Nav Bharat Times, 17 March 2005 : लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को गुस्सा क्यों आया? शायद इसीलिए कि वे विधानपालिका की प्रतिष्ठा के सबसे बड़े रक्षक हैं| उन्हें लगा कि झारखंड के बारे में उच्चतम न्यायालय ने जो आदेश जारी किया है, वह संसद और विधानसभा के काम-काज में सीधा हस्तक्षेप है| लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन है| उन्होंने इस उल्लंघन का सामना करने के लिए सभी दलों को बुलाया लेकिन अब वे अकेले पड़ गए हैं| कॉंग्रेस भी उनके साथ नहीं है| भाजपा ने तो पहले दिन ही विरोध कर दिया था| अब चटर्जी क्या कर सकते हैं? कुछ नहीं| संविधान उन्हें यह अधिकार नहीं देता है कि वे इस मामले को धारा 143 के तहत न्यायिक संदर्भ के लिए राष्ट्रपति के पास भेज सकें| वे तो भेजना चाहते हैं लेकिन मंत्रिमंडल नहीं चाहता| अब क्या करें? अब वे विधानसभा अध्यक्षों की बैठक बुलवाना चाहते हैं| क्या वे चाहते हैं कि न्यायपालिका और विधानपालिका में मुठभेड़ हो जाए? वैसी ही जैसी लखनऊ में हुई थी| जाहिर है कि सोमनाथ चटर्जी जैसे अनुभवी और सुयोग्य सांसद ऐसा कभी नहीं चाहेंगे| यदि वे ठंडे दिमाग से सोचेंगे तो निश्चय ही उनकी राय बदल जाएगी|
यह विवाद न्यायपालिका बनाम विधानपालिका का है ही नहीं| यदि चटर्जी उच्चतम न्यायालय के आदेश का मूल पाठ उसी दिन देख लेते तो शायद उन्हें गुस्सा आता ही नहीं| टी वी चैनलों और अखबारों में प्राय: मूल पाठ नहीं दिए जाते| ये बड़े लम्बे और उबाऊ होते हैं| 9 मार्च को जारी किया गया आदेश सिर्फ तीन पृष्ठों का है और काफी सरल है| इस आदेश का मूल पाठ पढ़कर ऐसा लगता है कि उच्चतम न्यायालय ने संसद और विधानसभाओं की गरिमा की रक्षा बहुत दृढि़ता से की है| यदि उच्चतम न्यायालय वह आदेश जारी नहीं करता तो विधानपालिका की सारी इज्जत धूल में मिल जाती| झारखंड विधानसभा के साथ राज्यपाल, मुख्यमंत्री और कामचलाऊ अध्यक्ष बलात्कार करते और भारत का पवित्र संविधान लहू-लुहान हो जाता| लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को चाहिए कि अध्यक्षों के सम्मेलन में वे उच्चतम न्यायालय की आलोचना करने की बजाय उसके अभिनंदन का प्रस्ताव पारित करवाऍं|
उच्चतम न्यायालय के इस आदेश में सबसे पहले अध्यक्ष-पद की मर्यादा का ही सवाल उठाया गया है| मुख्य न्यायाधीश आर.सी. लाहोटी और उनके दो साथी जजों ने पूछा कि बालामुचु को कामचलाऊ अध्यक्ष किस आधार पर बनाया गया है? संविधान के अनुसार सबसे वरिष्ठ सदस्य को बनाया जाना चाहिए| बालामुचु कनिष्ठ हैं, उन्हें कैसे बनाया गया? क्या इस सवाल को सोमनाथ चटर्जी गलत कह सकते हैं? क्या इस सवाल से अध्यक्ष-पद की मर्यादा नहीं बढ़ी है? इससे कौन अधिक बलवान हुआ है? क्या अध्यक्ष-पद बलवान नहीं हुआ है? अध्यक्ष बलवान होगा, प्रामाणिक होगा और निष्प्क्ष होगा तो विधानसभा या लोकसभा की धमक और चमक तो अपने आप बढ़ ही जाएगी|
जजों का दूसरा सवाल था कि एंग्लो-इंडियन सदस्य को नामज़द क्यों किया गया? इतनी जल्दी क्यों की गई? विधानसभा में मतदान तक क्यों नहीं रुका गया? इसीलिए कि एक-एक सदस्य का अत्यधिक महत्व था| वाजपेयी सरकार केवल एक वोट से ही गिरी थी| शिबू सोरेन एक-एक वोट के लिए जान लगाए हुए थे| सोरेन को, राज्यपाल को, कामचलाऊ अध्यक्ष को इस बात से क्या फर्क पड़ता था कि केवल एक नामजद सदस्य झारखंड की सारी जनता के चुनावी फैसले को उलटवा देता| विधानसभा के सारे चुनाव को ही पलीता लग जाता| यहॉं यह तय होना था कि कौन बड़ा है, नामजदगी या आम चुनाव? उच्चतम न्यायालय ने नामजदगी के मुकाबले चुनाव को बड़ा बनाया? उसने उस प्रक्रिया को गरिमा दी, जिसके गर्भ से विधानसभा जन्म लेती है| ऐसी न्यायपालिका की भर्त्सना अध्यक्षगण भला क्यों करेंगे? यदि चटर्जी ज़ोर देंगे तो अभी तो राजनीतिक दलों के बीच वे अकेले पड़े हैं, फिर अध्यक्षों के बीच भी अकेले पड़ जाएंगे|
उच्चतम न्यायालय ने अपनी संक्षिप्त टिप्पणियों के बाद जो सात निर्देश दिए हैं, उनसे भी विधानपालिका मजबूत होती है| राष्ट्रपति की घुड़की के बाद राज्यपाल ने मत-परीक्षण की तारीख 21 की बजाय 15 मार्च कर दी थी| उसे न्यायालय ने 11 मार्च कर दी, यह कहते हुए कि यदि विधानसभा का सत्र 10 मार्च को शुरू हो रहा है तो शपथ के तुरंत बाद ही मतदान क्यों न हो? विधानसभा को चार दिन अधर में क्यों लटकाया जाए? हेराफेरी की छूट क्यों दी जाए? क्या इस निर्णय से विधानसभा की गरिमा को चोट पहॅुंचती है? अदालत ने सिब्ते रज़ी को उस तरह विधानसभा बुलाने को भी मजबूर नहीं किया, जैसा कि 1998 में उत्तर प्रदेश में रमेश भंडारी को किया था| उसने तो बस विधानसभा की चलती हुई प्रक्रिया में ईमानदारी के तत्व को जोड़ दिया| अदालत ने विधानसभा मतदान पर केंद्रीय पर्यवेक्षक नियुक्त करने के प्रस्ताव को नहीं माना लेकिन सारी कार्रवाई की वीडियो फिल्मों का आदेश देकर उसने संभावित धींगामुश्ती पर लगाम लगाने की कोशिश की| अदालत का अंदेशा सही निकला| सदन में बाक़ायदा धींगामुश्ती हुई| अदालत ने झारखंड के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक को भी आदेश दिया कि 81 सदस्यों की सुरक्षा, आवागमन और मुक्त मतदान की बाधाओं को वे दूर करें| इन निर्देशों से विधायी प्रक्रिया कमज़जोर होती है या मज़बूत होती है? विधानपालिका के समर्थकों को न्यायपालिका का ऋणी होना चाहिए कि उसने उनका चीर-हरण नहीं होने दिया|
उच्चतम न्यायालय ने सारा फैसला फूंूक-फूंककर दिया है, इसीलिए उस पर कोई सीधी आपत्ति नहीं की जा सकती| झारखंड के सारे घटना-क्रम ने उसके औचित्य पर मुहर लगा दी है| यदि अदालत गलत होती तो इंदिरा गॉंधी की तरह सोनिया गॉंधी भी उससे टक्कर ले सकती थीं लेकिन शिबू सोरेन और बालामुचु के इस्तीफों ने सिद्घ कर दिया कि अदालत सही थी| अदालत चाहती तो बालामुचु की अध्यक्षता में मतदान होने ही नहीं देती| लेकिन अदालत ने नरमी बरती याने वह अपना रौब झाड़ने पर आमादा नहीं थी| यदि अदालत चाहती तो वह मतदान के पहले राज्यपाल, मुख्यमंत्री और कामचालऊ अध्यक्ष को बदलने का फैसला भी दे सकती थी और राजनीतिक दृष्टि से वह भी सही होता| ऐसा फैसला उग्र होने के बावजूद भी विधानपालिका-विरोधी नहीं कहलाता| हॉं उसे कार्यपालिका-विरोधी जरूर कहा जा सकता था| उसे केंद्र सरकार-विरोधी भी माना जाता लेकिन वास्तव में वह वैसा ही होता तो भी उसके कारण चटर्जी के चिढ़ने का कोई औचित्य कैसे बनता? वह मामला न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका होता, न्यायपालिका बनाम विधानपालिका नहीं ! केशवानंद भारती के मामले से झारखंड के मामले की कोई तुलना नहीं होती|
वास्तव में उच्चतम न्यायालय अगर सोया रहता या दादागीरी करता तो झारखंड का मामला काफी तूल पकड़ लेता| भारत का संविधान आहत होता| राजनीतिक संकट खड़ा हो जाता| एक तरफ होते – राष्ट्रपति, न्यायपालिका, विरोधी दल और भारत की जनता और दूसरी तरफ होते कॉंग्रेस, सरकार और शिबू सोरेन एंड कंपनी ! भारतीय लोकतंत्र के सिर पर अतिवाद के आरे चलने लगते| मध्यममार्ग का अनुसरण करके उच्चतम न्यायालय ने संविधान की रक्षा की है| भारत को अतिवाद से बचाया है| इस पवित्र कर्तव्य में सबसे सराहनयी योगदान मनमोहन मंत्र्िा-मंडल का है, जिसने शिबू सोरेन से तत्काल इस्तीफा मॉंग लिया| इस कदम सेे प्रधानमंत्री की इज्जत बढ़ी है| देर आयद, दुरुस्त आयद ! सारे मामले में सबसे ज्यादा नुक्सान किसी का हुआ है तो वह सोनिया गॉंधी का हुआ है, सिब्ते रज़ी का हुआ है, शिबू सोरेन का हुआ है| सोमनाथ चटर्जी का क्या बिगड़ा है? संसद का या विधानसभाओं का या अध्यक्षों का क्या बिगड़ा है? उनके अधिकारों और गरिमा की तो रक्षा ही हुई है| सोमनाथ चटर्जी खाली-पीली बोम क्यों मार रहे हैं?
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