दैनिक भास्कर, 29 सितंबर 2009 : दुनिया की अर्थ-व्यवस्था चलाने का ठेका कई वर्षों से पांच-सात देशों ने ले रखा था याने दुनिया में प्रच्छन्न साम्राज्यवाद चल रहा था लेकिन अब ग्रुप-20 याने 20 देशों के समूह ने यह जिम्मेदारी अपने सिर ले ली है| यह भी सीमित साम्राज्यवाद ही है, क्योंकि दुनिया में अभी 190 देश हैं| सिर्फ 10 प्रतिशत देश मिलकर सौ प्रतिशत देशों के भाग्य-नियंता बन जाएं, यह क्या है ? यह एक तरह का आर्थिक कुलीनतंत्र् है लेकिन उसकी अच्छाई यह है कि इसमें भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश भी शामिल हो गए हैं| ये देश तीन विकासशील महाद्वीपों का प्रतिनिधित्व तो करते ही हैं, ये विश्व के पिछड़े, कमज़ोर और गरीब देशों के दर्द को भी समझते हैं| यही दर्द पिट्सबर्ग मे हुए जी-20 सम्मेलन में जमकर मुखर हुआ और उसका असर भी हुआ| जी-20 की समापन-विज्ञप्ति में भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के विचारों को समुचित स्थान मिला है| जी-20 ने यह स्वीकार किया कि मालदार देशों की वित्तीय भूलों के कारण सारे विश्व की अर्थ-व्यवस्था पर संकट के बादल छा गए| डॉ. सिंह ने दो-टूक शब्दों में कहा कि विकासमान राष्ट्रों को इस संकट के कारण 900 बिलियन डॉलर का घाटा झेलना पड़ा| विकसित राष्ट्रों को होनेवाला निर्यात घट गया| विकसित राष्ट्रों के बैंको ने अनाप-शनाप विनिवेश किया, अपने अधिकारियों को अंधाधुंध वेतन और फायदे बांटे और कर्ज़ों के बोझ से अपनी कमर तुड़वा ली| मालदार देशों के बैंक दिवालिया हो गए, कई कल-कारखाने ठप्प हो गए और लाखों लोग बेकार हो गए| लोगों की क्रय-शक्ति घट गई| जो गरीब राष्ट्र इन मालदार राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था से नत्थी थे, वे फिजूल में मारे गए| उन राष्ट्रों को दी जानेवाली 1.1 टि्रलियन की आर्थिक सहायता जारी रहेगी, जी-20 का यह निश्चत स्वागत योग्य है| यदि यह जी-20 की जगह सिर्फ जी-8 होता याने सिर्फ मालदार देशों का समूह होता तो क्या यह सहायता जारी रहती ? शायद बंद हो जाती| जो विकासमान राष्ट्र अभी भी संकट में फंसे हुए हैं, वे धराशायी हो जाते| उनमें अराजकता फैल जाती| बेकारी और भुखमरी का साम्राज्य सिर उठा लेता| वे भारत और चीन की तरह नहीं हैं| इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्था काफी गद्रदेदार हैं| वे मालदार देशों के ठूंसे-धक्के बर्दाश्त कर सकती हैं, क्योंकि उनका अपना बाजार बहुत बड़ा है| इस जी-20 सम्मेलन ने गरीब देशों को राहत ही नहीं दी है, उनके प्रतिनिधि देशों को निर्णय-प्रकि्रया में ज्यादा वज़नदार भी बनाया है| भारत की इच्छा तो यह थी कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में विकासमान राष्ट्रों को 50 प्रतिशत से अधिक तक का मतदान-अधिकार मिले| अभी वह सिर्फ 43 प्रतिशत है| याने सभी फैसलों पर मालदार देशों का अधिकार है| इस बार विकासमान राष्ट्रों का कोटा 5 प्रतिशत बढ़ाया गया है| यह एक उपलब्धि है, हालांकि अब भी कोष पर मालदार देशों का ही नियंत्र्ण रहेगा| इससे एक बात तो यह सिद्घ होती है कि इस विश्व-संस्था में अब शक्ति-संतुलन बदल रहा है| कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ ही वर्षों में विकासमान राष्ट्रों का पलड़ा मालदार देशों से भी ज्यादा भारी हो जाए| भारत और चीन ने मिलकर मालदार देशों की अडंगेबाजी का भी डटकर विरोध किया| विदेशों से होनेवाले आयात पर अनावश्यक तटकर थोपने और उन्हें सीमित करने के प्रयत्नों का भी जी-20 में विरोध हुआ| याने विकासमान राष्ट्रों को निर्यात की आमदनी बराबर मिलती रहेगी| राष्ट्रपति ओबामा ने चीन से निर्यात होनेवाले टायरों पर जो अतिरिक्त तटकर थोपा था, उसका विशेष उल्लेख हुआ| इस सम्मेलन में विश्व-मौसम पर भी चर्चा हुई| विकसित राष्ट्र, खासतौर से अमेरिका और जापान अपना प्रदूषण घटाएं, यह मुद्दा कई राष्ट्रों ने उठाया| भारत के मुकाबले अमेरिका में प्रति व्यक्ति प्रदूषण 20 गुना है| लेकिन फिर भी मालदार देश भारत पर उपदेश झाड़ते रहते हैं| वे कहते हैं भारत के करोड़ों लोगों को घासलेट, लकड़ी और कोयला जलाने से रोका जाना चाहिए| इनसे प्रदूषण फैलता है| इस तरह के ईंधन पर दी जानेवाली सरकारी रियायत हटाना चाहिए| भारत पूछता है कि इन लोगों को बिजली कहां से दोगे और दे भी दी तो क्या वे मालदार देशों के नागरिकों की तरह अंधाधुंध उर्जा-नाश में नहीं भिड़ जाएंगे ? जी-20 सम्मेलन में इस तरह की खींचतान भी चलती रही लेकिन उसने कई रचनात्मक संकल्प भी किए| अब तक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष उन्हीं राष्ट्रों की अर्थ-व्यवस्था पर अपनी वार्षिक-टीका जारी करता था, जो उससे कर्ज लेते थे| अब वह दाता देशों की अर्थ-व्यवस्था पर भी अपनी आलोचनात्मक रपट जारी करेगा| इसके कई फायदे होंगे| भारत-जैसे राष्ट्र मालदार देशों को उनकी भूलें अधिक स्पष्ट ढंग से बता सकेंगे| इसी प्रकार विश्व-बैंक और कोष की मूल पंूजी को बढ़ाने का भी संकल्प स्वागत योग्य है| कोष में 500 बिलियन डॉलर की नई पूंजी जोड़ी जाएगी| ब्राजील, रूस, भारत और चीन ने 70 बिलियन डॉलर अतिरिक्त देने का वादा किया है| मालदार देशों का जोर अभी भी अपनी बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को बचाने पर है| यदि वे विकासमान राष्ट्रों को सहायता बढ़ा दें और अपने देशों में बेरोजगारी दूर करने के लिए बुनियादी ढांचे पर खर्च करें तो चीन की तरह वे भी आर्थिक संकट से उबर सकते हैं| इस मामले में अमेरिका की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है, क्योंकि उसका संकट ही विश्व-संकट बना है| वह ही सबसे बड़ा उत्पादक और सबसे बड़ा उपभोक्ता है| आश्चर्य है कि जी-20 के राष्ट्रों ने उपभोक्तावादी अर्थ-व्यवस्थाओं पर लगाम लगाने के बारे में कुछ भी नहीं कहा है| इस तरह के सम्मेलनों में सरकारें सिर्फ अपने काम-काज पर नज़र डालती रही हैं लेकिन करोड़ों आम नागरिकों को देने के लिए कोई संदेश उनके पास नहीं है| दुख की बात तो यह है कि पिछड़े और गरीब राष्ट्र भी मालदार राष्ट्रों का अंधानुकरण कर रहे हैं| वे अपने 5 प्रतिशत के भद्रलोक पर चर्बी चढ़ाते चले जा रहे है और 95 प्रतिशत के साधारणलोक की अनदेखी करते रहते हैं| अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट के जो दुष्परिणाम विश्व के सामने आ रहे हैं, उन्हें दुनिया के शक्तिशाली राष्ट्र भुगत ही रहे हैं लेकिन विकासमान राष्ट्रों में अगर यह संकट बढ़ गया तो खून की नदियां बहेंगी और उन्हें बहने से दुनिया की कोई भी ताकत नहीं रोक पाएगी| यह दर्द सिर्फ गरीब राष्ट्रों का ही नहीं हैं, दुनिया के सभी गरीबों का हैं|
गरीब देशों के दर्द की सुनवाई
दैनिक भास्कर, 29 सितंबर 2009 : दुनिया की अर्थ-व्यवस्था चलाने का ठेका कई वर्षों से पांच-सात देशों ने ले रखा था याने दुनिया में प्रच्छन्न साम्राज्यवाद चल रहा था लेकिन अब ग्रुप-20 याने 20 देशों के समूह ने यह जिम्मेदारी अपने सिर ले ली है| यह भी सीमित साम्राज्यवाद ही है, क्योंकि दुनिया में अभी 190 देश हैं| सिर्फ 10 प्रतिशत देश मिलकर सौ प्रतिशत देशों के भाग्य-नियंता बन जाएं, यह क्या है ? यह एक तरह का आर्थिक कुलीनतंत्र् है लेकिन उसकी अच्छाई यह है कि इसमें भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश भी शामिल हो गए हैं| ये देश तीन विकासशील महाद्वीपों का प्रतिनिधित्व तो करते ही हैं, ये विश्व के पिछड़े, कमज़ोर और गरीब देशों के दर्द को भी समझते हैं| यही दर्द पिट्सबर्ग मे हुए जी-20 सम्मेलन में जमकर मुखर हुआ और उसका असर भी हुआ|
जी-20 की समापन-विज्ञप्ति में भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के विचारों को समुचित स्थान मिला है| जी-20 ने यह स्वीकार किया कि मालदार देशों की वित्तीय भूलों के कारण सारे विश्व की अर्थ-व्यवस्था पर संकट के बादल छा गए| डॉ. सिंह ने दो-टूक शब्दों में कहा कि विकासमान राष्ट्रों को इस संकट के कारण 900 बिलियन डॉलर का घाटा झेलना पड़ा| विकसित राष्ट्रों को होनेवाला निर्यात घट गया| विकसित राष्ट्रों के बैंको ने अनाप-शनाप विनिवेश किया, अपने अधिकारियों को अंधाधुंध वेतन और फायदे बांटे और कर्ज़ों के बोझ से अपनी कमर तुड़वा ली| मालदार देशों के बैंक दिवालिया हो गए, कई कल-कारखाने ठप्प हो गए और लाखों लोग बेकार हो गए| लोगों की क्रय-शक्ति घट गई| जो गरीब राष्ट्र इन मालदार राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था से नत्थी थे, वे फिजूल में मारे गए| उन राष्ट्रों को दी जानेवाली 1.1 टि्रलियन की आर्थिक सहायता जारी रहेगी, जी-20 का यह निश्चत स्वागत योग्य है| यदि यह जी-20 की जगह सिर्फ जी-8 होता याने सिर्फ मालदार देशों का समूह होता तो क्या यह सहायता जारी रहती ? शायद बंद हो जाती| जो विकासमान राष्ट्र अभी भी संकट में फंसे हुए हैं, वे धराशायी हो जाते| उनमें अराजकता फैल जाती| बेकारी और भुखमरी का साम्राज्य सिर उठा लेता| वे भारत और चीन की तरह नहीं हैं| इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्था काफी गद्रदेदार हैं| वे मालदार देशों के ठूंसे-धक्के बर्दाश्त कर सकती हैं, क्योंकि उनका अपना बाजार बहुत बड़ा है|
इस जी-20 सम्मेलन ने गरीब देशों को राहत ही नहीं दी है, उनके प्रतिनिधि देशों को निर्णय-प्रकि्रया में ज्यादा वज़नदार भी बनाया है| भारत की इच्छा तो यह थी कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में विकासमान राष्ट्रों को 50 प्रतिशत से अधिक तक का मतदान-अधिकार मिले| अभी वह सिर्फ 43 प्रतिशत है| याने सभी फैसलों पर मालदार देशों का अधिकार है| इस बार विकासमान राष्ट्रों का कोटा 5 प्रतिशत बढ़ाया गया है| यह एक उपलब्धि है, हालांकि अब भी कोष पर मालदार देशों का ही नियंत्र्ण रहेगा| इससे एक बात तो यह सिद्घ होती है कि इस विश्व-संस्था में अब शक्ति-संतुलन बदल रहा है| कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ ही वर्षों में विकासमान राष्ट्रों का पलड़ा मालदार देशों से भी ज्यादा भारी हो जाए|
भारत और चीन ने मिलकर मालदार देशों की अडंगेबाजी का भी डटकर विरोध किया| विदेशों से होनेवाले आयात पर अनावश्यक तटकर थोपने और उन्हें सीमित करने के प्रयत्नों का भी जी-20 में विरोध हुआ| याने विकासमान राष्ट्रों को निर्यात की आमदनी बराबर मिलती रहेगी| राष्ट्रपति ओबामा ने चीन से निर्यात होनेवाले टायरों पर जो अतिरिक्त तटकर थोपा था, उसका विशेष उल्लेख हुआ| इस सम्मेलन में विश्व-मौसम पर भी चर्चा हुई| विकसित राष्ट्र, खासतौर से अमेरिका और जापान अपना प्रदूषण घटाएं, यह मुद्दा कई राष्ट्रों ने उठाया| भारत के मुकाबले अमेरिका में प्रति व्यक्ति प्रदूषण 20 गुना है| लेकिन फिर भी मालदार देश भारत पर उपदेश झाड़ते रहते हैं| वे कहते हैं भारत के करोड़ों लोगों को घासलेट, लकड़ी और कोयला जलाने से रोका जाना चाहिए| इनसे प्रदूषण फैलता है| इस तरह के ईंधन पर दी जानेवाली सरकारी रियायत हटाना चाहिए| भारत पूछता है कि इन लोगों को बिजली कहां से दोगे और दे भी दी तो क्या वे मालदार देशों के नागरिकों की तरह अंधाधुंध उर्जा-नाश में नहीं भिड़ जाएंगे ? जी-20 सम्मेलन में इस तरह की खींचतान भी चलती रही लेकिन उसने कई रचनात्मक संकल्प भी किए|
अब तक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष उन्हीं राष्ट्रों की अर्थ-व्यवस्था पर अपनी वार्षिक-टीका जारी करता था, जो उससे कर्ज लेते थे| अब वह दाता देशों की अर्थ-व्यवस्था पर भी अपनी आलोचनात्मक रपट जारी करेगा| इसके कई फायदे होंगे| भारत-जैसे राष्ट्र मालदार देशों को उनकी भूलें अधिक स्पष्ट ढंग से बता सकेंगे| इसी प्रकार विश्व-बैंक और कोष की मूल पंूजी को बढ़ाने का भी संकल्प स्वागत योग्य है| कोष में 500 बिलियन डॉलर की नई पूंजी जोड़ी जाएगी| ब्राजील, रूस, भारत और चीन ने 70 बिलियन डॉलर अतिरिक्त देने का वादा किया है| मालदार देशों का जोर अभी भी अपनी बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को बचाने पर है| यदि वे विकासमान राष्ट्रों को सहायता बढ़ा दें और अपने देशों में बेरोजगारी दूर करने के लिए बुनियादी ढांचे पर खर्च करें तो चीन की तरह वे भी आर्थिक संकट से उबर सकते हैं| इस मामले में अमेरिका की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है, क्योंकि उसका संकट ही विश्व-संकट बना है| वह ही सबसे बड़ा उत्पादक और सबसे बड़ा उपभोक्ता है| आश्चर्य है कि जी-20 के राष्ट्रों ने उपभोक्तावादी अर्थ-व्यवस्थाओं पर लगाम लगाने के बारे में कुछ भी नहीं कहा है| इस तरह के सम्मेलनों में सरकारें सिर्फ अपने काम-काज पर नज़र डालती रही हैं लेकिन करोड़ों आम नागरिकों को देने के लिए कोई संदेश उनके पास नहीं है| दुख की बात तो यह है कि पिछड़े और गरीब राष्ट्र भी मालदार राष्ट्रों का अंधानुकरण कर रहे हैं| वे अपने 5 प्रतिशत के भद्रलोक पर चर्बी चढ़ाते चले जा रहे है और 95 प्रतिशत के साधारणलोक की अनदेखी करते रहते हैं| अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संकट के जो दुष्परिणाम विश्व के सामने आ रहे हैं, उन्हें दुनिया के शक्तिशाली राष्ट्र भुगत ही रहे हैं लेकिन विकासमान राष्ट्रों में अगर यह संकट बढ़ गया तो खून की नदियां बहेंगी और उन्हें बहने से दुनिया की कोई भी ताकत नहीं रोक पाएगी| यह दर्द सिर्फ गरीब राष्ट्रों का ही नहीं हैं, दुनिया के सभी गरीबों का हैं|
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