Dainik Bhasakra, 18 June 2004 : विदेश मंत्री बनते ही नटवरसिंह के बयानों ने जितने विवाद खड़े कर दिए, अब तक किसी अन्य विदेश मंत्री के बयानों ने नहीं किए| सिर्फ विदेश में ही नहीं, अपने देश में भी विवाद खड़े हो गए| विदेश मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय ऐसे मंत्रालय हैं, जिनके बारे में विवाद कम ही होते हैं, क्योंकि सरकारें बदल जाने के बावजूद विदेश और रक्षा नीतियॉं नहीं बदलती हैं| इसके अलावा यह भी माना जाता है कि इन दोनों मंत्रालयों में नीति का निर्धारण वास्तव में मंत्री कम और अफसर ज्यादा करते हैं| मंत्री तो केवल अफसरों का प्रवक्ता होता है| इसीलिए हर बात बहुत ही नाप-तोल कर कही जाती है| उसमें विवाद की गुंजाइश कम ही है लेकिन नटवरसिंह अपवाद हैं| नटवरसिंह ऐसे विदेश मंत्री नहीं हैं, जिन्हें अफसर पट्टी पढाऍं| वे विदेश नीति और विदेश मंत्रालय की रग-रग से वाकिफ हैं| एक अच्छे अफसर की तरह उन्होंने विदेश मंत्रालय में लगभग तीस साल बिताए हैं| वे मंत्रालय के सचिव, राजदूत और विदेश राज्य मंत्री भी रहे हैं| उन्हें करते की विद्या हासिल है और पढ़ते की भी ! अफसरों और नेताओं के विपरीत वे पढ़ाकू व्यक्ति भी हैं| जिसकी पृष्ठभूति नटवरसिंह जैसी हो, ऐसा कोई व्यक्ति अब तक भारत का विदेश मंत्री नहीं बना| फिर भी क्या वजह है कि मंत्री बनते ही नटवरसिंह विवादग्रस्त हो गए?
नटवरसिंह का कहना है कि उनके बयान को अधूरा छापा गया| उन्होंने सिर्फ शिमला समझौत की बात नहीं कही| उन्होंने शिमला के बाद हुए समझौतों, बयानों और एलानों को भी भारत-पाक वार्ता का आधार बताया था लेकिन परवेज़ मुशर्रफ अधकती धोती ले उड़े| उन्हें पता करना चाहिए था, अपने राजदूत से या हमारे राजदूत से ! सिर्फ अखबार या टी वी देखकर वाग्युद्घ करना कहॉं तक ठीक है? नटवरजी का यह तर्क बिल्कुल सही है लेकिन मंत्री होने के नाते क्या सतर्क रहना उनका कर्तव्य नहीं है? किस अखबार में उनका बयान कैसा छपा है, उसमें क्या तोड़-मरोड़ हुआ है और जैसा छपा है, उसकी क्या प्रतिक्रया हो सकती है – क्या यह सब देखना किसी जिम्मेदार मंत्री का काम नहीं है, खासतौर से तब जबकि आजकल दूर-दराज़ के गॉंवों से निकली खबरें भी लंदन और न्यूयॉर्क तक कुछ ही मिनिटों में पहॅुंच जाती हैं| मंत्री को इतने सहायक दिए जाते हैं और मंत्रालय के योग्य अफसर सदा उनकी सेवा में हाजिर रहते हैं कि इस तरह की गलतफहमी पैदा हो, उसके पहले ही उसे निर्मूल किया जाना चाहिए| यदि नटवरजी अपने बयान को दूसरे दिन सुबह ही ठीक करवा देते तो तीसरे दिन मुशर्रफ को मॅुंह खोलने की जरूरत क्यों पड़ती? यह तो बयानों का मामला है, कुछ स्पष्टीकरण और कुछ टेलिफोनबाजी से काबू आ गया| कल्पना करें कि यह मामला परमाणु बमों का होता या प्रक्षेपास्त्रों का होता तो क्या होता? आधे घंटे की मोहलत भी नहीं मिलती| यह ठीक है कि मुशर्रफ और उनके विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी जल्दबाज़ी के दोषी हैं लेकिन हमारी व्यवस्था ज़रा चुस्त होनी चाहिए, इसमें क्या शक है?
हमारे विदेश मंत्री की किसी बात से पाकिस्तानी नाराज हो जाऍं तो भारत में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता लेकिन विदेश नीति के कुछ मुद्दे ऐसे हैं, जिन्हें भारत के राजनीतिक दलों ने अपने जीवन-मरण का सवाल बना रखा है| संसोया और जनसंघ के लिए कभी तिब्बत का सवाल एकदम ज्वलनशील हुआ करता था| आजकल एराक़ का सवाल कम्युनिस्ट पार्टी के लिए आग का गोला बना हुआ है| जैसे ही वाशिंगटन डी.सी. में नटवर ने कहा कि संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद्र के प्रस्ताव के कारण स्थिति में परिवर्तन हो गया है और भारत अपनी फौज एराक़ भेजने पर विचार करेगा, नई दिल्ली में तूफान आ गया| कम्युनिस्ट पार्टियों और भाजपा ने जमकर प्रहार किया| उन्होंने नटवर को संसद के प्रस्ताव की याद दिलाई| कम्युनिस्टों ने कहा कि अमेरिकी आततायी हैं| उनके साथ भारत की फौज कंधे से कंधा मिलाकर कैसे काम करेगी? कुछ विश्लेषकों ने पूछ डाला कि नटवरसिंह अपनी निजी राय बघार रहे हैं या भारत सरकार की नीति का प्रतिपादन कर रहे हैं? हमला इतना तेज हुआ कि उन्हें वाशिंगटन डी.सी. से ही लंबी-चौड़ी सफाई पेश करनी पड़ी|
वास्तव में सफाई की जरूरत ही नहीं थी, क्योंकि नटवरसिंह के बयान को यदि उनके आलोचकों ने शब्दश: पढ़ा होता तो उन्हें गलतफहमी होती ही नहीं| उन्होंने यह नहीं कहा कि भारत अपनी फौज एराक़ भेजेगा| उन्होंने केवल यह कहा कि सुरक्षा परिषद्र के प्रस्ताव के कारण स्थिति बदल गई है| अगर अमेरिकी विदेश मंत्री के मेहमान रहते हुए वे इतना भी नहीं कहते तो क्या करते? दोनों विदेश मंत्री पत्रकारों से एक साथ बात कर रहे थे| एक सवाल के जवाब में नटवर ने यह भी कहा कि हमारी संसद ने फौज भेजने के विरुद्घ प्रस्ताव पारित किया था| उन्होंने अमेरिकियों को बताया कि उनकी गठबंधन-सरकार के कई भागीदार फौज भेजने के विरुद्घ हैं| इसके अलावा उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उनसे फौज भेजने का अनुरोध किसी ने भी नहीं किया है| इन सब किन्तुओं-परन्तुओं के बावजूद विपक्ष की बौखलाहट निराधार मालूम पड़ती है लेकिन अगर विपक्षी हल्ला न मचाऍं तो क्या करें? सरकार की कारगुजारियों पर ताली बजाने के लिए तो वे विपक्ष में नहीं बैठते !
इसी तरह नटवरसिंह के इस बयान पर भी पूर्व विदेश मंत्र्िायों ने आपत्ति की है कि वे भारत, चीन और पाकिस्तान से एक ही प्रकार के परमाणु सिद्घांत की अपेक्षा कर रहे हैं| इसमें गलत क्या है? यदि तीनों परमाणुसम्पन्न राष्ट्र एक समान परमाणु-नीति पर सहमत हो जाऍं तो क्षेत्रीय सुरक्षा तो अक्षुण्ण हो ही जाएगी, विश्व परमाणु निरस्त्रीकरण का मार्ग भी प्रशस्त होगा| इसमें शक नहीं कि फिलहाल तीनों राष्ट्रों के परमाणु सिद्घांत अस्पष्ट और असमान हैं लेकिन यदि उनमें पारस्परिक भरोसमंदी के कदम उठाए जा रहे हैं तो मूल नीति पर भी विचार क्यों नहीं किया जाए? जाहिर है कि इस तरह के दूरंदेशीभरे सवाल उन लोगों को अटपटे जरूर लगेंगे जो विदेश मंत्री वगैरह तो रह चुके हैं लेकिन विदेश नीति चिन्तन जिनका अपना विषय नहीं है| वे संयोग से विदेश मंत्री भी रहे| वे कपड़ा मंत्री या तेल मंत्री भी हो सकते थे| नटवरसिंह जैसे विदेश नीति के पंडित से उम्मीद की जाती है कि वे समान परमाणु सिद्घांत ही नहीं, एशियाई साझा बाजार, एशियाई मुद्रा कोष, एशियाई व्यापार संगठन आदि जैसे सपनों को भी बराबर उछालते रहें ताकि इन मुद्दों को आम जनता का समर्थन मिले और इस समर्थन का दबाव एशिया की सरकारों पर पड़े|
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