Daink Hindustan, New Delhi 18 sept. 2010 : कश्मीर पर हुई सर्वदलीय बैठक को कई बागी नेताओं ने निर्थक घोषित कर दिया है। सैयद अली शाह गिलानी का कहना है असली मर्ज़ पर किसी ने उंगली ही नहीं रखी। सर्वदलीय बैठक में कश्मीर की ‘आजादी’ का कोई जि़क्र तक नहीं हुआ। तो बागी नेता क्या भ्रम पाले हुए थे? वे शायद इस गलतफहमी में हैं कि भारत के सारे नेता डर गए हैं। डरे हुए नेताओं की इस सर्वदलीय बैठक से उन्हें उम्मीद थी कि भारत सरकार अब घुटने टेकेगी और कश्मीर को तश्तरी में रखकर उन्हें पेश कर देगी। इस बैठक से उनका निराश होना स्वाभाविक है।
वे निराश इसलिए हो रहे हैं कि उन्होंने अपने दिमाग के सारे खिड़की-दरवाज़े बंद कर लिये हैं। वे सोचते हैं कि कश्मीरी नौजवानों की भावनाओं को भड़काकर वे भारत से नाक रगड़वा लेंगे। ऐसे लोगों की सारी मांगें भी यदि भारत सरकार मान ले और उन्हें बात करने के लिए बुलाये तो वे क्या बात करेंगे? कौन-सी बात करेंगे?
भारत की कोई भी सरकार संविधान के बाहर जाकर कश्मीर के बागियों से बात नहीं कर सकती। ‘आज़ादी’ की बात तो ‘आ’ अक्षर से ही उसे खत्म करनी होगी। कश्मीर की आजादी का मतलब यदि उसका भारत से अलग होना है तो उस आज़ादी की बात चलाने वाली सरकार दिल्ली में एक मिनट भी नहीं टिक पाएगी। जिस पार्टी की वह सरकार होगी, वह पार्टी ही उसे तत्काल गिरा देगी।
यदि आज़ादी का अर्थ सचमुच आजादी है, तो कश्मीरियों को वह किसी भी हद तक मिल सकती है। प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने लाल किले से कहा था कि उसकी सीमा आकाश तक जा सकती है। अनुच्छेद 370 कश्मीरियों को अद्वितीय स्वायत्तता देती है। इस स्वायत्तता का पूर्ण सम्मान किया जाए और जरूरत हो तो उसकी मात्र बढ़ाई भी जा सकती है, लेकिन उसका नतीज़ा अगर यह निकलता हो कि कश्मीर किसी और मुल्क की कठपुतली बन जाए और भारत से अलग हो जाए तो भारत यह भी सोच सकता है कि अनुच्छेद 370 में क्या-क्या कटौती की जाए?
ऐसा इसलिए कि वह कश्मीर को पाकिस्तान, चीन या पश्चिमी राष्ट्रों का मोहरा नहीं बनने देगा। अलग होकर कश्मीर भारत और पाकिस्तान, दोनों का सिरदर्द तो बनेगा ही, वह अपना ही सबसे बड़ा सिरदर्द खुद बन जाएगा।
कश्मीर का अलगाव और उसकी गुलामी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अलग रहकर वह कभी आजाद नहीं हो सकता। यदि वह भारत के साथ रहेगा तो कश्मीर का हर नागरिक उसी तरह आज़ाद रह सकता है, जैसे कि भारत का हर नागरिक होता है। श्रीनगर और दिल्ली की आजादी बिल्कुल एक-जैसी होगी। यदि हुर्रियत के नेता अपने कश्मीरियों के लिए इससे भी बड़ी कोई आज़ादी चाहते हैं तो जाहिर है कि वे कश्मीर को और खुद को किसी का मोहरा बनाने पर उतारू हैं या कश्मीर के सुल्तान बनने का ख्वाब पाले हुए हैं। असली का भी
‘असली’ मर्ज़ यही है। कश्मीरियत और मजहब तो एक बहाना है।
अच्छा हुआ कि सर्वदलीय बैठक ने इस असली मर्ज पर उंगली नहीं रखी। अगर वह रख देती तो क्या कश्मीरियों के ताज़े घावों पर कोई मरहम लगता? शायद उन पर तेजाब ही छिड़का जाता। हुर्रियत के नेता तो यही चाहते हैं, लेकिन हुआ उल्टा ही। महबूबा मुफ्ती तक ने जो भाषण दिया, वह बहुत ही रचनात्मक था। उसमें कहीं कोई भड़काऊ बात नहीं थी।
भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी अगर चाहते तो अपनी भड़ास निकाल सकते थे, लेकिन उन्होंने ही नहीं, सभी दलों के नेताओं ने कश्मीरी नौजवानों के रक्तपात पर गहरी सहानुभूति और चिंता जताई। उनका रवैया वही था, जो हमेशा अपनों के लिए होता है। यह अपने आप में बड़ी बात है कि सभी दलों के नेता अब कश्मीर जाएंगे, वहां जन-साधारण से मिलेंगे और अपनी बैठक भी करेंगे।
नेतागण कश्मीर-जैसे अशांत क्षेत्रों में जाने से यों ही काफी डरते हैं और फिर वहां जाकर उनका आम लोगों से मिलना तो लगभग असंभव ही होता है। अब भी उम्मीद की जाती है कि वे सिर्फ श्रीनगर के राजभवन या किसी पांच-सितारा होटल में चंद नामी-गिरामी लोगों से मिलकर ही नहीं लौट आएंगे बल्कि कश्मीर के पांच-सात जिलों में जाकर साधारण लोगों से भी बात करेंगे।
यदि इस प्रामाणिक जनसंपर्क के आधार पर वे कोई सुझाव देंगे तो निश्चय ही कश्मीर-समस्या के समाधान की तरफ ठीक से बढ़ा जा सकेगा। दंगाइयों के दबाव में आकर सरकार यदि कोई आनन-फानन फैसला कर लेती तो वह अकेली पड़ जाती। अब यदि वह कोई बहुत साहसिक कदम भी उठाएगी तो उसे पूरे देश का समर्थन मिलेगा।
यदि सर्वदलीय सुझावों के आधार पर सरकार कश्मीर से फौज हटाना चाहेगी तो हटाएगी। फिर यह नहीं माना जाएगा कि शासन ने अपना मनमाना जुआ खेल लिया। यदि फौज हट गई तो विशेष फौजी अधिकार कानून को सुधारने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। फौज तो तभी हटेगी, जब हिंसा और आतंकवाद काफी हद तक रुक जाएंगे। हिंसा है तो फौज है। ये कश्मीर के तात्कालिक मर्ज हैं। पहले इनका इलाज़ हो तो फिर असली मर्ज़ की तरफ बढ़ा जा सकता है।
असली मर्ज को हल करने के तहत जो भी प्रस्ताव आएं, उन पर खुले दिल से विचार हो सकता है। इन प्रस्तावों में 1953 के पहले की स्थिति, मुशर्रफ के चार सूत्र, सैयद अली शाह गिलानी के पांच सूत्र और भारत-पाक महासंघ की परियोजना आदि कई प्रस्तावों पर बातचीत हो सकती है, लेकिन कश्मीर के बागी नेता यदि यह सोचे बैठे हैं कि वे हिंसा के जरिये भारत को उनके अपने ‘असली मर्ज’ तक घसीट ले जाएंगे तो उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी। उनके इस ‘असली मर्ज़’ की दवा भारत के पास नहीं है।
पाकिस्तान और अमेरिका सोचते थे कि उनके पास है। उन्होंने वह दवा देकर देख लिया। कश्मीर को उन्होंने बुरे से बुरे हालात में फंसाकर भी देख लिया। वे कामयाब नहीं हुए। अब यदि कश्मीर का मसला हल होना है तो उसे भारत और कश्मीर ही करेंगे। कोई तीसरा नहीं। भारत की दिन-रात बढ़ती हुई सैन्य-शक्ति से क्या कश्मीर के बागी अपरिचित हैं?
इसके अलावा पाक-कश्मीरी आतंकवाद ने सारी दुनिया में इतनी बदनामी झेल ली है कि पश्चिमी देश ही नहीं, इस्लामी देश भी कश्मीरी अलगाववाद को हवा देने के लिए तैयार नहीं हैं। उनका सबसे बड़ा सरपरस्त पाकिस्तान आज अपनी ही आग में झुलस रहा है। इसीलिए कश्मीरियों का लाभ इसी में है कि वे केंद्र की सर्वदलीय पहल का स्वागत करें, हिंसा छोड़ें और अपने असली मर्ज के आयामों से सारे भारतीय नेताओं को परिचित करवाएं।
लेखक विदेश संबंध परिषद के अध्यक्ष हैं
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