Dainik Bhaskar, 23 Feb 2011 : सऊदी अरब की तरह लीबिया को भी स्थायित्व का अभेद्य गढ़ माना जाता था, लेकिन मुअम्मर गद्दाफी का यह गढ़ ताश के पत्तों का महल सिद्ध हो रहा है। 41 साल से लीबिया के सीने पर सवार गद्दाफी को टीवी चैनल पर आकर कहना पड़ा है कि वे देश छोड़कर भागे नहीं हैं। जिस लीबिया में उनके इशारे के बिना पंछी भी अपने पर नहीं हिला सकते थे, उसमें अब उन्हें अपनी ही जनता पर जहाजों और हेलिकॉप्टरों से बम बरसाने पड़ रहे हैं। ट्यूनीशिया और मिस्र क्या, इस तरह के क्रूर कारनामे हिटलर, स्तालिन और माओ जैसे तानाशाहों को भी नहीं करने पड़े। लीबिया की बगावत ने पिछली सभी बगावतों को पीछे छोड़ दिया है। अपने बागी नौजवानों पर इतने बर्बर हमले न तो चीनी नेताओं ने थियानमन चौराहे पर किए थे और न ही ईरान के शहंशाह ने मशद और तेहरान में किए थे। खून की ऐसी नदी बहाने के बावजूद क्या गद्दाफी और उनका बेटा अब लीबिया में रह पाएंगे?
गद्दाफी के दो मंत्रियों ने भी इस्तीफा दे दिया है। न्याय मंत्री के अलावा जनसुरक्षा मंत्री अफ यूनुस के इस्तीफे ने यह स्पष्ट संकेत दे दिया है कि गद्दाफी की नींव हिल चुकी है। भारत, ब्रिटेन और चीन में नियुक्त लीबिया के राजदूतों के इस्तीफे का अर्थ कौन नहीं समझता? नौकरशाह बगावत का झंडा उठा लें, इसका स्पष्ट अर्थ है कि सत्ता की नाव डूबने वाली है। अभी पांच-छह दिन हुए हैं जनोत्थान को, लेकिन फौज की कई ब्रिगेडों ने हथियार डाल दिए हैं। वे बागियों की तरफ से लड़ रही हैं। कुछ पायलटों ने बागियों पर बम बरसाने की बजाय अपने विमान दूसरे देशों में ले जाकर खड़े कर दिए हैं। गद्दाफी के मुंह पर इससे बड़ा तमाचा क्या होगा?
लीबिया के अनेक शहरों और गांवों पर बागियों का कब्जा हो गया है। स्थानीय प्रशासन बागियों का साथ दे रहा है। गद्दाफी की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि वे जिस कबीले के सरदार हैं – कज्जाफ कबीला – वह चौथे नंबर पर है। पहले तीन बड़े कबीले और उनके साथ लगभग अन्य सौ कबीले काबू से बाहर हो चुके हैं। मेकारथा, जाबिय्या और वरफल्लाह कबीलों के सरदारों ने बगावत का बिगुल बजा दिया है। जो फौजी इस कबीले के हैं, वे अब गद्दाफी के नहीं, बल्कि अपने कबीलाई सरदारों के आदेशों का पालन कर रहे हैं। 1993 में वरफल्लाह कबीले ने जो बगावत की थी, उसे गद्दाफी ने डंडे के जोर पर दबा दिया था, लेकिन यह तो स्वत:स्फूर्त जनोत्थान है। इसमें सभी कबीले शामिल हैं। 1969 में जब गद्दाफी ने तख्तापलट किया था तो शाह इदरिस ने इन कबीलों को स्वायत्तता देकर एकसूत्र में बांध रखा था, लेकिन अब वे तानाशाही का रस्सा तोड़ने पर उतारू हो गए हैं। गद्दाफी की हवाई सेना में उनके अपने कबीले का वर्चस्व है। वह कितने बम बरसाएगी?
गद्दाफी को कौन बचाएगा? लीबिया में उनके इतने प्रशंसक भी नहीं हैं, जितने मिस्र में मुबारक और ट्यूनीशिया में अबीदीत बिन अली के थे। मरने या भागने के अलावा उनके सारे रास्ते बंद हो चुके हैं। 1969 में जिन लोगों ने अपनी जान पर खेलकर उनका साथ दिया था, उनमें से ज्यादातर लोगों की हत्या की जा चुकी है। उस दौर के उनके साथियों में से अब सिर्फ अबुल सलाम जलूद बचे हैं। वे भी बागियों का ही साथ देंगे। फौज के सबसे वरिष्ठ अफसरों में गिने जाने वाले जनरल महमूद ने भी बगावत कर दी है। गद्दाफी के अपने कबीले के लोगों की सहानुभूति उनके साथ जरूर है, लेकिन इस वक्त उनकी जान के लाले पड़े हुए हैं। उनमें से ज्यादातर यह भी मानते हैं कि गद्दाफी ने इस्लाम के सिद्धांतों का हमेशा उल्लंघन किया है।
अपने चारों ओर जवान विदेशी लड़कियों का घेरा बनाए रखना, अय्याशियों पर अंधाधुंध खर्च करना, प्रजा के प्रति जवाबदेह नहीं होना, निरंकुश सत्ता पर परिवार का कब्जा जमा लेना, इस्लामी मुल्ला-मौलवियों की बेइज्जती करना आदि वे काम हैं, जिनके विरोध की मौन अंतर्धारा उनके कबीले में भी बहती रही है। इसीलिए शुरुआती दो-तीन दिनों में उनके समर्थन में जो प्रदर्शन हुए, उन्हें भाड़े के प्रदर्शन कहा जा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय जगत में भी गद्दाफी अकेले हैं। इटली के प्रधानमंत्री उनके दोस्त जरूर हैं, लेकिन उनकी दाल पहले से पतली हो रही है। कोई भी मुस्लिम राष्ट्र उनके समर्थन में मुंह नहीं खोल रहा है। इस वक्त सबको अपनी-अपनी पड़ी है। अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ लीबियाई जनता के पक्ष में खुलकर बोल रहे हैं। भारत को अपने 18 हजार नागरिकों की चिंता है। यूरोपीय देश, जो अपना 80 प्रतिशत तेल लीबिया से खरीदते हैं, अपने नागरिकों को निकालने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें डर है कि सूडान और इथियोपिया की तरह लीबिया में कहीं कबीलाई युद्ध न छिड़ जाए। गद्दाफी विरोधी कबीलों ने घोषणा कर दी है कि वे तेल की सप्लाई बिल्कुल बंद कर देंगे। तेल पर निर्भर लीबियाई अर्थव्यवस्था को ढेर होने में कितनी देर लगेगी? अफ्रीका में सबसे बड़े इस तेल राष्ट्र की फिर दुनिया में क्या कीमत रह जाएगी? गद्दाफी त्रिपोली में बैठकर कौन-सी बीन बजाएंगे? यह ठीक है कि मिस्र और ट्यूनीशिया के मुकाबले लीबिया अमीर देश है, लेकिन यह अमीरी मुट्ठी भर भद्रलोक और कज्जाफ कबीले तक सीमित है। अमीरी बढ़ाने में गद्दाफी का योगदान क्या है? अमीरी का कारण तो असीम तेल और गैस है। इसके बावजूद 33 प्रतिशत लोग यानी 60 लाख में से 20 लाख लोग बेकार हैं। क्या ये बीस लाख लोग अब गद्दाफी को लीबिया में टिकने देंगे?
उन्होंने अपनी तेल की आमदनी का हमेशा दुरुपयोग किया। 1972 में उन्होंने जर्मनी के ओलिंपिक में इजरायली खिलाड़ियों पर हमला करवा दिया। तेल के पैसे से उन्होंने आतंकवाद की आग भड़काई। 1984 में उन्होंने ब्रिटिश पुलिस अफसर योवेन फ्लेचर की हत्या करवाई। 1986 में बर्लिन में बमबारी करवाई। 1986 में पेनेम के जहाज का अपहरण करवा दिया और 1988 में कनाडा से उड़े जहाज को गिरवा दिया, जिसमें ढाई सौ से ज्यादा लोग मारे गए। उसमें कई भारतीय परिवार भी थे। गद्दाफी ने इस्लामी बम बनाने की कोशिश भी की थी और भुट्टो को भी उकसाया था। गद्दाफी की करतूतों के कारण गुस्साए हुए अमेरिका ने लीबिया के कुछ शहरों पर बम भी बरसाए थे। संयुक्त राष्ट्र ने उस पर प्रतिबंध भी लगाए थे। ऐसे गद्दाफी के डूबने पर कौन राष्ट्र आंसू बहाएगा?
वेदप्रताप वैदिक
लेखक प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक हैं।
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