राष्ट्रीय सहारा, 19 फरवरी 2007 : रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के म्युनिख-भाषण ने विश्व राजनीति में खलबली मचा दी है| क्या पुतिन के इस भाषण की तुलना विंस्टन चर्चिल के प्रसिद्घ फुल्टन-भाषण से की जा सकती है ? चर्चिल के भाषण को शीतयुद्घ का बीज-भाषण माना जाता है| क्या पुतिन का म्युनिख-भाषण नए शीतयुद्घ का शंखनाद है ? इस प्रश्न का जवाब हां या ना दोनों में ही है|
म्युनिख के 43वें सुरक्षा-नीति सम्मेलन में दुनिया भर के लगभग 250 सुरक्षा-विशेषज्ञ और नेतागण उपस्थित थे| उनके बीच दिए गए पुतिन के दो-टूक भाषण को अचानक फूटा हुआ लावा नहीं कहा जा सकता| वह मास्को के लाल चौक की किसी चुनावी सभा का भड़काऊ भाषण भी नहीं था| वह बहुत सोच-समझकर और लिखकर दिया हुआ भाषण था| इस भाषण में पुतिन ने अमेरिका को जैसी खरी-खरी सुनाई है, वैसी किसी अन्य महाशक्ति ने पिछले 15-16 साल में नहीं सुनाई| एराक़, ईरान, वेनेजुएला आदि राष्ट्रों के नेता अमेरिका के विरुद्घ अक्सर विष-वमन करते रहते हैं लेकिन उसका खास महत्व इसलिए नहीं है कि वे बहुत छोटे राष्ट्र हैं और इन राष्ट्रों को अमेरिकी कारनामों से चोट भी पहुंची है लेकिन पुतिन के म्युनिख भाषण के तुरंत बाद वहां उपस्थित अमेरिकी रक्षा-मंत्री रॉबर्ट गेट्रस को कहना पड़ा कि ”एक शीतयुद्घ काफी था| अब दूसरे की जरूरत नहीं है|”
ऐसा क्या कह दिया पुतिन ने, कि शीतयुद्घ की घंटियां बजने लगीं ? पुतिन ने सबसे पहले एकध्रुवीय विश्व की धारणा को ध्वस्त किया| उन्होंने कहा कि अमेरिका संपूर्ण विश्व-चक्र की एकमात्र् धुरी बनने की कोशिश कर रहा है| वह विश्व-राजनीति के जंगल में अकेले शेर की तरह रहना चाहता है| वह अपने अलावा किसी अन्य शक्ति को मान्यता नहीं देता| वह मनमानी करता है| दूसरे राष्ट्रों को दबाने के लिए शक्ति का बेलगाम इस्तेमाल करता है| ”वह विश्व का एकमात्र् स्वामी, एकमात्र् संप्रभु बन गया है|” उसने हर क्षेत्र् में अपनी हदें पार कर दी हैं| उसने लोकतंत्र् की धज्जियां उड़ा दी हैं| उसकी एकतरफा और ग़ैर-कानूनी कार्रवाइयों से सारे विश्व में तनाव और आतंक का वातावरण बन गया है| यह एकध्रुवीयता (दादागीरी) विश्व राजनीति के लिए तो हानिकर है ही, अमेरिका के लिए भी घाटे का सौदा है| अब से 61 साल पहले चर्चिल ने जो फुल्टन-भाषण दिया था, उसे आप आज पढ़ें तो उसके कई वाक्य पुतिन के वाक्यों-जैसे ही हैं| पुतिन के अमेरिका के विरुद्घ हैं और चर्चिल के सोवियत रूस के विरुद्घ थे| पुतिन का इशारा अमेरिका के उन हमलावर तेवरों की तरफ था, जो एराक़, ईरान, उ. कोरिया, फलस्तीन आदि के बारे में देखे गए|
इनसे भी ज्यादा, जिस बात से पुतिन खफ़ा हैं, वह है, नाटो का विस्तार ! शीतयुद्घ की समाप्ति के बाद नाटो को विसर्जित करने की हवाएं बहने लगी थीं| बल्कि यह भी कहा जा रहा था कि येल्तसिन का रूस भी नाटो में शामिल हो सकता है| याने या तो नाटो को खत्म किया जाए या उसका चरित्र् ही बदल दिया जाए लेकिन म्युनिख में पुतिन ने दो-टूक शब्दों में अमेरिका से पूछा कि आपके उन वायदों का क्या हुआ, जिनमें आपने पूर्वी यूरोप को नाटो से मुक्त रखने की घोषणा की थी ? यदि शीतयुद्घ समाप्त हो गया है तो आपने नाटो-जैसे आक्रामक सैन्य-संगठन की फौजों को लाकर रूस के सीमांतों पर क्यों डटा दिया है ? लगभग 75 साल तक रूस के उपग्रह बने रहे हंगेरी, पोलेंड, चेक गणराज्य, बुल्गारिया, एस्तोनिया, लातविया, लिथुआनिया, रोमानिया, स्लोवाकिया, स्लोवनिया आदि राष्ट्रों को नाटो का सदस्य बनाने की तुक क्या है? इतना ही नहीं, जॉर्जिया और उक्रेन-जैसे राष्ट्र, जो कल तक सोवियत रूस के अभिन्न प्रांत थे, उन्हें भी नाटो में शामिल होने के लिए उकसाया जाता है| इन राष्ट्रों की आंतरिक राजनीति में पिछले कुछ वर्षों से अमेरिका ने इतनी दखलंदाजी की कि रूस को उनके विरुद्घ कठोर कदम उठाने पड़े| पुतिन ने उन पांच मध्य एशियाई राष्ट्रों का जि़क्र नहीं किया, जो कभी रूस के प्रांत थे लेकिन जिन्हें अपने जाल में फंसाने की अमेरिका ने भरसक कोशिश की है| वास्तव में पुतिन ने अपने राष्ट्रहितों को दी जा रही अमेरिकी चुनौतियों को म्युनिख में साफ़-साफ़ रेखांकित कर दिया है|
अमेरिका और उसके पिछलग्गू राष्ट्रों द्वारा उड़ाई जा रही अंतरराष्ट्रीय कानून की धज्जियों पर भी पुतिन ने रोष व्यक्त किया है| उन्होंने इतालवी रक्षा मंत्री के इस कथन को रद्द कर दिया है कि नाटो और यूरोपीय संघ को कहीं भी फौज भेजने का अधिकार है| उन्होंने कहा है कि संयुक्तराष्ट्र के अलावा किसी भी संगठन द्वारा किया गया फौजी हस्तक्षेप बिल्कुल गैर-क़ानूनी है| अमेरिका द्वारा एक ओर लोकतंत्र् का मंत्र्पाठ करना और दूसरी ओर अन्य राष्ट्रों पर अपनी व्यवस्था थोपना लोकतंत्र् का हनन है| अमेरिका को गरूर है कि वह मालदार और ताकतवर है लेकिन क्या उसे पता नहीं कि अकेले चीन और भारत का संयुक्त सकल उत्पाद अमेरिका से ज्यादा है और इनमें ब्राजील और रूस को जोड़ लें तो वह यूरोपीय संघ से भी अधिक है| अपनी दादागीरी कायम रखने के लिए आखिर अमेरिका करोड़ों डॉलर रोज़ कहां तक बहायेगा ?
तो क्या यह माना जाए कि पुतिन का म्युनिख-भाषण नए शीतयुद्घ की शुरुआत है ? आभास तो यही होता है, क्योंकि रूस अब भारत और चीन के साथ मिलकर त्रिकोणात्मक सहयोग के नए आयाम खोल रहा है, सउदी अरब-जैसे अमेरिकापरस्त राष्ट्र के साथ पींगे बढ़ा रहा है, यूरोपीय राष्ट्रों के साथ गैस और तेल के सौदे कर रहा है, पूर्व-सोवियत राष्ट्रों पर अपनी पकड़ बढ़ा रहा है, संयुक्तराष्ट्र में वह अमेरिका के अतिवादी आग्रहों का सतत्र विरोध करता है लेकिन इन तथ्यों के आधार पर यह मानना कठिन है कि अब अमेरिका और रूस एक-दूसरे के विरुद्घ खड्रगहस्त हो गए हैं| वे अब भी एक-दूसरे के साथ काफी सहयोग कर रहे हैं| दोनों के बीच व्यापार अपूर्व स्तर पर चल रहा है| उ. कोरिया में दोनों राष्ट्रों ने कंधे से कंधा मिलाकर काम किया| पश्चिम एशिया में भी अमेरिका रूस से सहयोग ले रहा है| विश्व व्यापार संगठन में भी दोनों महाशक्तियां हाथ मिलाए हुए हैं| सबसे बड़ी बात तो यह है कि रूस के पीछे आजकल साम्यवादी विचारधारा-जैसे कोई चीज़ नहीं है| वह भी उदारीकरण की धारा में बह रहा है| इसके अलावा रूस को संयमित करनेवाला मुख्य तत्व होगा, उसकी अपूर्व संपन्नता ! तेल और गैस के खुले खजानों के कारण रूस में डालरों का समुद्र लहरा रहा है| इसीलिए वह अमेरिका के साथ बराबरी की बात तो जरूर करेगा लेकिन शीत या गर्म युद्घ से दूर ही रहेगा| अमेरिका इस तथ्य को भली-भांति समझता है| इसीलिए उसने पुतिन का कठोर प्रतिवाद नहीं किया|
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