दिल्ली उच्च न्यायालय के पास हुए विस्फोट ने एक बार फिर भारत की दुखती रग पर उंगली रख दी है| संसद या उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय कोई साधारण बाजार या भीड़भरे रेल्वे स्टेशन नहीं हैं| ये भारतीय राष्ट्र-राज्य के स्नायु-केंद्र हैं| अगर इन स्थानों की रक्षा करने में भी हम असमर्थ हैं तो भारत मे राज्य और सरकार के होने का ही क्या अर्थ रह जाता है ?
लाखों पुलिसवालों और फौजियों का आखिर उपयोग क्या है? इन संगठनों पर रोज़ खर्च होनेवाले करोड़ों रूपयों का औचित्य यह सरकार कैसे सिद्घ करेगी ? सरकार का गुप्तचर विभाग अक्सर सोते हुए क्यों पकड़ा जाता है ? क्या हम अमेरिका और इस्राइल-जैसे राष्ट्रों से कोई सबक लेंगे? दस साल होने को आए अमेरिका में आतंकवाद की कोई दुर्घटना दुबारा नहीं घटी| आतंकवादियों ने कोई कसर नहीं उठा रखी थी लेकिन वे पहले ही पकड़े गए| पिछले दस वर्षों में अमेरिका पर कोई परिंदा भी पर नहीं मार सका| अमेरिका कोई छोटा-मोटा देश नहीं है| आकार में वह भारत से तीन गुणा बड़ा है और उसकी जनसंख्या 30 करोड़ से भी ज्यादा है| ऐसा भी नहीं है कि अमेरिका के सभी लोग यूरोपीय मूल के गोरे लोग हैं| वहां अफ्रीकी, एशियाई और लातीनी मूल के भी करोड़ों लोग रहते हैं| उन देशों के भी लाखों लोग वहां रहते हैं, जो आतंकवाद के जनक और पोषक हैं| इसके बावजूद अमेरिका ने अपने यहां से आतंकवाद को लगभग उखाड़ फेंका है|
क्या वजह है कि अपने आप को क्षेत्रीय महाशक्ति कहनेवाले भारत को दो-दो कौड़ी के आतंकवादियों के सामने आए दिन घुटने टेकने पड़ते हैं ? इसका मूल कारण तो यह है कि हमारी सरकारें सबसे पहले अपनी सुरक्षा पर ध्यान देती हैं| आम जनता उनकी प्राथमिकता नहीं है| दिल्ली-जैसी राजधानियों में पुलिस और गुप्तचर विभाग का मुख्य काम ‘अति महत्वपूर्ण लोगों’ की रक्षा ही है| आम आदमी जिए या मरे, इसकी उन्हें कोई चिंता नहीं है| कुछ भी हो जाए, आम आदमी उनका क्या बिगाड़ लेगा? सरकार को तो कोई छू भी नहीं सकता| मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए लोग इस्तीफा तक नहीं देते| उन्हें सजा मिलना तो बहुत दूर की बात है| उन्हें सजा कौन दिलवा सकता है? कानून में वैसा कोई प्रावधान नहीं है और विपक्ष की कुर्सियों पर लदे नेतागण उनके मौसरे भाई हैं| जब वे सत्ता में होते हैं तो उनका बर्ताव भी वैसा ही होता है| किसी भी हत्याकांड के बाद निंदा-अभियान चलाकर विपक्ष भी छुट्टी पा लेता है| परनाला फिर वहीं बहने लगता है| अस्पताल पहुंचनेवाले नेताओं को आम जनता ने जिस बुरी तरह धिक्कारा है, उससे क्या वे कोई सबक लेंगे?
दिल्ली उच्च न्यायालय में यह पहला विस्फोट नहीं हुआ है| मई में भी हो चुका है| इसके पहले भी पुणे, मुंबई, दिल्ली आदि कई स्थानों पर खून की होलियाँ खेली गई हैं| लेकिन हमारा गुप्तचर-विभाग अभी तक एक भी सुराग नहीं खोज सका है| क्यों ? क्योंकि उसकी अपनी और उसके ‘स्वामियों’ की नौकरियॉं सुरक्षित हैं| यदि हर विस्फोट के बाद कुछ नौकरियॉं भी उड़ जाएं तो शायद विस्फोटों की साजिशों पर से कुछ पर्दा उठने लगे| अपराध की तह तक पहुंचना और अपराधियों को पकड़ना तो बहुत दूर की कौड़ी है, अपराधों की रोक-थाम के लिए जो न्यूनतम प्रबंध किया जाना चाहिए, उस पर भी कोई ध्यान नहीं देता| दिल्ली उच्चतम न्यायालय के परिसर में न तो ‘मेटल डिटेक्टर’ काम कर रहा था ओर न ही ‘सीसीटीवी’! महा-तकनीक के इस युग में अंतरिक्ष में बैठकर किसी बुढि़या के बालों को भी गिना जा सकता है लेकिन चार किलो के बमवाले सूटकेस को पकड़ना भी हमारी सरकार के लिए आसान नहीं है| गृहमंत्री कहते हैं कि उन्हें जुलाई में इस घटना का संकेत मिल गया था तो पिछले 40-50 दिन हमारे गुप्तचर और पुलिसवाले क्या कर रहे थे ? यदि इस लापरवाही के कारण 15-20 लोगों के प्राणों की बलि चढ़ सकती है तो क्या 10-15 अफसरों और स्वयं गृहमंत्री को भारमुक्त नहीं किया जा सकता? अफजल गुरू और कसाब को दामाद की तरह छाती पर बिठाकर रखनेवाली इस सरकार का अब जनता में इकबाल क्या रह गया है? क्या आतंकवाद से लड़ने का कोई सच्चा संकल्प कहीं दिखाई पड़ता है?
यदि हमारा राष्ट्र-राज्य उक्त संकल्प का धनी हो तो वह आतंकवाद पर भी काबू पा सकता है| जो खुद से सख्ती करेगा, वह दूसरों से क्यों नहीं करेगा? आतंकवादियों को अगर यह अंदेशा हो जाए कि भारत सरकार उन्हें किसी भी हालत में बख्शेगी नहीं और हर उस आदमी का पीछा करेगी, जिसने उनकी ज़रा भी मदद की होगी तो वे आतंकी हरकत करने के पहले हजार बार सोचेंगे| अगर उन्हें यह भी पता चल जाए कि वे ही नहीं पिसेगे बल्कि गेहूं के साथ घुन भी पिसेगी तो उनके होश फाख्ता हो जाएंगें| अगर हमारे जहाज को कंधार ले जानेवालों को यह पता होता कि भारतीय फौजें कंधार का हवाई अड्डा उड़ा सकती हैं तो वे क्या उस जहाज का अपहरण करने की हिमाकत करते| अगर कसाब को यह पता होता कि ताज होटल पर उसने हमला किया तो उसके किसी आका का नामो-निशान भी नहीं बचेगा तो क्या वह मुंबई आने की जुर्रत करता? जो ओसामा बिन लादेन की गति हुई, वही उनकी भी होगी तो क्या मुंबई आने के पहले उसकी हडि्रडयों में कंपकंपी नहीं चढ़ जाती ? ये वे सबक हैं, जो अमेरिका और इस्राइल ने अपने संभावित आतंकवादियों को सिखाए हैं| अमेरिका और इस्राइल की विदेश नीतियॉं कितनी ही आक्रामक और निदंनीय हों, उन्होंने आतंकवादियों के हौंसले पस्त करके दिखाए हैं|
इन देशों की जनता ने भी अद्भुत मुस्तैदी दिखाई है| अपने राष्ट्र की सुरक्षा की खातिर इन देशों के लोगों ने हर असुविधा और हर परेशानी को सहर्ष बर्दाश्त किया| क्या हम लोग, जो आतंकवादी करतूतों के शिकार नहीं हुए, अपने मृत और घायल भाई-बहनों के लिए इतनी कुर्बानी करने को तैयार हैं ?
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