NavBharat Times, 10 March 2004 : आखिर राजनीति में कोई क्यों जाता है? यह सवाल अगर आप किसी भी राजनेता से पूछें तो उसका जवाब तपाक से आएगा कि देशभक्ति के लिए, लोक-सेवा के लिए| सबको पता है कि असलियत क्या है| अगर ऐसा है तो बेचारे फिल्मी सितारों ने क्या बिगाड़ा है| उनके राजनीति में आने पर इतनी उंगलियॉं क्यों उठ रही हैं| जितने और जैसे गुप्त इरादे नेताओं के होते हैं, वैसे तो फिल्मी सितारों के नहीं होते| तमिलनाडु और आंध्र के अलावा फिल्मी सितारे जहॉं-जहॉं भी राजनीति में आए, वे ‘हीरो’ से ‘एक्स्ट्रा’ बनते गए| फिल्म में हीरो लेकिन राजनीति में एक्स्ट्रा ! ज़रा देखें, दिलीपकुमार, अमिताभ बच्चन और सुनील दत्त की तरफ ! शत्रुघ्न सिन्हा और राज बब्बर की भी हैसियत कितनी बढ़ी| वे ऊपर चढ़े या नीचे गिरे? अमिताभ तो उल्टे पॉंव भागे| अब जो सितारे राजनीति में थोकबंद पधार रहे हैं उनमें से कितने लोग कितने दिन टिकेंगे, यह अभी देखना है|
सितारे टिकें या खिसक जाऍं, असली सवाल यह है कि देश के दोनों मुख्य राजनीतिक दलों में सितारों को लेने की होड़ क्यों मची हुई है? इस घटना की राजनीतिक फलश्रुति क्या होगी? सितारों के स्वागत के मूलत: तीन कारण दिखाई पड़ते हैं| पहला तो यह कि भारतीय राजनीति से विचारधारा की विदाई हो चुकी है| अब किसी भी दल में कोई भी शामिल हो सकता है| न शामिल होनेवाले को सोचने-संकोचने की जरूरत है न शामिल करनेवाले दल को| भाजपा में जानेवाली विख्यात तारिका को यह जानना जरूरी नहीं कि श्यामाप्रसाद मुखर्जी या जनसंघ किस चिडि़या का नाम रहा है और कॉंग्रेस में भर्ती होनेवाले सितारे को यह पता नहीं कि आपात्काल किसने थोपा था और इंदिरा गॉंधी के पति का नाम क्या था| दूसरे शब्दों में विचारधारा तो बड़ी बात है, सितारों का आगमन राजनीति से विचार के भी अन्त का सूचक है| यों भी आज की राजनीति में बड़े-बड़े नेता क्या हैं? विकास-पुरुष हैं, लौह-पुरुष हैं, प्रकाश-पुरुष हैं| विचार-पुरुष तो कोई नहीं है| जब विचार ही नहीं है तो विचारधारा कहॉं से आएगी? क्या हमारे राजनीतिक दलों में कोई नेता ऐसा भी है, जो राष्ट्र की किसी समस्या पर आधा घंटा भी बोल सके और अपना मौलिक विचार बता सके| सभी दलों के नेता या तो अफसरशाहों पर निर्भर हैं या अपनी-अपनी पार्टियों के बौद्घिक गिरोहों पर निर्भर हैं| ये ही लोग उन्हें भाषण लिखकर दे देते हैं और वे हाव-भाव सहित उन्हें इस तरह पढ़ देते हैं, जैसे कि वे उनके अपने ही विचार हों| जैसे सिनेमा में अभिनेता डायलॉग मारते हैं, वैसे ही नेता अपने भाषण जमा देते हैं| अब कहीं नेहरू, लोहिया, जयप्रकाश, डांगे, नम्बूदिरिपाद, दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोग दिखाई नहीं पड़ते| जब नेता ही बौद्घिक बौने हैं तो अभिनेताओं के बौद्घिक दीवालियेपन पर ऑंसू बहाने में कौनसी तुक है| इसीलिए राजनीति में फिल्मी हस्तियों का आगमन किसी उलट-धारा का संकेत नहीं है| बल्कि वे बौद्घिक बौनेपन की बहती गंगा के सहज-प्रवाह का प्रतीक हैं|
फिल्मी सितारों के राजनीति-प्रवेश का दूसरा कारण फुलझड़ी-जैसा है| अभी जली, अभी बुझी ! चार दिन की चॉंदनी और फिर अॅंधेरी रात| एक-दो दिन प्रचार की फुलझडि़यॉं छूटती हैं और फिर ये सितारे राजनीति के कूड़ेदान में जा समाते हैं| यदि चुनाव का दौर होता है तो उनका इस्तेमाल भीड़जुटाऊ भोंपुओं की तरह हो जाता है| जैसे गॉंवों में कथावाचक लोग व्याख्यान के पहले भजनीकों और नचैयों को खड़ा कर देते हैं, वही भूमिका नेतागण हमारे सितारों को दे देते हैं| इसका एक गंभीर अर्थ यह भी है कि आजकल नेताओं को सुनने भीड़ नहीं उमड़ती| पहले नेताओं को सुनने और उससे भी ज्यादा देखने के लिए भीड़ उमड़ा करती थी| वह श्रद्घा अब खत्म हो चुकी है| दर्शन के लायक उनमें अब कुछ रहा नहीं| जबकि फिल्मी सितारे और कुछ नहीं तो कम से कम दर्शनीय तो होते ही हैं| इसके अलावा सितारों के प्रवेश को उछालकर लोगों को यह भी बताया जाता है कि जीत का प्रवाह किधर बह रहा है| नेतागण सितारों का इस्तेमाल अपनी तोप के भूसे की तरह करते हैं|
सितारे बहुत सस्ते पड़ते हैं| बहुत कम सितारे शत्रुघ्न सिन्हा की तरह ऑंख की किरकिरी बनते हैं| वे तो अल्लाह की गाय बने रहते हैं| न तो उनका कोई जनाधार होता है, न वे पार्टी-गुटबाजी कर पाते हैं और न ही उनके पास कोई टेढ़ा विचार होता है| कोई विचार-शून्य हो, संगठन-शून्य हो, शक्ति-शून्य हो लेकिन लोकपि्रयता से भरा-पूरा हो तो उससे बढि़या सौदा क्या हो सकता है? ऑंख के अंधे और गॉंठ के पूरे ! वे किसी नेता के लिए कभी कोई चुनौती नहीं बन सकते|इसीलिए हमारे राजनीतिक दल आजकल सस्ती कठपुतलियों के संग्रह में लगे हुए हैं| इन कठपुतलियों के नाच पर जनता तो ताली बजाती है लेकिन पार्टियों के तपे-तपाए धीर-गंभीर कार्यकर्ता अंदर ही अंदर कुढ़ते रहते हैं| वे जानते हैं कि उन्हें दुलत्तियॉं पड़ रही हैं लेकिन वे क्या करें? दुधारू गाय की दुलत्तियॉं खानी ही पड़ती हैं| नेता और कार्यकर्ता, दोनों ही मजबूर हैं, अभिनेताओं को सिर पर बिठाने के लिए ! वे दिन लद गए, जब अपने प्रारंभिक दौर में प्रधानमंत्री इंदिरा गॉंधी त्र्िागुण सेन, वी.के.आर.वी. राव, अशोक मेहता जैसे विद्वानों तथा अन्य अनेक अर्थशास्त्र्िायों और वैज्ञानिकों को अपने मंत्र्िामंडल में शामिल करने के लिए लालायित रहती थीं और राममनोहर लोहिया देश के कोन-कोने में घूम-घूमकर प्रतिभाशाली नौजवानों, विशेषज्ञों और विद्वानों को अपनी पार्टी में लाने को आतुर रहते थे| उन दिनों राजनीति जोखिम थी| अब वह बीमा है| खला का घर है| जो चाहे सो पैठे ! नेता किसी को लाने की गज़र् क्यों करे और क्यों किसी को आने से रोके? जो भी लूट सके, वह लूटे !
यदि नेता फिल्मी सितारों का अपने लिए दोहन करते हैं तो फिल्मी सितारे नेताओं का शोषण करने से बाज़ नहीं आते| उनके लिए राजनीति कवच का काम करती है| फिल्मडम में कर-चोरी से कौन बच सकता है और अपराध की छाया भी अनेक सितारों के सिर पर डोलती रहती है| दो-चार हफ्ते चुनाव-सभाओं मे डायलॉग मारने और कूल्हे मटकाने से अगर ये बलाऍं टलती हैं तो सौदा सस्ता ही है| याने सौदा दोनों तरफ से सस्ता है| इसीलिए राजनीति और फिल्म का घालमेल आजकल जमकर चल रहा है| दोनों पक्ष उतार पर हैं| दोनों का अवमूल्यन हो रहा है| दोनों का मिलन समान सतह पर हो रहा है| यदि फिल्मी सितारे सचमुच अपनी कला के चरमोत्कर्ष पर होते तो क्या वे राजनीति में आते? राजनीति उन्हें क्या दे देगी? जैसे फिल्मों में शिखर उनके लिए सपना है, वैसे ही राजनीति में भी वह उनकी कल्पना के परे रहेगा| उन्हें न सत्ता मिलेगी और न अमरता ! बि्रटेन में कितने प्रधानमंत्री और अमेरिका में कितने राष्ट्रपति आए और गए? उन्हें अब कौन जानता है? उनमें से दर्जन भर के नाम गिनाना भी मुश्किल है| जितने नाम गिने जाते हैं, उन्हें भी अब कौन पूछता है लेकिन उनके समकालीन विचारकों, कवियों, गायकों और कलाकारों की रचनाओं से आज भी दुनिया की महफिलें गूॅंजती रहती हैं| हमारे फिल्मी सितारे अपने ‘स्वधर्म’ की चादर के बाहर पॉंव फैला रहे हैं तो वह अकारण ही नहीं है| हीनयान की सवारी वे यों ही नहीं कर रहे हैं| फिल्मों में तो अब भी उन्हें शायद कोई बड़ा रोल मिल सकता है लेकिन राजनीति में उनकी हैसियत कठपुतलियों से ज्यादा क्या होगी, यह उन्हें पता है| फिर भी वे राजनीति में घुसे जा रहे हैं, क्योंकि वह खाला का घर बन चुकी है|
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