नवभारत टाइम्स, 3 जून 2007 : गुर्जरों को डंडे के जोर से अगर दबा भी दिया गया तो भी आरक्षण की यह आग पूरे देश में फैले बिना नहीं रहेगी| जातीय विद्वेष का यह मामला सिर्फ राजस्थान तक ही सीमित नहीं है| देश के हर प्रांत में आग का यह दरिया खदबदा रहा है| जो देख सकते हैं, उन्हें वह पहले से दिखाई दे रहा है| मीणों और गुर्जरों के बीच जो जातीय जलन हम राजस्थान में देख रहे हैं, वह अन्य प्रांतों में सिर्फ दो ही नहीं, अनेक जातियों के बीच अंदर ही अंदर सुलग रही है| अगर वह एक साथ फूट पड़ी तो भारत को महाभारत बनने से कोई रोक नहीं पाएगा| सांप्रदायिक संघर्ष ने देश के दो टूकडे़ किए, जातीय संघर्ष कितने टुकड़े करेगा, क्या इसकी कल्पना हमारे नेताओं को है? गुर्जरों के वोट पटाने के लिए अभी भाजपा ने उन्हें पुडि़या दी थी और 25-26 साल पहले यही काम काँग्रेस ने किया था| दोनों सरकारें उन्हें मीणा लोगों की तरह अनुसूचित-जनजाति में शुमार नहीं करवा सकीं| गुर्जरों का पूछना है कि उनके लोग कलेक्टर, पुलिस कमिश्नर, प्राचार्य, डॉक्टर आदि क्यों नहीं बन पाते और इन सब पदों पर मीणा लोग क्यों दिखाई पड़ते हैं? वे भी खेतिहर और पशुपालक लोग हैं, लेकिन आरक्षण उन्हें शक्तिमंत और श्रीमंत बनाता है, जबकि उनसे कम समृद्घ गुर्जरों को कोई इन पदों के पास फटकने भी नहीं देता| अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी का लाभ उन्हें जरूर मिल रहा है लेकिन उसका बड़ा हिस्सा जाटों को मिल जाता है, क्योंकि उनकी जनसंख्या गुर्जरों से तिगुनी है| गुर्जरों का गुस्सा अपनी जगह सही है लेकिन असली सवाल यह है कि यदि उन्हें अनुसूचित जन-जाति मान भी लिया जाए तो सारे गुर्जरों का कितना फायदा होनेवाला है? जिन प्रदेशों में गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति माना गया है, वहाँ भी आम गुर्जर की हालत क्या है? जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में गुर्जरों को अनुसूचित किया गया है लेकिन उसके कारण क्या औसत गुर्जरों के जीवन स्तर या सामाजिक स्थिति में कोई सुधार हुआ है? पाँच-सात लोग कलेक्टर और डी.आई.जी. वगैरह बन गए तो उससे क्या फर्क पड़ता है? क्या भेड़ चरानेवाले और पहाड़ों पर खेती करनेवालों को सभ्य और संपन्न जीवन की सुविधाएँ मिली हैं? आरक्षण केवल मुटठीभर लोगों को मलाईदार बनाने के अलावा क्या करता है? आरक्षण उनकी आयोग्यता और अक्षमता को ढकता भर है| वह उन्हें न तो आत्मविश्वास दे पाता है और न ही उनकी प्रतिष्ठा बढ़ा पाता है| उनमें से कुछ योग्य लोग हों तो भी उनके बारे में यही धारणा फैली रहती है कि ये चोर दरवाज़े से घुसे हुए लोग हैं| वे मोटी तनखा पाते हैं और सत्ता के मज़े भी उठाते हैं लेकिन वे लोग अपनी जाति में और व्यापक समाज में भी सदा ईर्ष्या और कटुता के स्रोत बने रहते हैं| अरक्षण के जरिए समतामूलक समाज का निर्माण होना तो दूर, एक अक्षमतामूलक मलाईदार तबका फलने-फूलने लगता है| साधारण लोग अपने परिश्रम और योग्यता के लंबे रास्ते पर चलने के बजाय आरक्षण की चोर गली से गुजरने के सपने देखने लगते हैं| यह सपना गुर्जर भी देखें तो उनका दोष क्या है? अब तो राजपूत और ब्राह्मण भी यही सपना देखने लगे हैं|
इस रंगीन सपने को हवा देने का काम हमारे राजनीतिक दल बड़े जोर-शोर से कर रहे हैं| कौन-सा राजनीतिक दल है, जो ईमान की बात करना चाहता है? जिन गरीबों और पिछड़ों को आरक्षण दिया जाता है, उन्हें ठोस लाभ मिले या न मिले, देनेवालों या दिलानेवालों को तो राजसत्ता मिल ही जाती है| आरक्षण जातिवाद को बढ़ावा देता है और जातीय आधार पर किया गया मतदान लोकतंत्र् की धज्जियाँ उड़ा देता है| यह मतदान आँख मींचकर किया जाता है| भले-बुरे का कोई विचार नहीं किया जाता| इसी कारण हमारे अनेक प्रांतों की सरकारें और उनके मुख्यमंत्र्ी भी आँख मींचकर ही शासन करते हैं| उनका शासन भ्रष्टाचार, लापरवाही और गंुडागर्दी का पर्याय बन जाता है| प्रांतों में हर साल कुछ सौ और केंन्द्र मेंं हर साल कुछ हजार नौकरियाँ ही आरक्षित होती हैं लेकिन सेंत-मेंत में मिलनेवाली इन नौकरियों की लालसा सारे राष्ट्र के शरीर में कैंसर की तरह फैल रही है| इसी उद्दाम लालसा की हिंसक अभिव्यक्ति हो रही है, राजस्थान में! यह दुखद है कि प्रदर्शनकारी सिर्फ वस्तुओं की हिंसा कर रहे हैं जबकि सरकार प्राणों की हिंसा कर रही है|
कोई भी सरकार कितने लोगों का प्राणहरण करेगी? जितने प्राण जाँएगे, लोग उतने ही कटिबद्घ होते चले जाएँगें| ये प्रदर्शनकारी आतंकवादी नहीं है| उनकी समस्या राजनीतिक है| उसका हल भी राजनैतिक ही होगा| दूसरा नहीं! राजनैतिक हल यह नहीं है कि उन्हें भी आरक्षण दे दिया जाए| इससे तो साँपों का पिटारा खुल जाएगा| असली हल तो यह है कि देश की समस्त नौकरियों से जातीय आरक्षण को तत्काल समाप्त किया जाए| संविधान में मूलभूत संशोधन किया जाए| नौकरियों में नहीं, केवल शिक्षा में आरक्षण दिया जाए और वह भी शिशु-शाला से दसवीं कक्षा तक! उच्च-शिक्षा मेंं आरक्षण के आधार पर नहीं, केवल योग्यता के आधार पर ही प्रवेश होना चाहिए!
आरक्षण देने के पीछे हमारे संविधानशास्त्र्ियों का जो लक्ष्य था, उसकी प्राप्ति आरक्षण को अविलंब समाप्त करने से ही होगी| यदि नौकरियों में आरक्षण समाप्त हो जाए और शिक्षा में शुरू जो जाए तो भारत में सामाजिक क्रांति का जबर्दस्त सूत्र्पात होगा| शिक्षा में आरक्षण का मतलब है, देश के सारे बच्चों को एक-जैसी शिक्षा दी जाए| एक-जैसी शिक्षा, एक-जैसा भोजन, एक-जैसे छात्रवास, एक जैसे वस्त्र् और एक-जैसी अन्य सुविधाएँ मिलें तो दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के बच्चे शहरियों और सवर्णों के बच्चों से भी आगे निकल जाएँगे| वे आरक्षण की बैसाखी को छूने से भी मना कर देंगे| वे आरक्षण को अपनी योग्यता का अपमान मानेंगे| सच्चे समतामूलक समाज का निर्माण होगा|
शिक्षा का आरक्षण नौकरियों के आरक्षण को अनावश्यक बना देगा| शिक्षा के आरक्षण का आधार जाति नहीं, छात्रें और उनके अभिभावकों की आर्थिक सामजिक स्थिति होगा| अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई और दो तरह की पाठशालाओं को पहले दिन ही अलविदा कहना होगा| ताकि बच्चे पढ़ाई से ऊबे नहीं, उसे छोड़कर अधबीच में भागे नहीं| बच्चों को कोरी किताबें रटाने की बजाय काम-धंधों की शिक्षा देना ज्यादा जरूरी है| उन्हें ‘पढ़ते की विद्या’ के साथ-साथ ‘करते की विद्या भी सिखाई जाए| वे नौकरियाँ झपटने में दिलचस्पी ही नहीं दिखाएँगे| एक नए और आत्म-निर्भर भारत का निर्माण होगा|
01 जून 2007
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