प्रथम प्रवक्ता, 17 अप्रैल 2007 : नेपाल में ऐसे-ऐसे अजूबे हो रहे हैं, जो दुनिया के शायद ही किसी देश में हुए हों| विष्णु के अवतार और सर्वशक्तिमान समझे जाने वाले नेपाल नरेश अब नारायणहिटी राजमहल में कैदी की तरह सिकुड़ गए हैं| यह करिश्मा अगर किसी अन्य देश में हुआ होता तो पहले खून की नदियाँ बहती, फौजी तख्ता-पलट होता, राजवंश का सफाया होता या लोगों ने उसे भगाया होता लेकिन अचरज है कि नरेश ज्ञानेंद्र और उनके युवराज पारस राजमहल में सुरक्षित हैं उन्हें मारना तो दूर, किसी ने छुआ तक भी नहीं|
इसी प्रकार जिन माओवादियों ने पिछले 10 साल में 13 हजार लोगों की जान ली और जो राजवंश और लोकतंत्र् के कट्टर दुश्मन मान जाते थे, उन्होंने हथियार डाल दिए हैं और वे अब लोकतंत्र् की मुख्यधारा में शामिल हो गए हैं| वे न केवल गिरिजाप्रसाद कोइराला के मंत्र्िमंडल के सदस्य बन गए हैं बल्कि 20 जून को होने वाले संविधान सभा के चुनावों के लिए भी कटिबद्घ हो गए हैं|
नेपाली काँग्रेस के जिन दो गुटों ने एक-दूसरे की पीठ में छुरा भौंका था, वे आजकल एकजुटता का राग अलाप रहे हैं| नेपाल की फौज, जो नरेशभक्ति के लिए वचनबद्घ है, बिल्कुल मौन और उदासीन दिखाई पड़ती है| नेपाल की जिस जनता ने नरेश के होश ठिकाने लगा दिए, उसके मन की थाक पाना लगभग असंभव है| यह पता ही नहीं चलता कि वह किसे नहीं चाहती? राजा को नहीं चाहती या राजतंत्र् को नहीं चाहती? नेपाल की सड़कों पर लोग यह कहते हुए तो पाए जाते हैं कि पूर्व नरेश और उनके परिवार की हत्या वर्तमान नरेश ने ही करवाई है लेकिन अपनी बात को सिद्घ करने के लिए र्प्याप्त प्रमाण उनके पास कतई नहीं होते| यदि उनसे पूछे कि क्या राजतंत्र् को एकदम समाप्त कर देना उचित रहेगा तो वे असमंजस में पड़ जाते हैं| कोई कहता है कि नरेश रहे तो सही लेकिन भारत के राष्ट्रपति या बि्रटेन के राजा की तरह रहे| ध्वजमात्र् रहे| किसी ने कहा कि नरेश आनुवंशिक रह सकता है लेकिन उसकी नियुक्ति की पुष्टि संसद करे| कुछ नेपाली नेताओं ने कहा कि उनके वर्तमान नरेश की वैधता संदेहास्पद है, क्योंकि वे अत्यंत रहस्यमयी स्थिति में गद्दी पर बैठे हैं| उनके पुत्र् पारस पर हत्या, अत्याचार और अमर्यादित आचरण के आरोप हैं| कुछ नेताओं की राय थी कि नरेश के चार वर्षीय पोते को सिंहासन पर बिठाकर ध्वजमान राजतंत्र् को जीवित रखा जाए| उनकी राय है कि नेपाल के राजतंत्र् के प्रति आम जनता में अब भी रहस्यमयी आस्था है और वह नेपाल के विविध जन को एक सूत्र् में बांधने वाला तत्व है|
अनेक माओवादी मित्रें ने कहा कि वे राजतंत्र् और राजा, दोनों को एक क्षण भी बर्दाश्त नहीं कर सकते| यदि संविधान सभा में वे बहुमत जुटा सके तो वे पहले दि नही नेपाल को राजतंत्र् से मुक्त कर देंगे| नेपाली संसद में इस समय सबसे अधिक शक्ति नेपाली काँग्रेस के दोनों गुटों की है| नेपाल-नरेश और राजतंत्र् के बारे में अभी भी उनकी कोई राय नहीं है| नेपाल नरेश के कोप-भाजन ये दोनों दल ही रहे हैं लेकिन आज तक उन्होंने राजतंत्र् के उच्छेद की बात नहीं कही है| अब भी उनके हृदय में राजतंत्र् के लिए कुछ न कुछ नरमी बनी हुई है| संसदीय राजनीति की मुख्यधारा में बह रहे सभी दल शायद लोगों की राय के आधार पर अपनी राय बनाना चाहते हैं| वे लोकविरुद्घ आचरण नहीं करना चाहते| उनके पास माओवादियों की तरह पहले से बना-बनाया कोई फार्मूला नहीं हैं| माओवादी तो नरेश के इतने विरूद्घ हैं कि उन्होंने वर्तमान पुनजीर्वित संसद से यह प्रस्ताव भी पारित करवा लिया है कि यदि संविधान सभा के चुनावों के दौरान नरेश कुछ हस्तक्षेप या षड़यंत्र् करते पाए गए तो उन्हें दो-तिहाई बहुमत से संसद अपदस्थ कर देगी| माओवादी मानकर चल रहे हैं कि नरेश ज्ञानेंद्र और युवराज यदि खुलकर मैदान में नहीं आए तो भी वे कुछ पुराने राजभक्त नेताओं को अपना मोहरा बनाएँगे और उनकी ओट में अपनी कुटिल चालें चलेंगे| वे संविधान सभा में इतने लोग अवश्य पहुँचा देंगे, जो राजतंत्र् के खात्मे का प्रस्ताव पारित नहीं होने देंगे| अनेक नरेशभक्तों की राय थी कि ज्ञानेंद्र को कोई भी षड़यंत्र् करने की जरूरत नहीं है| अगर वे सिर्फ चुपचाप बैठे रहें और खेल देखते रहें तो आखिरी जीत उन्हीं की होगी| पहले तो लोकतंत्र्वादी आपस में लड़ेंगे| फिर माओवादी और मार्क्सवादी आपस में भिड़ेंगे और फिर ये चारों शक्तियाँ चौतरफा लड़ाई करेंगी| इन शक्तियों से तराई के लगभग 80 लाख नेपाली (मधेशी) भी लड़ेंगे| इस महायुद्घ में नेपाल-नरेश सही-सलामत उभरेंगे और शेष सभी शक्तियाँ लहू-लुहान हो जाएँगी| लोग खुद नरेश को लौटा लाने के लिए बेताब होंगे| अभी घृणित और उपेक्षित दिखाई पड़ने वाले नरेश नेपाली एकता और व्यवस्था के प्रतीक बन जाएँगे|
नेपाल के कुछ स्वतंत्र् विचारकों और नेपाली काँग्रेस के कुछ पुराने नेताओं ने मुझसे यह भी कहा कि यह अंतरिम संविधान, यह अंतरिम सरकार, यह पुनजीर्वित संसद, यह संविधान सभा का चुनाव-क्या यह सभी अवैध नहीं है? वे पूछते हैं कि संविधान की किस धारा के तहत भंग संसद को पुनजीर्वित किया गया है? यह अधिकार न नरेश को है, न प्रधानमंत्र्ी को है, न न्यायालय को है| यों भी जो संसद जनता ने चुनी थी, अगर वह भंग नहीं भी होती तो भी उसका कार्यकाल तो कभी का पूरा हो गया है| यह संसद इसलिए भी अवैध है कि इसमें बिना चुने ही लगभग 100 लोगों को नामजद कर दिया गया है| 83 माओवादी संसद में कैसे बैठे गए? उन्हें संविधान की कौन सी धारा के तहत संसद में बिठाया गया है? इन सांसदों द्वारा स्वीकार किया गया अंतरिम संविधान भी अवैध है और अंतरिम सरकार भी अवैध है| इसीलिए, जो संविधान-सभा बनेगी, वह भी अवैध होगी| तर्क की दृष्टि से ये बातें सही लगती हैं लेकिन इस समय नेपाल में जैसी उथल-पुथल है, वह किसी क्रांतिकारी स्थिति से कम नहीं है| क्रांतिकारी समय के अपने तर्क होते हैं| यह वह समय होता है, जब नदियाँ अपने तटों को तोड़कर बहती हैं ऐसे समय में जो भी काम सर्वसम्मति से हो जाए, उसे वैधता अपने आप मिल जाती है| अंतरिम संविधान, अंतरिम संसद और अंतरिम सरकार को लगभग पूरे नेपाल ने स्वीकार कर लिया है|
नेपाल में अंतरिम सरकार के गठन के एक दिन पहले तक यह सुगबुगाहट थी कि यह सरकार बन भी पाएगी या नहीं? सबसे पहला सवाल तो यही थी कि प्रधानमंत्र्ी कोइराला के उप-प्रधानमंत्र्ी कितने हों? यदि माओवादियों का एक उप-प्रधानमंत्र्ी हो तो एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी देउबा की नेपाली काँग्रेस में तो उप-प्रधानमंत्र्ी पद के आधा-दर्जन उम्मीदवार हैं| इतना ही नहीं, विवाद इस बात पर भी था कि कौन-सा मंत्रलय किस पार्टी को दिया जाए? हर पार्टी सारे प्रमुख मंत्र्लाय खुद दबाना चाहती थी| राजनीति का लक्ष्य ही पैसा कमाना और सत्ता के मजे लूटना है| मुफ्त में हाथ आई सत्ता को लेकर जबर्दस्त खींचातानी चल रही थी| इस बीच कोइरालाजी अचानक अस्वस्थ भी हो गए| अफवाहों का बाजार गर्म हो गया| फिर भी कोइरालाजी ने जैसे वचन दिया था, दक्षेस सम्मेलान में दिल्ली आने के पहले उन्होंने अपने अंतरिम मंत्र्िमंडल को शपथ दिला दी| उन्होंने निराशावादियों को निराश कर दिया| इस चमत्कार का श्रेय कोइरालाजी को ही है| इस समय कोइरालाजी नेपाल की राजनीति के प्राण बन चुके हैं| उनका प्रभा-मंडल इतना तेजस्वी है कि अनेक परस्पर विरोधी तत्व उनके अनुरोध पर राजनीतिक जुगलबंदी में शामिल हो गए हैं| आज नरेश से भी अधिक, कोइरालाजी नेपाली एकता और स्थायित्व के प्रतीक बन गए हैं| कुछ माओवादियों ने मुझसे यहाँ तक कहा कि जब तक कोइराला हैं, नए नेपाल की दुकान जमा ली जाए वरना इसका शीराजा बिखरते देर नहीं लगेगी| सचमुच कोइरालाजी दूरदेशी, धैर्य और संतुलन का विलक्षण परिचय दे रहे हैं लेकिन उनकी सेज गुलाब की पत्तियों से नहीं पटी हुई है| उनके मार्ग में काँटे ही काँटे बिछे हुए हैं|
सबसे पहले सवाल तो यही है कि 20 जून को संविधान के चुनाव संपन्न होंगे या नहीं? अभी तक न तो मतदाता सूचियाँ तैयार हुई हैं, न चुनाव क्षेत्रें का परिसीमन हुआ है और न ही विभिन्न पार्टियों में राजनीतिक ताल-मेल हुआ है| नेपाली काँग्रेस के दोनों गुट आपस में मिलना चाहते हैं| उनके कार्यकर्ता उत्साहित भी हैं लेकिन मध्यम कोटि के नेताओं के बीच भयंकर वैमनस्य दिखाई पड़ा| कोइराला के बाद काँग्रेस और नेपाल का नेता कौन बनेगा, यह बिंदु सबसे अधिक विवादास्पद है और कटुता का कारण है| यदि दोनों काँग्रेस मिल जाएँ तो चुनाव में उनकी शक्ति काफी बढ़ जाएगी, इसमें संदेह नहीं है| इसी तरह प्रश्न यह भी है कि क्या सातो पार्टियाँ, जो अभी तक मिलकर चल रही हैं, चुनाव के मैदान में एक-दूसरे का मुकाबला करेंगी? क्या लोकतंत्र्वादियों और माअवोदियों में सीधी टक्कर होगी? यदि हाँ तो क्या चुनाव शांतिपूर्ण और निष्पक्ष होंगे? अनेक नेपाली नेताओं की राय थीकि नेपाल में निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव करवाना संयुक्तराष्ट्र के बूते के बाहर की चीज है| जब तक मित्र्-राष्ट्रों के हजारों फौजी मतदान केंद्रों पर तैनात नहीं होंगे, माओवादी डंडे के जोर पर मतदान करवा लेंगे| कुछ पर्यवेक्षकों की राय थी कि अगर चुनाव निष्पक्ष होंगे तो माओवादियों को 15-20 से ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी| यदि चुनाव पाँच-छह माह बाद होंगे तो ये सीटें और ज्यादा घट जाएँगी|
हालाँकि माओवादी लोकतंत्र्वादियों के मंत्र्िमंडल में शामिल हो गए हैं लेकिन उनके इरादों के बारे में सभी सशंकित हैं| यों तो लगभग 30 हजार माओवादियों ने संयुक्तराष्ट्र के प्रतिनिधियों के सामने आत्मसमर्पण किया है और उन्होंने अपना पंजीकरण भी करा लिया है| पंजीकृत माओवादियों को 60 रु. रोज भत्ता भी मिलता है| यह भी कहा जा रहा है कि माओवादियों ने अपनी चुनावी फौज खड़ी करने के लिए इतने सारे लोग पंजीकृत करा दिए हैं| वरना क्या वजह है कि केवल 3400 हथियार जमा करवाए गए हैं? क्या शेष साढ़े 26 हजार छापामार निहत्थे लड़ रहे थे? शेष हथियार कहाँ गए? उनका क्या उपयोग हो रहा है| लोगों का मानना है कि वे हथियार माओवादियों ने इसलिए छिपा रखे हैं कि अगर चुनाव में वे बुरी तरह से हार गएतो वे दुबारा हिंसा पर उतर आएँगे| अब भी हिंसा की खबरें नेपाली अखबारों में बराबर छपती रहती है| काठमांठों के व्यापारियों ने बताया कि पिछले डेढ़ साल में जितने अपहरण हुए हैं, उतने पिछले साठ साल में नहीं हुए| माओवादी छापामारों के मुँह खून और पैसा इस कदर लग गया है कि अब वेअपने नेताओं की भी नहीं सुनते| कोइरालाजी की अंतरिम सरकार उन उद्दंड माओवादियों से कैसे निपटेगी? यदि वह इनके खिलाफ कार्रवाई करेगी तो माओवादी उखड़ जाएँगे और चुप रहेगी तो जनता उखड़ जाएगी| यदि संविधान सभा के चुनाव में माओवादी और दूसरे दल पिट गए या स्वयं नेपाली कांग्रेस पिट गई तो क्या यह अंतरिम सरकार टिकी रहेगी?
यद्यपि माओवादियों के प्रति भारत सरकार का रवैया थोड़ा नरम पड़ गया है लेकिन अमेरिकी सरकार का रवैया अभी भी ज्यों का त्यों दिखाई पड़ रहा है| भारत सरकार के प्रतिनिधि यदि मध्यस्थता नहीं करते तो लोकतंत्र्वादियों और माओवादियों में समझौता होना असंभव था| माओवादी जितना विरोध अपने लोकतंत्र्वादियों और नरेश का करते थे, उससे ज्यादा भारत का करते थे| वे भारत को विस्तारवादी और वर्चस्ववादी देश कहते रहे हैं| भारत के साथ संपन्न सभी संधियों को भंग करने की बात भी वे कहते रहते थे, लेकिन अब माओवादी भी नरम पड़े हैं| अब वे खुले-आम भारत-आने जाने लगे हैं| भारत अब उनकी निंदा नहीं करता लेकिन अभी-अभी माओवादियों ने खजूरी में भारतीय सहायता से बन रहे एक स्कूल को धमकी दी है और उससे वे मोटी वसूली भी करना चाहते हैं|
इसी प्रकार मधेश (तराई) में 29 माओवादियों की हत्या ने उनके कान खड़े कर दिए हैं| जिन मधेशी लोगों को नेपाल में मवेशी की तरह समझा जाता है, उनमें इतनी हिम्मत कहाँ से आई कि वे शस्त्र् धारण करें और माओवादियों को मार गिराएँ| माओवादियों ने आरोप लगाया है कि मधेशी लोगों को भारतीय लोग भड़का रहे हैं| वे हथियार और पैसा बिहार से ला रहे हैं| तराई की घटना ने माओवादियों की हड्डी में कँपकँपी दौड़ा दी है| उस हिंसा की सभी निंदा करते दिखाई पड़ते हैं लेकिन अंदर ही अंदर नेपाली लोग खुश है कि जो काम नेपाली सेना नहीं कर पाई, वह मधेशी लोग कर रहे हैं| माओवादियों को ईंट का जवाब पत्थर से मिल रहा है| मधेश में सक्रिय सद्रभावना पार्टी के भी दो हिस्से हो गए हैं लेकिन अब उनके मुकाबले अनेक हिंसक और अहिंसक संगठन उठ खड़े हुए हैं| जिस दिन अंतरिम मंत्र्िमंडल ने शपथ ली, मधेश के इन नए नेताओं ने 22 ही जिलों में बंद का आह्रवान किया| कोइरालाजी के अपने जिले में हड़ताल रही| मधेशियों का कहना है कि उन्हें अब दोयम दर्जे का नागरिक बनकर नहीं रहना है| वे भीख का कटोरा नहीं फैलाएंगे| वे अपने अधिकार लड़कर छीनेंगे| उन्हें सभी दलों ने ठगा है| अब उनको कोई नहीं ठग पाएगा| वे मानते हैं कि नेपाल के ढाई करोड़ लोगों में उनकी संख्या 49 प्रतिशत है लेकिन सरकार, संसद, प्रशासन और व्यापार में उनका हिस्सा लगभग नगण्य है| यदि संविधान बनाते समय अंतरिम सरकार ने मधेश के लोगों के साथ न्याय नहीं किया तो नेपाल भी श्रीलंका की राह पर बढ़ता चला जाएगा| तमिलों की तरह वे भी स्वतंत्र् राष्ट्र की माँग करने लगेंगे|
इसमें शक नहीं कि नेपाल बहुत ही नाजुक दौर से गुजर रहा है| पर्यटन-व्यवसाय बहुत धीमा पड़ गया है, अर्थ-व्यवस्था लगभग ठप्प है, बेरोजगारी और अपराध में लगातार बढ़ोतरी हो रही है| जनता का अपने नेताओं से भरोसा उठ चुका है| ऐसी हालत में भारत की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है| यदि नेपाल में कोहराम मच गया तो उसका लाभ उठाने में चीन, अमेरिका और पाकिस्तान पीछे नहीं रहेंगे| 1971 के बांग्लादेश से भी अधिक खतरनाक परिदृश्य के उभरने की संभावनाएं बन जाएँगी|
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