दै. भास्कर, 27 सितंबर 2009 : चीन को लेकर भारत में अजीब-सी स्थिति पैदा हो गई है| ऐसा लगता है कि जनता जाग रही है और सरकार सो रही है| सीमा पर चीन क्या-क्या हरकतें कर रहा है, यह जानने के जितने साधन जनता के पास हैं, उनसे कहीं ज्यादा सरकार के पास हैं| जनता को जगानेवाले सिर्फ अखबार और टीवी चैनल हैं| अखबार और टीवी कह रहे हैं कि चीनी सैनिक हमारी सीमाओं में घुसकर हमारे नागरिकों को तंग करते हैं, चट्रटानों पर चीन का नाम लिख देते हैं, उन्होंने भारत-तिब्बत सैन्य-दल के दो जवानों को मार दिया है और वे हमारी सीमाओं में बंकर भी खड़े कर रहे हैं| भारत सरकार का प्रवक्ता कहता है कि ये सब खबरें निराधार हैं| सरकार को अखबार और टीवी की खबरें तो उपलब्ध हैं ही, उसके पास अनेक गुप्तचर संस्थाएं हैं, स्थानीय प्रशासन है और नागरिक हैं, जो उसे बराबर खबरें देते रहते हैं| ऐसे में किस पर भरोसा किया जाए ?
साधारणत: सरकार पर भरोसा करने का ही मन बनता है लेकिन हमारी सरकारें पड़ौसी देशों से इतनी बार गच्चा खा चुकी हैं कि आम जनता में बेचैनी फैल रही है| यदि सरकार सतर्क होती तो मुंबई-हमला ही क्यों होता ? आतंकवादियों को समुद्र-तट पर ही दबोच लिया जाता| आखिर करगिल-युद्घ कैसे शुरू हुआ ? कई महिनों से चली आ रही घुसपैठ की पाकिस्तानी तैयारियों का हमारी सरकार को कुछ पता ही नहीं चला| 1948 में यदि कश्मीर के चरवाहों ने शोर नहीं मचाया होता तो श्रीनगर पर भी पाकिस्तान का कब्जा हो जाता| 1962 का युद्घ अचानक नहीं हो गया था| उसकी तैयारी चीन पिछले 12 साल से कर रहा था| 1957 में खुर्नाक के किले पर जब हमारे जवानों के शव चीन ने हमें सम्हलाए तो भी हमारी नींद नहीं खुली| हिंदी-चीनी भाई-भाई की खुमारी में हम अपना कर्तव्य भूल गए| क्या वही दुखद पटकथा अब दुबारा तो नहीं लिखी जा रही है ? शायद नहीं| इसीलिए भारत सरकार बार-बार कह रही है कि सीमा पर कोई झड़पें नहीं हुई हैं, भारत-तिब्बत दल के कोई जवान नहीं मारे गए हैं, चट्रटानों पर चीनी भाषा जरूर लिखी है लेकिन ‘चीन’ नहीं लिखा हुआ है और दोनों तरफ के स्थानीय कमांडरों के बीच संपर्क बना हुआ है| भारत सरकार ऐसा क्यों कह रही है ? वह उत्तेजित क्यों नहीं है ? इसके कारण स्पष्ट हैं| सबसे पहली बात तो यह है कि दोनों देशों के बीच वास्तविक नियंत्र्ण रेखा अभी तक खींची नहीं गई है, जैसी कि भारत और पाकिस्तान के बीच है| जंगलों, पहाड़ों, नदियों और झीलों के आर-पार मोटी-मोटी पहचानों के आधार पर सीमाएं मान ली जाती हैं| मानी हुई सीमाओं के दोनों तरफ प्राय: बस्तियां नहीं होतीं, लोग नहीं रहते, सैनिक शिविर नहीं होते| ऐसे में गश्त लगाते हुए एक देश की सैनिक टुकडि़यां दूसरे देश की सीमा में चली जाती हैं| यह अनजान में भी हो जाता है और कभी जान-बूझकर भी| चीनी अखबार अक्सर आरोप लगाते रहते हैं कि भारतीय टुकडि़यां चीनी-सीमा में घुस आती हैं| इस तरह की घटनाएं भारत-पाक सीमांत पर तो अक्सर होती रहती हैं और वहां तो ऐसा दोनों पक्षों की तात्कालिक सहमति से भी हो जाता है, क्योंकि दोनों पक्ष एक-दूसरे की भाषा समझते हैं| भारत और चीन के बीच ऐसी घटनाएं स्थानीय नहीं रह पातीं| वे तूल पकड़ लेती हैं| भारत सरकार इन घटनाओं को अनावश्यक तूल नहीं देना चाहती लेकिन यदि वह बिल्कुल ही मौन रहेगी तो यह गलत होगा| यह उदासीन रवैया चीन को ज्यादती करने के लिए प्रोत्साहित करेगा| भारत सरकार को यह पता है कि हमारे पूरे अरूणाचल प्रदेश को चीन अपना हिस्सा मानता है और लद्रदाख में भी उसने लंबे-चौड़े दावे ठोक रखे हैं| यदि भारत सरकार उसका इन छोटी-मोटी घुसपैठों पर लीपा-पोती करती रहेगी तो वह प्रकारांतर से चीनी दावों को मजबूत करेगी| चीन से ज़रा-सा औपचारिक विरोध जताने में भी हमें डर क्यों लगता है ? क्या चीन युद्घ छेड़ देगा ? चीन को पता है कि यह 1962 नहीं है| भारत की कुल सैन्य-शक्ति काफी बढ़ी है और भारतीय सीमांत पर उसकी सतर्कता अपूर्व है| इसके अलावा आज का चीन अब से 45-50 साल पहले के चीन से बिल्कुल अलग है| वह दादागीरी छोड़कर बनियागीरी में लग गया है| वह दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारी राष्ट्र बनने की फि़राक में है| भारत-जैसे पड़ौसी से युद्घ मोल लेकर वह सारी दुनिया में बदनाम होना पसंद नहीं करेगा| भारत के साथ ही उसका व्यापार इस वर्ष 60 अरब डॉलर को छूनेवाला है| वह भारत के विदेश व्यापार का सबसे बड़ा भागीदार बन गया है| विश्व-व्यापार के क्षेत्र् में दुनिया के मालदार देशों की तिकड़मों के विरूद्घ उसने भारत के साथ साझा-मोर्चा भी बना रखा है| उसे पता है कि भारत के साथ युद्घ करके उसे भयंकर आर्थिक नुकसान भुगतना पड़ सकता है| वह यह भी जानता है कि अरूणाचल और लद्रदाख की निर्जन और बंजर ज़मीन के कुछ हिस्से झपट लेने से उसे कोई खास फायदा नहीं होनेवाला है| वह पहले ही भारत से बहुत बड़ा है और कुछ लाख भारतीयों को जोड़ लेने से सवा अरब के समुद्र में कौनसा छोंक लगनेवाला है ? इसके अलावा लोकतंत्र् और हिंदी के शौकीन ये भारतीय चीन के पाचन-तंत्र् को चौपट कर देंगे| इसलिए चीन हमारे सीमांत पर छोटी-मोटी चिउंटियां काटता रहता है ताकि उसका संवैधानिक दावा बना रहे|
इसी कारण चीन दलाई लामा के अरूणाचल जाने का विरोध करता है| उसका कहना है कि वह चीन का प्रदेश है, उसमें चीन का दुश्मन दलाई लामा कैसे जा सकता है ? चीन तो भारतीय प्रधानमंत्र्ी को भी अरूणाचल न जाने की सलाह दे रहा था| यह चीन की हिमाकत है| अफसोस है कि चीन की इस हिमाकत का जवाब भारत सरकार बहुत ही नरम शब्दों में देती है| क्यों देती है ? वह क्या करे ? वह तिब्बत को चीन का प्रदेश मान चुकी है| वरना वह भी चीन के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्र्ी के तिब्बत जाने का विरोध कर सकती थी| भारत सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत को चीन की जितनी जरूरत है, उतनी ही चीन को भारत की जरूरत है| यदि भारत चीन के हर पैंतरे का तुर्की-ब-तुर्की जवाब दे तो चीन क्या कर लेगा ? यदि भारत ऐसा नहीं करेगा तो धीरे-धीरे चीन दक्षिण एशिया के सभी देशों में भारत की नींव खोखली कर देगा| क्यों न कर देगा ? कौटिल्य के अनुसार तो किसी भी शक्तिशाली राष्ट्र का यह राजधर्म है|
चीन अपने राजधर्म का निर्वाह निष्ठापूर्वक कर रहा है| उसने भारत के चारों तरफ घेरा डालने की कोशिश की है| पाकिस्तान को भारत के खिलाफ खड़ा करने की जितनी लगातार कोशिश चीन ने की है, अमेरिका ने भी नहीं की| चीन की पाकिस्तान-नीति का शीत-युद्घ से कोई लेना-देना नहीं रहा| उसका तो सिर्फ एक ही सूत्र् रहा–भारत-विरोध ! चीन ने पाकिस्तान को परमाणु तकनीक और मिसाइलें दीं, हर युद्घ में भारत के विरूद्घ समर्थन दिया और अब उसने बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह भी बना दिया है| नेपाल के माओवादियों की पीठ ठोकने में चीन कोई कसर नहीं छोड़ रहा, क्योंकि वे भारत-विरोधी हैं| म्यांमार में चीन ने इतने पांव पसार लिये हैं कि रंगून की सैनिक सरकार भारत को गैस देने के लिए तैयार नहीं है| बांग्लादेश अपनी सीमा में से पाइपलाइन नहीं आने देना चाहता| श्रीलंका की सरकार को भारत से विमुख करने के लिए चीन ने वहां हन्मनतोता बंदरगाह बनाने, हथियार देने और तकनीकी सहायता के लिए अपनी थैली के मुंह खोल दिए हैं| भारत ने अफगानिस्तान को यदि 1.2 अरब डॉलर की सहायता दी है तो चीन ने 3.5 अरब डॉलर देकर तांबे की खदान खरीद ली है| रूस के सखालिन द्वीपों में निकल रहा अकूत तेल कहीं भारत के हाथ न लग जाए, चीन इस चिंता में दुबला हुआ जा रहा है| चीन भारत को सुरक्षा-परिषद का स्थायी सदस्य भी नहीं बनने देना चाहता, उसने अरूणाचल को मिलनेवाली अंतरराष्ट्रीय सहायता में भी अडंगा डालने की कोशिश की है और वह परमाणु आपूर्ति क्लब में भी भारत के विरूद्घ मोर्चा लगाए हुए है| ऐसा लगता है कि चीन पूरे एशिया का एकछत्र् दादा बनने को आमादा है| चीन की इस एकधु्रवीयता की एकमात्र् चुनौती भारत ही है, क्योंकि भारत लोकतंत्र् है, आर्थिक और सामरिक दृष्टि से समर्थ है और आजकल वह अमेरिका से भी घनिष्टता बनाए हुए है| इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखें तो सीमांत की छुट-पुट घटनाओं के अर्थ कुछ अलग ही नजर आएंगे| लेकिन इस नज़रिये के आधार पर क्या हमारा विदेश मंत्रलय कोई वैकल्पिक रणनीति बना रहा है ? वैकल्पिक रणनीति का अर्थ चीन के प्रति आक्रामक होना नहीं है लेकिन हमारी कूटनीतिक उदासीनता लंबे दौर में भारत के लिए बहुत मंहगी पड़ सकती है|
(लेखक अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रसिद्घ विशेषज्ञ हैं और अनेक बार चीन की यात्रएं कर चुके हैं)
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