18 April 2004 : यह ठीक है कि राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों को आम मतदाता नहीं पढ़ता और चुनाव के बाद उन्हें दरी के नीचे सरका दिया जाता है लेकिन क्या इसीलिए उन पर बहस नहीं होनी चाहिए? यदि यह तर्क सही होता तो उन्हें तैयार करने में पार्टियॉं अपने बौद्घिक दिग्गजों को नहीं झोंकती और अपने सर्वोच्च नेताओं के हाथों उनका ढोल नहीं पिटवातीं| अगर वे महत्वहीन होते तो उनकी सचित्र खबरें नहीं छपतीं और न ही उन पर करारी टिप्पणियॉं सुनने को मिलतीं| इसमें शक नहीं कि आज के राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्रों का वह महत्व नहीं है, जो डेढ़ सौ साल पहले मार्क्स और एन्जेल्स द्वारा जारी किए गए ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ का हो गया था| उस विश्व-प्रसिद्घ घोषणा-पत्र का महत्व भी उसके जारी होने के 69 साल बाद 1917 में स्थापित हुआ, जबकि रूस में क्रांति हो गई| वह क्रांति का घोषणा-पत्र था और ये विकास के घोषणा-पत्र हैं| क्रांति तो कभी-कभी कुछ घंटों में ही हो जाती है लेकिन विकास के लिए बरसों लगते हैं| विकास के ये घोषणा-पत्र न तो क्रांति के घोषणा-पत्रों की तरह धमाकेदार होते हैं और न ही इनमें कोई गंभीर विश्लेषणात्मक विवेचन है| फिर भी इनका महत्व इसलिए है कि ये आसन्न चुनावों के वैचारिक परचम हैं| चुनावों के बाद भी इनका उपयोग है| यदि संसद, अखबार और जनता जागरूक हो तो ये उबाऊ घोषणा-पत्र ही प्राणलेवा बहस के आधार बन सकते हैं| इन्हें मानदंड बनाकर राजनीतिक दलों की कथनी और करनी को नापा जा सकता है| यदि चुनाव आयोग चाहे तो वह दलों को त्रैमासिक या अर्द्घवार्षिक जवाबदेही के लिए मजबूर भी कर सकता है|
प्रमुख दलों – कांग्रेस और भाजपा या राजग के घोषणा-पत्रों को ध्यान से पढ़ा जाए तो पहला नतीजा यही निकलेगा कि अब विचारधारा का अंत हो चुका है| मार्क्सवादी और समाजवादी पार्टियों के घोषणा-पत्रों की भाषा में कहीं-कहीं विचारधारा के तेवर झॉंकते हुए जरूर दिखाई पड़ते हैं लेकिन यह अंतर उतना ही है जितना संतरों और मोसंबियों में होता है| चीकू और चाक जैसा अंतर, जोकि पॉंचवें और छठे दशक में दिखाई पड़ता था| अब विभिन्न दलों के घोषणा-पत्रों में दिखाई नहीं पड़ता| दूसरे शब्दों में भारतीय राजनीति लगभग एकायामी हो गई है| उसमें से वैचारिक द्वंद्व का लोप हो गया है| किसी भी प्रमुख दल के पास कोई वैकल्पिक सपना नहीं है| अपनी निजता बनाए रखने के लिए सभी दल विशेष शब्दावली का प्रयोग करते हैं लेकिन सबकी तान जाकर एक ही बिंदु पर टूटती है| सभी दल विकास की अमेरिकी पूंजीवादी धारणा की गुलामी करते दिखाई पड़ते हैं| सबको भारत का मोक्ष विकास की दर में दिखाई पड़ रहा है| कोई नहीं पूछ रहा है कि कैसा विकास? किसका विकास? तथाकथित आर्थिक उदारवाद और वैश्वीकरण का विरोध कौन-कौन से दल कर रहे हैं? केवल मार्क्सवादी कर रहे हैं, क्योंकि एक तो अब भी वे घानी के बैल बने हुए हैं| उनकी ऑंख पर मोटी लालपट्टी बॅंधी हुई है और दूसरा, उन्हें पता है कि वे बंगाल और केरल में सिमटे हुए हैं| वे कभी भारत पर राज नहीं कर सकेंगे| इसीलिए अगर कुछ लफ्फाजी कर लें तो इसमें क्या बुराई है| क्या मार्क्सवादी और क्या गैर-मार्क्सवादी, सभी बौद्घिक शून्य में विहार कर रहे हैं| उन्हें फुर्सत नहीं कि वे भारत के सामाजिक, आर्थिक और नैतिक चरित्र की गहरी पड़ताल करें| भाजपा ने भारत को महाशक्ति बनाने की बात कही है, जो अच्छी है लेकिन उसने आज तक इस संबंध में कोई युक्तिसंगत विचार-सरणि उपस्थित नहीं की है| यह ठीक है कि राजग का घोषणा-पत्र सबसे बड़ा और सबसे व्यवस्थित तथा सपा का सबसे छोटा और सबसे सुतीक्ष्ण है लेकिन इन सब के पीछे कोई गहरा वैचारिक द्वंद्व दिखाई नहीं पड़ता|
मार्क्सवादी पार्टी के मुकाबले अगर कोई कांग्रेस और राजग या भाजपा के घोषणा-पत्रों पर नज़र डाले तो उसे बड़े रोचक प्रसंग दिखाई पड़ेंगे| भाजपा अपने घोषणा-पत्र को ‘दृष्टि-पत्र’ बोलती है| ‘दृष्टि-पत्र’ इसलिए कि वह राजग के एक हिस्से के तौर पर चुनाव लड़ रही है| राजग के घोषणा-पत्र में उसका घोषणा-पत्र आ गया| फिर इस ‘दृष्टि-पत्र’ की जरूरत क्यों पड़ गई? इसलिए कि एक तो भाजपा की मान्यताओं की धारावाहिकता बनी रहे और दुर्भाग्य से यदि राजग अधबीच में डूब जाए तो यह ‘दृष्टि पत्र’ ही घोषणा-पत्र की तरह काम आ जाए| इसमें शक नहीं कि राजग के घोषणा-पत्र में ज्यादातर बातें वही हैं, जो भाजपा के दृष्टि-पत्र में हैं लेकिन इसमें कई ऐसी बातें भी हैं, जो उसमें नहीं हैं| जैसे हिन्दुत्व, जम्मू-कश्मीर का विकेंद्रीकरण, समान नागरिक संहिता, महाशक्ति भारत की धारणा, बहुसंख्यकवाद और अल्पसंख्यकवाद का अस्वीकार और तुष्टिकरण का विरोध आदि| यहॉं मज़ेदार बात यह है कि भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दुहाई देती हुई अपनी तान हिन्दू-मुस्लिम एकता पर तोड़ती है और लगभग यही काम कॉंग्रेस “भारत के चमकीले अतीत का उत्सव” मनाते हुए करती है| दोनों दल एक-दूसरे पर सीधे प्रहार कर रहे हैं, अलग-अलग रास्ते पकड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं लेकिन पहॅुंच रहे हैं, एक ही मंजिल पर ! दोनों अल्पसंख्यकों को पटाने पर जुटे हुए हैं| दोनों दल एक दूसरे के वैचारिक प्रतिद्वंद्वी होने का दावा कर रहे हैं लेकिन दोनों महात्मा गॉंधी के सपनों के भारत की दुहाई दे रहे हैं| दोनों दलों ने राम मंदिर पर बहुत तलवारें भॉंजी हैं लेकिन दोनों की राय एक ही है कि या तो अदालत की मानें या हिन्दू और मुसलमान आपस में सर्वमान्य फैसला करे| दोनों दल गठबंधनों का गुणगान कर रहे हैं| प्रतिरक्षा और विदेश नीति के प्रश्नों पर भी केवल शब्दावली का ही अंतर है| असली अंतर केवल ‘विदेशी मूल’ के मुद्दे पर है| राजग ‘विदेशी मूल’ को उखाड़ने के लिए कानून की खुरपी चलाएगा|
जहॉं तक राजग और कॉंग्रेस के घोषणा-पत्रों का सवाल है, उनकी एकरूपता देखते ही बनती है| केवल मार्क्सवादी पार्टी अपवाद है, बाकी सभ्ी प्रमुख दलों ने अपने-अपने नेताओं को घोषणा-पत्रों के सिर पर बिठा दिया है| अपने नेता के चित्रों को टके सेर भरने के कारण भाजपाइयों को अपने नेता से ही डॉंट खानी पड़ी है| इन घोषणा-पत्रों को यदि सिर्फ ऊपर से देखें तो लगता है कि ये कोई विचार-पत्र नहीं, नेताओं के प्रचार-पत्र हैं| इनका चिकना-चुपड़ा और मोटा कागज क्या आपने किसी किताब में लगा देखा है? फोटू छापने के कागज पर इन दलों ने अपने घोषणा-पत्र छाप रखे हैं| ये घोषणा-पत्र हैं या नेताओं के एलबम? इस प्रवृत्ति के तीन अभिप्राय हैं| एक तो यह कि विचार की महिमा कितनी घट गई है और दूसरा यह कि राजनीतिक दलों के पास बर्बाद करने के लिए अकूत पैसा आ गया है| तीसरा यह कि घोषणाऍं अंदर बंद हैं और अगर कुछ चल रहा है तो नेताओं का पत्ता (पत्र) चल रहा है| याने विचार नीचे है और व्यक्ति ऊपर है|
राजग और कॉंग्रेस के घोषणा-पत्र रूप-रंग में एक-जैसे हैं| दोनों ही किसी बहुराष्ट्रीय निगम के ब्रोशर मालूम पड़ते हैं| दोनों ही अंग्रेजी में लिखे गए हैं, यह उनकी हिंदी से पता चल जाता है| हमारे राजनीतिक दल जनता से कितने जुड़े हुए हैं, इसका प्रमाण है, यह तथ्य कि उनका आंतरिक काम-काज किस भाषा में चलता है| अब हामरे दलों पर नौकरशाह बुद्घिजीवियों का कब्जा हो गया है| बुद्घिजीवी नेताओं और कार्यकर्ताओं की नस्ल खत्म होती जा रही है| राजग के संयोजक जॉर्ज फर्नांडिस घोषणा-पत्र जारी करते समय लगातार अंग्रेजी में बोलते रहे| वे भूल गए कि वे कभी समाजवादी थे और अंग्रेजी हटाओ आंदोलन का नेतृत्व करते थे| अटलजी की मजबूरी है| वे हिंदी में बोलते हैं| इसी प्रकार जब से सोनिया गॉंधी कॉंग्रेस अध्यक्ष बनी हैं, गॉंव के कार्यकर्ता भी अंग्रेजी बोलने की कोशिश करते हैं, हालॉंकि वे स्वयं हिंदी बोलने की कोशिश करती हैं|
इसमें संदेह नहीं कि कॉंग्रेस और भाजपा के घोषणा-पत्रों में भाषा का सवाल बिल्कुल दब-सा गया है, जबकि राजग के घोषणा-पत्रों में वह गायब नहीं किया गया है| उसमें भारतीय भाषाओं को शिक्षा और राज-काज में आगे बढ़ाने की बात कहीं गई है| राजग ने भारतीय भाषा आयोग स्थापित करने का वायदा किया है लेकिन वह क्यों स्थापित किया जाएगा, यह ठीक से नहीं बताया गया है| पिछले साढ़े पॉंच वर्षों में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाऍं पीछे ही हटी हैं| भाजपा तो हिंदी को लगभग भूल ही गई है| उसके घोषणा-पत्र में ‘हिन्दी’ शब्द ढूंढने के लिए कई बार गोता लगाना पड़ा लेकिन वह कहीं दिखा नहीं| भारत को अमेरिकी ढर्रे पर चलाने को आतुर हमारे नेताओं से कोई पूछे कि लोकभाषा के बिना आप कैसा लोकतंत्र चला रहे हैं? स्वभाषा के बिना क्या स्वराज्य अधूरा नहीं है? इन प्रश्नों के जवाब केवल समाजवादी पार्टी के घोषणा-पत्र में हैं| उसमें भाषा नीति का वर्णन अलग से है| “अंग्रेजी भाषा के साम्राज्यवाद” को मिटाने के उपाय बताने के साथ-साथ हिन्दी और उर्दू को रोजी-रोटी से जोड़ने की बात भी कही गई है|
भ्रष्टाचार के सवाल पर राजग और कॉंग्रेस ने जो कुछ कहा है, वह हास्यास्पद है| दोनों भ्रष्टाचार की भयंकरता का बखान करते हैं और दोनों उसके उन्मूलन की शेखी बघारते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि वे करेंगे क्या? इस मामले में भी समाजवादी पार्टी, कम से कम बोलने में तो इन दोनों से आगे है| वह कहती है कि सभी शीर्ष नेता, अफसर वगैरह लोग लोकपाल की निगरानी में होंगे और “कानून बनाकर आय से अधिक अर्जित सम्पत्ति को राष्ट्र की सम्पत्ति के रूप में बदल दिया जाएगा|” इसी प्रकार ‘इंडिया’ शब्द संविधान से हटाया जाएगा| सरकारी शान-शौकत घटाई जाएगी| आमदनी और खर्चे की सीमा बॉंधी जाएगी| ढर्रे से अलग हटकर इस तरह की कई बातें समाजवादी पार्टी के घोषणा-पत्र में जरूर दिखाई पड़ती हैं लेकिन सभी पार्टियॉं अब चुनावी-मशीन मात्र बन गई हैं, यह उनके घोषणा-पत्रों को पढ़़कर स्पष्ट हो जाता है| किसी एक पार्टी ने भी यह नहीं बताया है कि यदि वह सत्तारूढ़ नहीं हो पाई तो क्या-क्या करेगी? सच्चाई तो यह है कि सत्तारूढ़ होने पर भी वह कुछ नहीं करेगी| जो कुछ करेगी, वह सरकार करेगी| याने ये घोषणा-पत्र पार्टियों के नहीं, सरकारों के हैं| यदि सरकार बन गई तो वे शायद कुछ करेंगी और नहीं बनी तो घोषणा-पत्र कोरा सब्जबाग सिद्घ होगा| नेताओं के सब्जबाग में क्या-क्या नहीं उगता? हर साल एक करोड़ रोजगार, 30 लाख नए मकान, पॉंच करोड़ नव-साक्षर, हर हाथ को काम, हर पेट को रोटी और इसके अलावा आप जो-जो चाहें वह-वह आपको मिलेगा| चुनाव के मौसम में अलादीन का चिराग जल उठता है| इसीलिए जब आप इन घोषणा-पत्रों को पढ़ते हैं तो लगता है, हमारे राजनीतिक दल पृथ्वी पर स्वर्ग उतार लाऍंगे और हमारे नेता किन्हीं फरिश्तों से कम नहीं हैं| यह बात राजनीतिक दलों को भी पता है| इसीलिए शक होता है कि जो नेता इन घोषणा-पत्रों को जारी करते हैं, वे भी इन्हें पढ़ते हैं या नहीं? वे ही नहीं पढ़ते तो जनता क्यों पढ़े? उम्मीदवार ही उनसे अनजान हैं तो मतदाता अपना सिर क्यों खपाए?
ेघोषणा-पत्र पढ़कर कौन वोट देता है? एक वोट से दूसरे वोट के बीच जो पॉंच साल का अर्सा बीतता है, उसमें राजनीतिक दल क्या करते हैं, एक-दूसरे की टॉंग-खिंचाई के अलावा? उनके घोषणा-पत्रों में कोई ऐसा रचनात्मक या ध्वंसात्मक कार्यक्रम नहीं होता, जिसमें कार्यकर्ता जी-जान से जुटे रहें| जिन कार्यक्रमों में वे प्राणपण से जुटे रहते हैं, उनका उल्लेख घोषणा-पत्रों में जरूरी नहीं है| वह उनकी रग-रग में बसा होता है| वह है, नेताओं की खुशामद और दलाली ! यह भारतीय राजनीति की प्राणवायु है| अपने इस राजनीतिक कर्मकांड को हमारे नेताओं ने उच्चकोटि की ललित कला का रूप दे दिया है| इस ललित कला में पारंगत कुछ आचार्यगण हमारे राष्ट्रीय और प्रांतीय दलों के सर्वोच्च पदों तक पहॅुंच गए हैं| जैसे नेता, वैसे कार्यकर्ता ! सारे दल सिर से पॉंव तक खुशामद और दलाली में डूबे हुए हैं| उनके घोषणा-पत्र कोरे सब्जबाग नहीं होंगे तो क्या होंगे? बिना विचार, बिना बहस, बिना अन्तर्द्वंद्व, बिना कार्यक्रम आप ऐसे घोषणा-पत्र कहॉं से लाऍंगे, जिनके लिए पहले कार्यकर्तागण अपनी जान पर खेल जाते थे| मतदाता भी क्या करें? वे भी मजबूर हैं, खोखली घोषाणाओं के सब्जबाग में सैर करने के लिए !
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