नवभारत टाइम्स, 02 जनवरी 2006 : कोई संसद अपने 11 सदस्यों को एक साथ निकाल बाहर करे, ऐसा पहले कभी देखा-सुना नहीं गया| निकालने में जो फुर्ती दिखाई गई, वह भी अपूर्व थी| अगर अदालत को मौका मिल जाता तो अंजाम शायद झारखंड रिश्वत कांड से भी बुरा हो सकता था| उस मामले में तो बाक़ायदा रिश्वत दी गई थी और रिश्वत लेकर सांसदों ने मतदान किया था| यहाँ तो अपराध नहीं, अपराध का नाटक हुआ था| स्टिंग ऑपरेशन! जलसाज़ी की गई थी, जिसमें सांसद फँस गए| अगर वे अदालत में चले जाते तो मामला तय होते-होते संसद के नए चुनाव आ जाते और न आते तो भी धारा 105 उन्हें यह कहकर बचा लेती कि संसद में कहे गए शब्दों और किए गए कामों को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती| ये सांसद अब अदालत में नहीं जा सकते, क्योंकि संसद स्वयं अदालत बन गई और उसने फैसला दे दिया| संसद से बड़ी अदालत दुनिया में कोई नहीं है| इस मामले में उच्चतम न्यायालय संसद से पंजे लड़ाएगा, ऐसी आशंका दूर-दूर तक नहीं है| दूसरे शब्दों में संसद ने अपने सांसदों को निकालकर संसदीय सर्वोच्चता के सिद्घांत पर मुहर लगा दी है| लगता है कि संसद ने अपना इलाज़ खुद कर लिया है| लेकिन क्या वाकई ऐसा हुआ है?
रिश्वत की जालसाज़ी में फँसे सांसदों में सबसे ज्यादा भाजपा के थे, इसीलिए निष्कासितों के प्रति भाजपा-नेताओं की नरमी समझ में आती है| दोनों जालसाजि़यों (चक्रव्यूह और दुर्योधन) में लगभग पौन दर्जन सांसदों का खोया जाना उस पार्टी के लिए बड़ा धक्का है, जिसके पास अभी डेढ़-सौ सदस्य भी नहीं हैं| जो भाजपा की हानि है, वह काँग्रेस का लाभ है| ज़रा कल्पना करें कि 18 में से यदि काँग्रेस के 10-12 सदस्य होते तो क्या होता? शायद वही होता जो झारखंड रिश्वत और हवाला कांड में हुआ या दल-बदल के मामले में हुआ था| काँग्रेस शायद भाजपा से भी ज्यादा नरम पड़ जाती| सत्तारूढ़ दल चाहे जो हो,
जब वह फँसता है तो वह उस मामले को दूसरे चश्मे से देखता है| उत्तर प्रदेश विधानसभा में जब दल-बदल हुआ तो सत्तारूढ़ भाजपा-नेतृत्व ने गज़ब की कलाकारी दिखाई थी| दूसरे शब्दों में सांसदों के आचरण को हमारी संसद ने किस कसौटी पर कसा, यह कहना कठिन है| वह कसौटी नैतिकता की थी या राजनैतिकता की थी? राजनैतिक कसौटी सबसे सरल है| अपने हैं, इसलिए बचाओ : दूसरे के हैं, इसलिए मारो, यह सीधी-सी पहचान है, राजनैतिक कसौटी की! राजनैतिक कसौटी, दलों को ही नहीं, संसद को भी सुविधाजनक लगती है| बदनामी से बचने का यही सबसे सरल उपाय था| 11 को डुबोओ और शेष पौने आठ सौ को तिराओ| मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी! अगर 11 लोगों को बेईमान मान लेने से शेष पौने आठ सौ की ईमानदारी का सिक्का जमता हो तो यह सौदा बुरा नहीं है| जो पकड़े गए सो चोर, जो बच गए सो साहूकार!
जो बच गए, उन्हें साहूकार मानने को कौन तैयार होगा? एक सांसद किसी दूसरे सांसद को साहूकारी का प्रमाण-पत्र् नहीं दे सकता| राजनीति का बाज़ार ही कुछ ऐसा है कि इसमें साहूकार की दुकान चल ही नहीं सकती| जैसा कि पंजाबी में कहते हैं, यहाँ तो आवा का आवा ही ऊत गया है| साहूकारों को साहूकार तो नहीं, बुद्घिमान जरूर कह सकते हैं| बुद्घिमान याने चतुर, जो पकड़े नहीं जा सकें| जो पकड़े गए, उन्हें आडवाणीजी ने ‘नादान’ कहा है| वे भोले हैं, जो जाल में फँस गए| यहाँ असली मुद्दा-ईमानदारी-नेपथ्य में चला गया है| नक़ली मुद्दा असली बन गया है| असली मुद्दा यह है कि राजनीति में वे ही फलेंगे-फूलेंगे, जो चतुर हैं| इन चतुर लोगों को आप ईमानदार बनाएँ, यह तो मुद्दा ही नहीं है| यह अ-मुद्दा है| मुद्दा यह है कि जो चतुर हैं, वे ज्यादा चतुर कैसे बनें? वे जितने चतुर होंगे, हाथ की सफाई उतनी ही बेहतर करेंगे| वे पकड़ने वालों को भी पकडव़ा देंगे|
ये चतुर सुजान प्रश्न पूछने का पैसा नहीं लेंगे या सांसद निधि में से पैसा नहीं खाएँगे तो क्या भूखों मरेंगे? नहीं, नहीं, अपने पेट भरने के कई सूक्ष्म और स्थूल तरीकों का उन्होंने पहले से ही अविष्कार कर रखा है| अब चुनाव-फंडिंग उन्हे मिलेगा तो एक नई मुर्गी उनके हाथ लगेगी| मुर्गी और अंडे, दोनों का वे मजे से सेवन करेंगे| सभी दलों के नेता सांसदों को सुधारने के लिए वित्त-व्यवस्था बदलने पर आमादा हैं, चित्त-व्यवस्था पर किसी का ध्यान नहीं है| हमारे नेताओं को क्या हो गया है कि वित्त के अलावा उनका चित्त किसी अन्य चीज़ में लगता ही नहीं है| बड़े नेता बडे़ माल पर हाथ साफ़ करते हैं और छोटे नेता छोटे माल पर! इन दोनों जालसाजि़यों में जो फँस गए, वे लोग कौन हैं? उनमें नामी-गिरामी कोई नहीं हैं| ज्यादातर गरीब, ग्रमीण, अल्प-शिक्षित और कमज़ोर वर्गों के सांसद हैं| कल्पना कीजिए कि इन्हीं दलों के बड़े नेता फँस जाते तो क्या होता? सारी संसद टूट पड़ती| मछलियाँ नहीं मरतीं, जाल टूट जाता| सच्चाई तो यह है कि ये ‘चतुर’ नेतागण मछलियाँ नहीं, मगरमच्छ हैं| ये कीडे़-मकोडे़ नहीं खाते| ये प्रश्न पूछने, टेलिफोन और गैस दिलवाने, सड़क और पेशाबघर बनवाने में नहीं खाते| ये खाते हैं, तोपों में, बंदूकों में, बोइंग में, बिजलीघरों में, पाइपलाइनों में| ये लोग बड़े देशभक्त होते हैं| इस पाप की कमाई का लेन-देन ये अपनी पवित्र् मातृभूमि में नहीं करते| उसे वे स्विट्रजरलैंड और सेंट किट्रस की बैंकों में छुपाकर रखते हैं| यह सतत रिश्वतखोरी का सबसे विषाक्त पहलू है| सतत रिश्वतखोरी ही उनकी प्राणवायु है| क्या इस प्राणवायु को कोई संसद देख सकती है, पकड़ सकती है, अपने वश में कर सकती है? छोटी-मोटी 11 मछलियों को तलकर संसद ने अपनी सर्वोच्चता का सिक्का तो जमा लिया लेकिन भ्रष्टाचार के सर्वोच्च शिखर पर बैठे गिद्घों और बाज़ों पर क्या वह कभी हाथ डाल पाई? कितनी असहाय और निरूपाय है, हमारी संसद! इसमें संसद का क्या दोष है? जो दल और नेता हमारी संसद को अपने नियंत्र्ण में रखते हैं, क्या वे उसे कभी पैसे के प्रभाव से मुक्त होने देंगे? पैसा न होगा तो वे दल कैसे चलाएँगे, उम्मीदवारों को चुनाव कैसे लड़ाएँगे| लगता है, संसदीय राजनीति और भ्रष्टाचार एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए हैं| इसीलिए संसद का इलाज़ संसद नहीं कर सकती| विधानपालिका का इलाज़ न्यायपालिका, खबरपालिका और जागरूक जनता मिलकर कर सकते हैं|
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