Dainik Hindustan, 14 Dec 2010 : चीनी प्रधानमंत्री विन च्या पाओ (सही उच्चारण) की यह भारत-यात्रा महत्वपूर्ण है, लेकिन यह असाधारण नहीं लग रही है, क्योंकि इस माह के अंत तक दुनिया की सभी महाशक्तियों के नेता भारत आ चुके होंगे। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड केमरॉन, अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा और फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी पिछले कुछ हफ्तों में भारत आ ही चुके हैं और अगले हफ्ते रूस के राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव भी दिल्ली आ रहे हैं। भारत के लोकतंत्र और उसकी आर्थिक प्रगति ने सारे विश्व में अपनी छाप छोड़ी है। इसमें शक नहीं कि आर्थिक प्रगति की दृष्टि से भारत के मुकाबले चीन बहुत आगे है, लेकिन चीनियों को भी पता है कि यह प्रतिस्पर्धा खरगोश और कछुए की दौड़ की तरह है। इसके अलावा चीनी लोगों के मन में भारतीय लोकतंत्र के प्रति अव्यक्त सराहना का भाव भी है।
आज के भारत-चीन संबंधों का असली स्वरूप क्या है? यही स्पर्धा और सराहना का भाव! यह भाव दोनों तरफ है। चीन के प्रधानमंत्री जियाबाओ हमारे प्रधानमंत्री डॉ़ मनमोहन सिंह को अपना ‘बड़ा भाई’ कहते हैं और यह भी कहते हैं कि उनकी संगत में मुङो आनंद अनुभव होता है। उन्होंने यह भी कई बार कहा है कि पिछले दो-ढाई हजार साल के इतिहास में भारत-चीन संबंध 99.9 प्रतिशत मधुर रहे हैं। सिर्फ .1 प्रतिशत ठीक नहीं रहे यानी 1962। चीन की जनता को तो ठीक से यह पता भी नहीं कि 1962 में क्या हुआ था? सच्चाई तो यह है कि चीन के दूर-दराज के गांवों में मैंने लोगों को यह कहते हुए कई बार सुना है कि भारत तो हमारा ‘गुरु देश’ है। यदि भगवान हमें अगला जन्म दे तो हमें शाक्य मुनि (बुद्ध) के देश में पैदा करे।
इसके अलावा आज का चीन भी महसूस करता है कि वह भारत की उपेक्षा नहीं कर सकता। भारत का लोकतंत्र अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी महाशक्तियों को अपनी ओर खींचता है। यदि अमेरिका आदि का सहयात्री भारत बन गया तो एशिया में चीन के लिए नया सिरदर्द खड़ा हो जाएगा। भारत भी चीन की उपेक्षा नहीं कर सकता, क्योंकि चीन न केवल उसका पड़ोसी है बल्कि उसके समस्त पड़ोसी राष्ट्रों का भी पड़ोसी है।
भारत-चीन व्यापार जितनी तेजी से बढ़ रहा है, उतनी तेजी से दुनिया के किसी भी देश का व्यापार चीन के साथ नहीं बढ़ रहा है। 20 साल पहले वह तीन बिलियन डॉलर भी नहीं था, अब 20 साल में वह 20 गुना बढ़कर 60 बिलियन डॉलर हो गया है। जियाबाओ जब पिछली बार भारत आए थे तो उन्होंने कहा था कि 2010 तक यदि यह भारत-चीन व्यापार 30 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाए तो क्या कहने? अब यह उनकी आशा से दोगुना हो गया है। चीन का व्यापार सारी दुनिया के साथ इतना अधिक है कि भारत का स्थान तो दसवां है। दोनों देश चाहते हैं कि यह स्थान दूसरे या तीसरे नंबर पर आ जाए, लेकिन यह तभी हो सकता है जबकि दोनों अपने पारस्परिक राजनीतिक और सामरिक संदेहों को दूर करें और साथ ही द्विपक्षीय व्यापार का संतुलन ठीक करें। इस समय पलड़ा चीन की तरफ काफी झुका हुआ है। भारत-चीन व्यापार जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, यदि वही रफ्तार कायम रही तो दुनिया के इन दो सबसे बड़े देशों का व्यापार भी सबसे बड़ा हो सकता है। व्यापक और पारस्परिक निवेश बढ़ाने के ठोस उपाय इस यात्रा के दौरान जरूर ढूंढ़े जाने चाहिए। इस समय चीन में लगभग 250 भारतीय कंपनियां काम कर रही हैं, लेकिन उनका और उनके चीनी भागीदारों का ध्यान स्वास्थ्य-सेवा, दूर संचार, ऊर्जा और बुनियादी ढांचों पर जाए तो गंतव्य की प्राप्ति असंभव नहीं है।
पारस्परिक-आर्थिक संबंध तभी सरपट दौड़ सकते हैं, जबकि चीन भारत को अपना प्रतिद्वंद्वी समझना बंद करे। भारत के प्रति प्रतिद्वंद्विता का भाव यदि चीन के हृदय में नहीं है तो वह पाकिस्तान के संरक्षक की भूमिका क्यों अदा करता है? उसने 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय भारत को जो धमकियां दी थीं, उन्हें भारत अब भूल सकता है, लेकिन अब भी वह पाक द्वारा कब्जाए हुए कश्मीर के हिस्से में अपनी सैन्य-गतिविधियां जारी रखे हुए है। उसने पाकिस्तान द्वारा 1963 में भेंट किया हुआ कश्मीरी इलाका तो अपने पास दबा ही रखा है, आजकल उसने भारत के जम्मू-कश्मीर को भी भारत का हिस्सा मानना बंद कर दिया है। हमारे जम्मू-कश्मीर का कोई व्यक्ति चीन जाता है तो उसका वीजा उसके पासपोर्ट पर छापा नहीं जाता। अलग से कागज पर मुहर लगा दी जाती है। यदि इस यात्रा के दौरान चीनी प्रधानमंत्री इस कदम को वापस न लें तो भारत को भी सख्ती से पेश आना चाहिए। चीन अगर हमारे एक प्रांत को हमारा नहीं समझता तो हम उसके दो प्रांतों को उसका न समझों। हम भी तिब्बत और सिकियांग, दोनों प्रांतों के नागरिकों के पासपोर्टो पर ठप्पा लगाना बंद कर दें।
क्या वजह है कि सुरक्षा-परिषद में भारत की स्थायी सीट के सवाल पर दूसरी महाशक्तियों के मुकाबले चीन पिछड़ गया है। क्या चीन को याद नहीं कि उसे संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवेश दिलाने के लिए अगर सबसे ज्यादा वकालत किसी देश ने की थी तो, भारत ने ही की थी। चीनी प्रधानमंत्री से यह भी पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने अरुणाचल के लिए आने वाली विश्व-बैंक की मदद को क्यों रुकवाया? हमारे प्रधानमंत्री की अरुणाचल-यात्रा पर आपत्ति क्यों की? सीमा-वार्ता जब तक कोई बात तय नहीं कर देती, तब तक चीन संयम क्यों नहीं बरत सकता? इसी प्रकार चीन से पूछा जाना चाहिए कि वह नेपाल के कांठमांडो तक रेल किसलिए ला रहा है? श्रीलंका, म्यांमार और बांग्लादेश में बंदरगाह क्यों बना रहा है? क्या वह हिंद महासागर को चीनी महासागर बनाना चाहता है? यदि ऐसे ही काम वियतनाम, कोरिया और लाओस आदि में भारत करे तो उसे कैसा लगेगा? भारत के पड़ोस में यदि वह कुछ अच्छे काम करना चाहता है तो उन्हें वह भारत की सदिच्छा के साथ क्यों नहीं करता? भारत और चीन यदि एक-दूसरे को घेरने का काम करेंगे तो यह एशिया का दुर्भाग्य होगा। ताइवान के साथ जैसा तटस्थ संबंध भारत रखता है, चीन वैसा पाकिस्तान के साथ क्यों नहीं रख सकता? यदि ये दोनों महान राष्ट्र महान सभ्यताओं की तरह एक-दूसरे से व्यवहार करें तो अगले एक दशक में ये विश्व राजनीति का नक्शा बदल सकते हैं।
लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष
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