है। यह अपने पांवों पर खड़ी है लेकिन राजीव गांधी की सरकार तो इससे भी बहुत ज्यादा मजबूत थी। उसके पास 410 सीटें संसद में थीं। इसके पास तो 300 सीटें भी नहीं हैं। लेकिन दो-ढाई साल गुजरे नहीं कि बोफर्स का मामला फूट पड़ा और राजीव सरकार का पानी उतरने लगा। जो चुनाव राजीव ने अपने दम-खम पर लड़ा, 1989 का, उसमें उनकी सीटें आधी रह गईं।
क्या नरेंद्र मोदी को भी 2019 में ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ेगा ? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। इसके कई कारण हैं। पहला तो यही कि मोदी सरकार के विरुद्ध भ्रष्टाचार का कोई इतना बड़ा मामला अभी तक सामने नहीं आया है। राजीव गांधी को भी मोदी की तरह स्वच्छ राजनेता माना जाता था। बोफर्स की तोप ने इस छवि के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। मोदी की व्यक्तिगत छवि बेदाग है और लोग यह भी मानते हैं कि इस सरकार के मंत्री भी सावधान हैं। इसीलिए इस सरकार से जो लोग संतुष्ट नहीं हैं, वे भी आशा कर रहे हैं कि अगले डेढ़ साल में शायद कुछ ठोस परिणाम सामने आएंगे।
दूसरा, राजीव गांधी अचानक नेता बने थे। प्रधानमंत्री पद ही उनका पहला पद था जबकि मोदी छोटी उम्र से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक होने के नाते सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहे, भाजपा के पदाधिकारी और गुजरात के मुख्यमंत्री रहे। राजीव जीते, शहीद इंदिरा गांधी को मिले वोटो से जबकि मोदी को मिले वोट, उनके अपने थे, हालांकि वे कुल वोटों के सिर्फ 31 प्रतिशत ही थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा ने देश के कई राज्यों में अपनी सरकारें बना लीं। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने दावा किया कि भाजपा की सदस्यता इतनी तेजी से बढ़ी है कि वह दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। इससे भाजपा पर मोदी की पकड़ बढ़ी है।
तीसरा, इस समय भाजपा पर मोदी की पकड़ बेहद मजबूत है। कोई मंत्री या पार्टी-पदाधिकारी इतनी हिम्मत नहीं कर सकता कि वह असहमति की आवाज़ उठा सके या कानाफूसी भी कर सके। भाजपा में आज किसी विश्वनाथप्रताप सिंह के खड़े हो जाने की संभावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। मोदी की पकड़ अटलजी की पकड़ से भी ज्यादा मजबूत है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्मान में कोई कोताही दिखाई नहीं पड़ती लेकिन उसका अंकुश भी घिस-सा गया है। वह दबी जुबान से हकलाते हुए मार्गदर्शन करता रहता है। आडवाणी और डाॅ. जोशी वाला मार्गदर्शक मंडल, मार्ग का सिर्फ दर्शन करने के लिए ही बना है। भाजपा पर आज मोदी की पकड़ वैसी ही है, जैसी 1975-77 में कांग्रेस पर इंदिरा गांधी की थी।
चौथा, इंदिरा गांधी 1966 में जब सत्तारुढ़ हुईं, तब से लेकर उनके अंत समय तक उन्हें सशक्त विरोध का सामना करना पड़ा। पहले डाॅ. राममनोहर लोहिया, फिर उनके अपने बुजुर्ग कांग्रेसी नेता और फिर जयप्रकाश नारायण से उन्हें मुठभेड़ करनी पड़ी लेकिन मोदी के सामने कौन है? कोई नहीं। नीतीश हो सकते थे लेकिन वे ढेर हो चुके हैं। अखिलेश यादव पितृ-द्रोह की लपटों में झुलस गए। ममता बेनर्जी ‘एकला चालो’ का ही गीत गा रही है। कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को अपने आतंरिक दंगल से ही फुर्सत नहीं है। मायावती की कोई गिनती ही नहीं। अब रह गई कांग्रेस ! देश की सबसे बड़ी विरोधी पार्टी, जो अब इतनी छोटी हो गई है कि ऐसी वह पहले कभी नहीं रही। उसे संसद में विधिवत प्रतिपक्ष का दर्जा भी प्राप्त नहीं है। दूसरे शब्दों में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को जैसा प्रचंड प्रतिपक्ष मिला था, उसकी तुलना में मोदी का प्रतिपक्ष खंड-बंड है। इसीलिए मोदी 2019 की तो बात ही नहीं करते हैं। वे 2024 की बात करते हैं।
पांचवां, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी से टक्कर लेने के लिए 1967, 1977 और 1989 में प्रतिपक्ष की एकता ने निर्णायक भूमिका निभाई थी लेकिन आज सारा प्रतिपक्ष एक होने के लिए तैयार ही नहीं है। यदि वह एक हो भी जाए तो उसके पास क्या लोहिया या जयप्रकाश या विश्वनाथप्रताप सिंह जैसा कोई प्रतीक-पुरुष है ? आज तो कोई नहीं है। ऐसे में देश के लोग, चाहे जितने असंतुष्ट हों, वे मोदी का विकल्प किसे बनाएंगे ?
ऐसा नहीं है कि मोदी का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। भाजपा में ही आडवाणी, जोशी, गडकरी, राजनाथसिंह, सुषमा स्वराज, शिवराज चौहान जैसे कई लोग हैं, जो श्रेष्ठ विकल्प हो सकते हैं लेकिन इनके नामों पर विचार होना तभी शुरु होगा, जबकि गुजरात जैसे प्रांत में भाजपा की सरकार गुड़क जाए, जिसकी संभावना कम ही है लेकिन इसमें शक नहीं कि गुजरात के चुनाव ने भाजपा का दम फुला दिया है। राहुल गांधी की सभाओं में आनेवाली भीड़ और उसके उत्साह ने भाजपा के कान खड़े कर दिए हैं। जीएसटी के अंतर्गत 27 चीज़ों पर रियायतें दी गई हैं, उनमें गुजराती खांखरों का विशेष जिक्र है। गुजरात की चुनाव-तिथि की घोषणा में देर करके चुनाव आयोग ने भाजपा की राह आसान कर दी है। गुजराती मतदाताओं को अरबों रुपए के लाॅलीपाॅप थमाए जा रहे हैं। गुजरात के चुनाव-अभियान ने राहुल की छवि को थोड़ा-बहुत संवार दिया है। लेकिन मोदी द्वारा गुजराती स्वाभिमान की बात छेड़ना और गुजरात में पैदा हुए गांधी, पटेल, मोरारजी, माधवसिंह सोलंकी जैसे नेताओं के साथ किए गए कांग्रेसी अन्याय के मामले को तूल देना काफी कारगर हो सकता है।
मान लिया जाए कि भाजपा गुजरात को जीत लेगी, फिर भी अगला डेढ़ साल मोदी सरकार की अग्नि-परीक्षा का समय रहेगा। लगभग आधा दर्जन राज्यों के चुनाव अगले साल होनेवाले हैं। इन सब चुनावों में एक मात्र प्रमुख प्रचारक नरेंद्र मोदी ही होंगे, जैसे कि वे बिहार, असम, उत्तरप्रदेश आदि में भी रहे हैं। ऐसे में शासन चलाने के लिए वे कितना समय दे पाएंगे, यह देखना है। पिछले तीन साल में इस सरकार ने जो भी अत्यंत साहसिक कदम उठाए हैं, उनका लक्ष्य तो जनता की भलाई ही था लेकिन उनके तात्कालिक परिणाम उल्टे ही आए हैं। नोटबंदी और जीएसटी की वजह से सरकार की जेब तो मोटी हो रही है लेकिन लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं, सैकड़ों लोग मौत के शिकार हुए हैं और कई काम-धंधे ठप्प हो गए हैं। इसके अलावा देश के सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे में जो मौलिक परिवर्तन की आशाएं जगी थीं, वे दिवा-स्वप्न बन चुकी हैं। देश के राजनीतिक ढांचे, चुनाव-प्रक्रिया, दलीय लोकतंत्र आदि में जो बुनियादी सुधार होने थे, अब उनका कोई नाम तक नहीं लेता। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर अमल होना तो दूर, देश में सांप्रदायिक दुर्भाव, जातीय तनाव, पश्चिम की नकल, अंग्रेजी का दबदबा और निचले स्तरों पर भ्रष्टाचार ज्यों का त्यों बना हुआ है। विदेश नीति के क्षेत्र में भी अनिश्चय का माहौल बना हुआ है। पड़ौसी देशों के साथ हमारे संबंध विरल ही हैं, उन्हें घनिष्ट कैसे कहा जाए ? चीन ने गच्चा दे दिया और अमेरिका के डोनाल्ड ट्रंप का कोई भरोसा नहीं। ऐसे में 2019 तक पता नहीं, देश की स्थिति क्या होगी? तब विकल्प का सवाल उठे तो उठे!
ABhatia says
“नोटबंदी और जीएसटी की वजह से सरकार की जेब तो मोटी हो रही है लेकिन लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं, सैकड़ों लोग मौत के शिकार हुए हैं और कई काम-धंधे ठप्प हो गए हैं। इसके अलावा देश के सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे में जो मौलिक परिवर्तन की आशाएं जगी थीं, वे दिवा-स्वप्न बन चुकी हैं। देश के राजनीतिक ढांचे, चुनाव-प्रक्रिया, दलीय लोकतंत्र आदि में जो बुनियादी सुधार होने थे, अब उनका कोई नाम तक नहीं लेता। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर अमल होना तो दूर, देश में सांप्रदायिक दुर्भाव, जातीय तनाव, पश्चिम की नकल, अंग्रेजी का दबदबा और निचले स्तरों पर भ्रष्टाचार ज्यों का त्यों बना हुआ है। विदेश नीति के क्षेत्र में भी अनिश्चय का माहौल बना हुआ है। पड़ौसी देशों के साथ हमारे संबंध विरल ही हैं, उन्हें घनिष्ट कैसे कहा जाए ? चीन ने गच्चा दे दिया और अमेरिका के डोनाल्ड ट्रंप का कोई भरोसा नहीं। ऐसे में 2019 तक पता नहीं, देश की स्थिति क्या होगी? तब विकल्प का सवाल उठे तो उठे!”
All these points must cause serious concern to all country loving people, and answers to these need to be found out as soon as possible. Political parties must stand up above their self interest, and must exert to give solutions to tackle the above problems.