Jansatta, 1 July 2009 : डॉ. मनमोहन सिंह अपनी विदेश नीति में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन करें, ऐसी परिस्थितियां अभी पैदा नहीं हुई हैं लेकिन यह निश्चित है कि उनकी विदेश नीति के पिछले पांच सालों के मुकाबले अगले पांच साल काफी भिन्न होंगे| डॉ. मनमोहनसिंह की नई सरकार के लिए इस बार विदेश नीति की चुनौतियॉं पहले से अधिक गंभीर मालूम पड़ती हैं| इस बार स्वयं प्रधानमंत्री विदेश नीति की कमान संभालते हुए दिखाई पड़ रहे हैं| अपनी पहली विदेश-यात्रI के दौरान वे अपने विदेश मंत्री को साथ नहीं ले गए| यह एक यात्र कई यात्रओं के बराबर थी| इसमें रूस, चीन, पाकिस्तान और ब्राजील के अलावा वे अन्य कई मध्य एशियाई राष्ट्रों के नेताओं से भी मिलें| इस यात्र के दौरान विदेश नीति के अनेक क्षेत्रीय और वैश्विक आयाम खुले| विश्व-आर्थिक संकट पर भी विचार हुआ| इन सब मुद्रदों पर खुद प्रधानमंत्री सारी कमान सम्हाले रहे| पॉंच साल पहले यह काम उनसे भी अधिक वरिष्ठ नेता प्रणव मुखर्जी के हाथ में था| मुखर्जी थे तो केवल विदेश मंत्री लेकिन उनकी वरिष्ठता मनमोहन सिंह को उतना चमकने नहीं देती थी| अब प्रणव मुखर्जी की जगह एक प्रादेशिक नेता एस.एम. कृष्णा को विदेश मंत्री बनाया गया है| उन्हें न तो केंद्र की राजनीति का गहरा अनुभव है और न ही विदेश नीति का ! हालांकि वे पश्चिम में पढ़े हैं और व्यवहार-कुशल राजनेता हैं लेकिन लगता है कि नई सरकार में विदेश नीति की लगाम प्रधानमंत्री के हाथ में ही रहेगी|
यदि अपनी पिछली अवधि के दौरान मनमोहनसिंह ने सबसे ज्यादा जोर किसी मुद्दे पर दिया तो वह भारत-अमेरिकी परमाणु सौदा था| इस सौदे के कारण उन्होंने अपनी सरकार को दाव पर लगा दिया था| वे सौदा और सरकार, दोनों को बचा ले गए लेकिन ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद से अब तक सौदा अदृश्य-सा हो गया है| उसकी कोई चर्चा सुनने में नहीं आती| न इधर से और न उधर से ! नई सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि अपने इस महत्वपूर्ण सौदे को वह चुपचाप मौत की नींद सोने न दे| अमेरिका से पुरानी परमाणु भटि्रठयां नहीं खरीदनी हों तो न खरीदें लेकिन ईंधन तो लें| आस्ट्रेलिया के सस्ते यूरेनियम का रास्ता भी खोलें| फ्रांस, रूस और बि्रटेन से जो नई-नई परमाणु तकनीकें लेना हों, वे लें| ऐसा नहीं है कि अमेरिका इस सौदे को चुपचाप दफन कर देगा| अमेरिकी उद्योगपति तो बेताब हैं कि सौदा चल निकले ताकि वे अपनी परमाणु भटि्रठयां भारत के मत्थे मढ़ सकें| अभी-अभी ओबामा के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भारत आए तो उन्होंने मांग की कि भारत में कम से कम दो जगह ‘सेज’ की तरह दो परमाणु-बाजार स्थापित कर दिए जाएं ताकि वे अपने माल की प्रदर्शनी कर सकें| मनमोहन-सरकार का यह कर्तव्य है कि वह भारत की जनता को कम से कम यह बताए की परमाणु-उर्जा का लाभ उसे कब मिलना शुरू होगा और बिजली के मुकाबले वह कितनी सस्ती होगी ?
भारत-अमेरिका सामरिक-सहकार अभी जिस स्तर तक पहुंचा है, उसका फायदा भारत को बराबरी के स्तर पर मिले, यह जरूरी है| यह फायदा अभी एक तरफा-सा मालूम पड़ रहा है| अमेरिका अभी एराक और अफगानिस्तान के दल-दल में फंसा हुआ है| हम एराक के मामले में लगभग तटस्थ हो गए हैं और अफगानिस्तान में अपना रूपया और खून बहाए चले जा रहे हैं| एक अर्थ में अमेरिका के अनुचर बन गए हैं, हालांकि हम अपने राष्ट्रहितों की वहां रक्षा भी कर रहे हैं| खास बात यह है कि एराक़ और अफगानिस्तान में हमारी भूमिका प्रमुख क्षेत्रीय महाशक्ति की नहीं है| भारत की भूमिका अमेरिका-विरोधी हो, यह आवश्यक नहीं है लेकिन अगर यह स्वतंत्र् हो तो वह काफी अलग भी हो सकती है और अंततोगत्वा सर्वहितकारी सिद्घ हो सकती है| अमेरिका को भी उसका प्रचुर लाभ मिल सकता है| भारत की नई भूमिका इन देशों में क्या हो, यह हमारे सुयोग्य अफसर लोग भी बता सकते हैं लेकिन वे रोज़मर्रा के गोरखधंधे में इस बुरी तरह फॅंसे रहते हैं कि उनसे ज्यादा आशा नहीं की जा सकती| यह काम मूलत: विदेश नीति विशेषज्ञों और राजनीतिज्ञों का है| लेकिन विडंबना है कि विदेश नीति विशेषज्ञों और नेताओं के बीच सार्थक संवाद नगण्य है| डॉ. मनमोहनसिंह स्वयं बरसों अर्थशास्त्र् के विशेषज्ञ रहे हैं| विशेषज्ञों का उपयोग कैसे करना, इस बात को उनसे बेहतर कौन समझ सकता है ?
हमारे विशेषज्ञ प्रधानमंत्री को चीन के बारे में भी सावधान करना चाहेंगे| अमेरिका की शै पर चीन से झगड़ा मोल लेना उचित नहीं होगा लेकिन हर मुद्रदे पर चीन से दबना भी ठीक नहीं है| अरूणाचल के सवाल पर चीन अगर विश्व-बैंक में हमारे खिलाफ अड़गे लगाता है तो हमें तिब्बत का मोर्चा खोलन में संकोच क्यों होना चाहिए ? अगर अरूणाचल भारत का नहीं है तो तिब्बत चीन का कैसे है ? अगर सोनिया गॉंधी और मनमोहनसिंह के अरूणाचल जाने का चीन विरोध करता है तो किसी भी चीनी नेता के तिब्बत जाने का विरोध हम क्यों न करें ? यदि अरूणाचल में सड़क बनाने पर चीन चिल्लाता है तो तिब्बत में उसकी रेल हम क्यों चलने दें ? यदि वह पाकिस्तान, म्यांमार, नेपाल और बांग्लादेश में भारत-विरोधी तबकों को हवा देता है तो हमें किसने रोका है कि हम वियतनाम, कम्बोडिया, कोरिया, फारमोसा आदि मे चीन-विरोधियों में हवा भरते रहें| यदि चीन अपनी सभी कारस्तानियों के बावजूद भारत से सहज संबंध बनाए रखना चाहता है तो हम भी वैसा ही क्यों नहीं कर सकते ? हमें किस बात का डर है ? यदि चीन और रूस तैयार हों तो एशियाई क्षेत्र् में आर्थिक-सहकार की कोई नई रणनीति बनाने में भारत सकि्रय भूमिका निभा सकता है| चीन, रूस और भारत मिलकर काम करें तो अगले एक दशक में नई विश्व-व्यवस्था कायम करना असंभव नहीं होगा| यह त्रिपक्षीय सहकार बहुध्रुवीय विश्व की पहली शर्त है| इस त्रिपक्षीय सहकार को आगे बढ़ाने में भारत को ज़रा भी झिझक नहीं होनी चाहिए, क्योंकि अमेरिका स्वयं चीन और जापान को मिलाकर ऐसा एशियाई त्रिपक्षीय सहकार बढ़ा रहा है, जिसमें भारत कहीं नहीं है|
भारतीय विदेश नीति की सबसे सगुण चुनौती उसके अड़ौस-पड़ौस में ही है| पाकिस्तान को होश में लाने की कोई तदबीर उसके पास नहीं है| अमेरिकी दबाव के चलते वह अनंत धैर्य का स्वामी बन गया है| मुंबई की ताज होटल के बाद अब अगर पाकिस्तानी आतंकवादी संसद या राष्ट्रपति भवन में भी घुस जाऍं तो भारत क्या कर लेगा ? वह इतना भी नहीं कर सकता कि पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित करवा दे और संयुक्त राष्ट्र से कहे कि उसका हुक्का-पानी बंद करो| अमेरिकी की तरह आतंक की जड़ तक पहुंचने की हिम्मत तो भारत के किसी नेता, दल या सरकार में दिखाई नहीं पड़ती लेकिन उसके पास ऐसी कोई रणनीति भी नही है, जिसके चलते वह पाकिस्तान के फौजी-प्रतिष्ठान को सही रास्ते पर ला सके| पाकिस्तान का फौजी प्रतिष्ठान डॉलर और हथियार के लालच में अमेरिकियों को तो खुश करने का नाटक करता रहता है लेकिन वह भारत के विरूद्घ चल रहे आतंकवाद को रोकने का नाटक भी नहीं करता | वह क्यों करें ? इससे उसे क्या फायदा है ? भारत उसे क्या दे देगा ? भारत की यह मजबूरी है कि पाकिस्तान को सही रास्ते पर लाने के लिए वह अमेरिका पर निर्भर है| इसमें शक नहीं कि अमेरिकी पाकिस्तान पर पूरा दबाव बनाए रखते हैं लेकिन अमेरिकियों को बेवकूफ बनाने की कला में पाकिस्तान पांरगत हो चुका है| इसीलिए अपनी दूसरी अवधि में मनमोहन-सरकार को कोई नया रास्ता तलाशना पड़ेगा| अमेरिका से दोस्ती बनाए रखकर भी उसके प्रभा-मंडल से बाहर निकलना होगा| अमेरिकियों को समझाना होगा कि आतंकवाद चाहे जिसके विरूद्घ हो, वह एक-जैसा ही होता है| अमेरिका-विरोधी और भारत-विरोधी, दोनों आतंकवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं|
ईरान का सवाल भी इधर ज़रा उलझता जा रहा है| यह अच्छा है कि भारत न तो अहमदीनिजाद का पक्ष ले रहा है न मूसवी का| ओबामा की नीति शुरू में संतुलित रही | लेकिन कई दबावों के चलते वे भी यूरोपीय नेताओं की तरह ईरान के प्रति आक्रामक हो गए| ईरान के वर्तमान नेतृत्व को दबा-धमका पाना पश्चिम के लिए संभव नहीं होगा| ईरान का तूफान अगर जल्द ही शांत हो जाए तो भारतीय विदेश नीति को ईरान में अधिक सकि्रय होना पड़ेगा| अमेरिका और ईरान के बीच मध्यस्थ की भूमिका भारत से बेहतर कौन निभा सकता है| परमाणु-शस्त्रस्त्रें के सवाल पर भी भारत दोनों पक्षों से खुलकर बात कर सकता है| इस्राइल और ईरान के बीच चल रहे वाग्युद्घ को रोकने में भी भारत का सकारात्मक योगदान हो सकता है| यदि ईरान से भारत तक गैस और तेल की पाइप लाइन डल जाए तो पाकिस्तान की उद्रंदडता पर आर्थिक अंकुश स्वत: लग सकता है| अफगान-गुत्थी को सुलझाने में भी ईरान विशेष मदद कर सकता है| यदि ईरान-अमेरिका कटुता कम हो जाए तो उसका फायदा अमेरिका को एराक़ में भी मिलेगा|
नेपाल में माओवादी सरकार के गिरने के कारण सारा परिदृश्य अस्त-व्यस्त हो गया है| यह ठीक है कि भारत के प्रति माओवादियों का रवैया नेपाली कांग्रेस की तरह मैत्र्ीपूर्ण नहीं था लेकिन सत्तारूढ़ होने के बाद उनकी परिपक्वता बढ़ती जा रही थी| उनका भारत-विरोध पतला पड़ता जा रहा था| यदि वे अगले तीन-चार साल टिके रहते तो नया नेपाली संविधान भी आसानी से बन जाता और माओवादियों की इतनी पोल खुल जाती कि वे अगला चुनाव जीत नहीं पाते| वे सबसे बड़ी पार्टी बनकर भी नहीं उभर पाते लेकिन अब एमाले, कॉंग्रेस और मधेसियाईयों की गंठबंधन सरकार को चलाते रहना आसान नहीं होगा| संविधान-निर्माण में भी पग-पग पर कठिनाइयॉं आती रहेंगी| माओवादियों ने भारत-विरोधी मोर्चा दुबारा खोल दिया है| वे जन-आंदोलन भी चलाएंगे| वे छुट-पुट हिंसा का रास्ता भी अपना सकते हैं| कुल मिलाकर भारत के लिए नेपाल में नई चुनौतियां उठ खड़ी हुई हैं| चीन का वर्चस्व बढ़ने के द्वार भी खुल गए हैं| पाकिस्तान भी अपना जाल फैलाने से बाज़ नहीं आएगा| ऐसी स्थिति में भारत को नेपाल पर बहुत अधिक ध्यान देना होगा| नेपाल को आतंकवाद और तस्करी का अड्रडा बनाना बहुत आसान है| इसका खामियाज़ा भारत पहले भी भुगतता रहा है| यदि नेपाल में सरकार को चलने नहीं दिया गया और अराजकता फैलती गई तो भारत मूक-दर्शक नहीं बना रह सकता| मधेस के लाखों लोग अब हिंसक आंदोलन की तरफ झुक रहे हैं| कहीं नेपाल का हाल श्रीलंका की तरह नहीं हो जाए| नेपाल की लड़ाई तितरफा हो सकती है| माओवादी, मधेसी और पहाड़ी ! नेपाल उस विस्फोटक-बिंदु तक किसी हालत में न पहुंचे, यह देखना भारत का काम है|
श्रीलंका में लिट्टे और प्रभाकरन का खात्मा भारत के लिए काफी खुश खबर है| भारत की सीधी सहायता के बिना श्रीलंका-सरकार ने इस राक्षसी-संगठन को मार गिराया, यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है| हमारे कुछ तमिल नेताओं के शोर-शराबे के बावजूद भारत ने अपना संतुलन नहीं खोया, यह उल्लेखनीय है| श्रीलंका सरकार भारत की आभारी है लेकिन डर यही है कि महिंद राजपक्ष सरकार विस्थापित तमिलों को यदि तुरंत राहत नहीं देगी और तमिलों को उचित मांगों को नहीं मानेगी तो नए लिट्रटे के जन्म में ज्यादा देर नहीं लगेगी| संसार के समस्त तमिल लोग अभी कोलंबो सरकार की नीयत को जांच रहे हैं| यदि वह कसौटी पर खरी नहीं उतरी तो दोष भारत के सिर भी मढ़ा जाएगा| यह माना जाएगा कि भारत के उकसावे या उपेक्षा के तले ही तमिलों का उत्पीड़न हो रहा है| इस समय भारत सरकार को सिर्फ राजपक्ष-सरकार ही नहीं, श्रीलंका की सिंहली जनता और बौद्घ मठाधीशों पर भी काम करना पड़ेगा| सिंहल-तमिल संवाद कायम किए बिना श्रीलंका में शांति और व्यवस्था को बहाल करना आसान नहीं है| श्रीलंका में न केवल नए ढंग की लोक-कूटनीति आवश्यक है बल्कि 25 वर्षीय युद्घ से ध्वस्त हुए राष्ट्र के पुननिर्माण के लिए जबर्दस्त आर्थिक सहायता की भी जरूरत है| इस क्षेत्र् में चीन भारत से आगे निकल गया है| उसने श्रीलंका को 5000 करोड़ रू. की मदद दी है| बदले में श्रीलंका ने चीन को ‘मुक्त क्षेत्र्’ स्थापित करने की सुविधा दे दी है| चीन श्रीलंका के दक्षिण-पूर्व में हंबनतोता बंदरगाह का निर्माण भी कर रहा है| यह सुविधा चीन को संपूर्ण हिंद महासागर का सामरिक दादा बना देगी|
म्यांमार, बांग्लादेश, भूटान और मालदीव की अपनी समस्याएं है लेकिन ये देश भारत के लिए कोई सीधा सिरदर्द पैदा नहीं कर रहे हैं| म्यांमार में चीनी प्रभाव निरंतर बढ़ता जा रहा है और लोकतांत्रिक शक्तियां मजबूत नहीं हो रही हैं| भारत को चिंता है लेकिन वह कितना दबाव डाल सकता है| इसी तरह बांग्लादेश के सांप्रदायिक तत्व भारत-विरोधी झंडा सदा उंचा किए रहते हैं| यह जरूरी है कि भारत अपने इन सभी पड़ौसी राष्ट्रों को आर्थिक आक्रोड़ में आबद्घ करने की कोशिश करे| उन्हें वह यह महसूस करवाए कि वह उन्हें अपने वृहत्र परिवार का हिस्सा मानता है| उनके सुख-दुख हमारे सुख-दुख हैं| दक्षेस के सूखे मंच पर मैत्री के कुछ हरे वृक्ष लहराए जाएं| म्यांमार और ईरान को भी दक्षेस का सदस्य बनाया जाए| तिब्बत भी जुड़े तो कोई बुराई नहीं है| त्रिविष्टुप ‘तिब्बत’ से मालदीव और अराकान ‘म्यांमार’ से खुरासन ‘ईरान’ तक फैले संपूर्ण आर्यावर्त्त या आर्याना परिवार को एक सूत्र् में बांधना भारतीय विदेश नीति का सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए| यदि भारत अपने इस क्षेत्र् में मुक्त आवागमन, मुक्त व्यापार, मुक्त मुद्रा, मुक्त विनिवेश और मुक्त सेवाओं का युग प्रारंभ कर सके तो वह न केवल विश्व आर्थिक संकट को परास्त कर सकेगा बल्कि कुछ ही वर्षो में विश्व-शक्ति का दर्जा भी हासिल कर सकेगा|
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं )
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