Dainik Bhaskar, 23 April 2010 : शशि थरूर और ललित मोदी तो बीमारी के ऊपरी लक्षण हैं| असली बीमारी तो खुद क्रिकेट ही है| क्रिकेट खेल नहीं है, बीमारी है| यह कैसा खेल है, जिसमें 11 खिलाडि़यों की टीम में से सिर्फ एक खेलता है और शेष 10 बैठे रहते हैं ? विरोधी टीम के बाकी 11 खिलाड़ी खड़े रहते हैं| उनमें से भी एक रह-रहकर गेंद फेंकता है| कुल 22 खिलाडि़यों में 20 तो ज्यादातर वक्त निठल्ले बने रहते हैं, ऐसे खेल से कौनसा स्वास्थ्य लाभ होता है ? पांच-पांच दिन तक दिन भर चलनेवाला यह खेल क्या खेल कहलाने के लायक है ? जिंदगी में खेल की भूमिका क्या है ? काम और खेल के बीच कोई अनुपात होना चाहिए या नहीं ? सारे काम-धाम छोड़कर अगर आप सिर्फ खेल ही खेलते रहें तो खाएंगे क्या ? जिंदा कैसे रहेंगे ? क्रिकेट का खेल बि्रटेन में चलाया ही उन लोगों ने था, जिन्हें कमाने-धमाने की चिंता नहीं थी| दो सामंत खेलते थे| एक ‘बेटिंग’ करता था और दूसरा ‘बॉलिंग’ ! शेष नौकर-चाकर पदते थे| दौड़कर गेंद पकड़ते थे और उसे लाकर ‘बॉलर’ को देते थे| यह सामंती खेल है| अय्रयाशों और आरामखोरों का खेल ! इसीलिए इस खेल के खिलौने भी खर्चीले होते हैं| जैसे रात को शराबखोरी मनोरंजन का साधन होती है, वैसे ही दिन में क्रिकेट फालतू वक्त काटने का साधन होता है| दो आदमी खेलें और 20 पदें, इससे बढ़कर अहं की तुष्टि क्या हो सकती है ? यह मनोरंजनों का मनोरंजन है| नशों का नशा है| असाध्य रोग है|
अंग्रेजों का यह सामंती रोग उनके गुलामों की रग-रग में फैल गया है| यदि अंग्रेज के पूर्व-गुलाम राष्ट्रों को छोड़ दें तो दुनिया का कौनसा स्वतंत्र् राष्ट्र है, जहां कि्रकेट का बोलबाला है ? ‘इंटरनेशनल क्रिकेट कौंसिल’ के जिन दस राष्ट्रों को अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने का अधिकार है, वे सब के सब अंग्रेज के भूतपूर्व गुलाम-राष्ट्र हैं| चार तो अकेले दक्षिण एशिया में हैं – भारत, पाक, बांग्लादेश और श्रीलंका ! कोई यह क्यों नहीं पूछता कि इन दस देशों में अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, फ्रंास और जापान जैसे देशों के नाम क्यों नहीं हैं? क्या ये वे राष्ट्र नहीं हैं, जो ओलम्पिक खेलों में सबसे ज्यादा मेडल जीतते हैं? यदि क्रिकेट दुनिया का सबसे अच्छा खेल होता तो ये समर्थ और शक्तिशाली राष्ट्र इसकी उपेक्षा क्यों करते ? क्रिकेट का सौभाग्य तो यह है कि इस खेल में गुलाम अपने मालिकों से भी आगे निकल गए हैं| क्रिकेट के प्रति भूतपूर्व गुलाम राष्ट्रों में वही अंधभक्ति है, जो अंग्रेजी भाषा के प्रति है| अंग्रेजों के लिए अंग्रेजी उनकी सिर्फ मातृभाषा और राष्ट्रभाषा है लेकिन ‘भद्र भारतीयों’ के लिए यह उनकी पितृभाषा, राष्ट्रभाषा, प्रतिष्ठा-भाषा, वर्चस्व-भाषा और वर्ग-भाषा बन गई है| अंग्रेजी और क्रिकेट हमारी गुलामी की निरंतरता के प्रतीक हैं|
जैसे अंग्रेजी भारत की आम जनता को ठगने का सबसे बड़ा साधन है, वैसे ही क्रिकेट खेलों में ठगी का बादशाह बन गया है| क्रिकेट के चस्के ने भारत के पारंपरिक खेलों, अखाड़ों और कसरतों को हाशिए में सरका दिया है| क्रिकेट पैसा, प्रतिष्ठा और प्रचार का पर्याय बन गया है| देश के करोड़ों ग्रामीण, गरीब, पिछड़े और अल्पसंख्यक लोग यह मंहगा खेल स्वयं नहीं खेल सकते लेकिन देश के उदीयमान मध्यम वर्ग ने इन लोगों को भी कि्रकेट के मोह-जाल में फंसा लिया है| आई पी एल जैसी संस्था के पास सिर्फ तीन साल में अरबों रूपए कहां से इकट्रठे हो गए ? उसने टी वी चैनलों, रेडियो और अखबारों का इस्तेमाल बड़ी चतुराई से किया| भारतीयों के दिलो-दिमाग में छिपी गुलामी की बीमारी को थपकियां दीं| जैसे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भोले लोग अपने बच्चों को अपना पेट काटकर पढ़ाते हैं, वैसे ही लोग कि्रकेट-मैचों के टिकिट खरीदते हैं, टीवी से चिपके बैठे रहते हैं और खिलाडि़यों को देवताओं का दर्जा दे देते हैं| कि्रकेट-मैच के दिनों में करोड़ों लोग जिस तरह निठल्ले हो जाते हैं, उससे देश का कितना नुकसान होता है, इसका हिसाब किसी ने तैयार किया है, क्या ? कि्रकेट-मैच आखिरकर एक खेल ही तो है, जो घोंघा-गति से चलता रहता है| यह कोई रामायण या महाभारत का सीरियल तो नहीं है| ये सीरियल भी दिन भर नहीं चलते| घंटे-आधे-घंटे से ज्यादा नहीं ! कोई लोकतांत्र्िक सरकार अपने देश में धन और समय की इस सार्वजनिक बर्बादी को कैसे बर्दाश्त करती है, समझ में नहीं आता|
समझ में कैसे आएगा ? हमारे नेता जैसे अंग्रेजी की गुलामी करते हैं, वैसे ही वे कि्रकेट के पीछे पगलाए रहते हैं| अब देश में कोई राममनोहर लोहिया तो है नहीं, जो गुलामी के इन दोनों प्रतीकों को खुली चुनौती दे| अब नेताओं में होड़ यह लगी हुई है कि कि्रकेट के दूध पर जम रही मोटी मलाई पर कौन कितना हाथ साफ करता है| बड़े-बड़े दलों के बड़े-बड़े नेता कि्रकेट के इस दलदल में बुरी तरह से फंसे हुए हैं| कि्रकेट और राजनीति के बीच जबर्दस्त जुगलबंदी चल रही है| दोनों ही खेल हैं| दोनों के लक्ष्य भी एक-जैसे ही हैं| सत्ता और पत्ता ! सेवा और मनोरंजन तो बस बहाने हैं| कि्रकेट ने राजनीति को पीछे छोड़ दिया है| पैसा कमाने में कि्रकेट निरंतर चौके और छक्के लगा रहा है| उसकी गेंद कानून के सिर के ऊपर से निकल जाती है| खेल और रिश्वत, खेल और अपराध, खेल और नशा, खेल और दुराचार तथा खेल और तस्करी एक-दूसरे में गड्रडमड्रड हो गए हैं| ये सब कि्रकेट की रखैलें हैं| इन रखैलों से कि्रकेट को कौन मुक्त करेगा ? रखैलों के इस प्रचंड प्रवाह के विरूद्घ कौन तैर सकता है ? जाहिर है कि यह काम हमारे नेताओं के बस का नहीं है| वे नेता नहीं हैं, पिछलग्गू हैं, भीड़ के पिछलग्गू ! इस मर्ज की दवा पिछलग्गुओं के पास नहीं, भीड़ के पास ही है| जिस दिन भीड़ यह समझ जाएगी कि कि्रकेट का खेल बीमारी है, गुलामी है, सामंती है, उसी दिन भारत में कि्रकेट को खेल की तरह खेला जाएगा| भारत में कि्रकेट किसी खेल की तरह रहे और अंग्रेजी किसी भाषा की तरह तो किसी को कोई आपत्ति क्यों होगी ? लेकिन खेल और भाषा यदि आजाद भारत की औपनिवेशिक बेडि़यॉं बनी रहें तो उन्हें फिलहाल तोड़ना या तगड़ा झटका देना ही बेहतर होगा|
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