नवभारत टाइम्स, 19 फरवरी 2007 : उत्तर कोरिया में जो हुआ है, वह किसी चमत्कार से कम नहीं है| ईरान और उत्तर कोरिया, दोनों पर ही अमेरिका की तोप तनी हुई थी| यह तोप कभी भी चल सकती थी| जो गति एराक़ की हुई, वही दोनों राष्टों की हो सकती थी| एराक़ में बहाना रासायनिक हथियारों का था और यहां परमाणु हथियारों का है| उ. कोरिया ने तो कोई पर्देदारी भी नहीं रखी| उसने पहले परमाणु अप्रसार संधि का परित्याग किया और 9 अक्तूबर 2006 को परमाणु-विस्फोट भी कर दिया| वह दुनिया का 8वां परमाणु-राष्ट्र बन गया| उसका मामला ईरान से भी ज्यादा खतरनाक हो गया| ईरान ने न तो परमाणु अप्रसार संधि को रद्द किया है और न ही यह दावा किया है कि वह परमाणु हथियार बनाएगा| दूसरे शब्दों में उ. कोरिया ने खुद पर अमेरिकी आक्रमण को पूरी तरह न्यौता दे दिया था लेकिन अब 13 फरवरी 2007 को जो पेइचिंग-समझौता हुआ है, उसके अन्तर्गत उ. कोरिया ने अमेरिका, चीन, रूस, जापान और दक्षिण कोरिया को आश्वस्त किया है कि वह अपने याँगब्योन परमाणु परिसर को अगले 60 दिन में बंद कर देगा और बदले में जापान के अलावा शेष चारों राष्ट्र उसे 50 हजार टन भारी तेल देंगे| वह अपने शेष सभी परमाणु-कार्यक्रमों को भी अगले 60 दिन में ठप्प कर देगा और बदले में चारों राष्ट्र उसे साढ़े नौ लाख टन भारी तेल देंगे| इन राष्ट्रों ने उसे अन्य आर्थिक और मानवीय सहायता के आश्वासन भी दिए हैं| अमेरिका ने उ. कोरिया पर लगे प्रतिबंध उठाने, राजनयिक मान्यता देने और आर्थिक संबंध बढ़ाने का भी वादा किया है| दूसरे शब्दों में जिन अमेरिकी तोपों से उ. कोरिया पर गोले दगने थे, उनसे अब फुलझडि़यां बरस रही हैं| यह किसी चमत्कार से कम नहीं है|
यह चमत्कार आशा बंधाता है कि जैसे उ. कोरिया का मामला सुलझा है, वैसे ही एराक़ और ईरान तथा फलीस्तीन और तालिबान के मामले भी बातचीत से सुलझ सकते हैं| सबसे पहले तो यह जाना जाए कि उ. कोरिया का यह पेचीदा मामला आखिर सुलझा कैसे ? यह एकदम स्पष्ट है कि यदि चीन मध्यस्थता नहीं करता तो यह मामला बिल्कुल नहीं सुलझ सकता था| उ. कोरिया और अमेरिका के बीच पिछले तेरह वर्षों में पहले भी दो समझौते हो चुके हैं, 1994 और 2005 में, लेकिन वे भंग हो गए| यह समझौता इसीलिए चल पाएगा कि चीन इसके पीछे है| चीन और उ. कोरिया का संबंध उतना ही घनिष्ट है, जितना नाभि-नाल का होता है| उ. कोरिया की तेल की लगभग पूरी खपत की पूर्ति चीन करता है| वह उसका सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है| उ. कोरिया को खाद्यान्न भी सबसे ज्यादा चीन ही देता है| अपने रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीजों के लिए उ. कोरिया पूरी तरह चीन पर निर्भर है| उ. कोरिया के परमाणु-कार्यक्रमों से जापान तो सशंकित रहता है लेकिन चीन कोई खतरा महसूस नहीं करता| बल्कि माना जाता है कि चीन के इशारे पर ही उ. कोरिया ने पाकिस्तान को परमाणु मिसाइल सप्लाय किए| दोनों देशों के सबंध इतने घनिष्ट हैं कि पिछले दिनों सुरक्षा परिषद्र द्वारा थोपे गए प्रतिबंधों के बावजूद चीन ने उ. कोरिया के मालवाहकों की तलाशी लेना जरूरी नहीं समझा| उसने भी प्रतिबंध लगाए लेकिन साथ-साथ यह भी कहा कि उ. कोरिया के साथ उसके मैत्री-संबंध अडिग हैं और वे घनिष्टतर होते चले जाएंगे| चीन ने उ. कोरिया के विरुद्घ सैन्य कार्रवाई का भी डटकर विरोध किया| इसीलिए चीनी पहल का उ. कोरिया ने स्वागत किया और चीन की राजधानी पेइचिंग में छह-राष्ट्र अपनी संयुक्त-वार्ता चलाते रहे| उ. कोरिया के नेताओं को पूरा विश्वास था कि चीन उन्हें किसी भी प्रकार के घाटे में नहीं रहने देगा और सचमुच इस समझौते में कोरिया को जितना नीचे उतरना पड़ा है, उससे ज्यादा नीचे अमेरिका को उतरना पड़ा है|
इस समझौते में उ. कोरिया ने न तो परमाणु अप्रसार संधि में वापस लौटने की बात कही है और न ही अपने समस्त परमाणु हथियारों, परमाणु इंर्धन और परमाणु-संयंत्रें को नष्ट करने का वादा किया है| केवल उन्हें निष्क्रिय करने का भरोसा दिया है और बदले में वह सब कुछ ले लिया है, जो उसे 1994 और 2005 के समझौतों से मिलना था| कोरियाई प्रायद्वीप के परमाणुविहीनीकरण की बात इस समझौते में कही जरूर गई है लेकिन उसके पहले कई शर्तें लगाई गई हैं| यद्यपि उ. कोरिया आर्थिक दृष्टि से बहुत कमज़ोर है और निहायत पिछड़ा हुआ राष्ट्र है लेकिन उसके स्तालिनवादी नेताओं की इच्छा-शक्ति इतनी प्रबल है कि उन्होंने अमेरिका और चीन को भी ठेंगा दिखाते हुए अक्तूबर 2006 में बम-विस्फोट कर दिया| इसी आधार पर यह माना जा रहा है कि यदि वार्तारत राष्ट्रों ने अपनी शर्तें पूरी नहीं कीं तो यह समझौता दुबारा खटाई में पड़ सकता है| यह समझौता अगर केवल अमेरिका और उ. कोरिया के बीच होता तो इसके विफल होने की संभावनाएं बहुत ज्यादा होतीं लेकिन अब शेष चार राष्ट्रों का अमेरिका पर इतना दबाव रहेगा कि वह अपने वादों से मुकर नहीं पाएगा| अमेरिका के कुछ अतिवादी नीति-निर्माता इस समझौते का विरोध कर रहे हैं| संयुक्त राष्ट्र में रहे अमेरिका के पूर्व राजदूत जॉन बोल्टन का कहना है कि यह समझौता सुरक्षा परिषद्र के प्रस्ताव 1718 का पूर्ण उल्लंघन है| कुछ हद तक बोल्टन की बात सही है लेकिन यहां प्रश्न यह है कि अमेरिका ने आखिर उ. कोरिया के आगे घुटने क्यों टेके ? इसका एक जवाब तो यही है कि उ. कोरिया के बहाने परमाणु-अपराधी राष्ट्रों को नियंत्रित करने का एक नया तरीका हाथ लग गया है| दूसरा जवाब यह हो सकता है कि अमेरिका एक साथ ईरान और उ. कोरिया पर हमला करने की स्थिति में नहीं था और तीसरा जवाब यह हो सकता है कि अमेरिका उ. कोरिया के संरक्षक चीन से मुठभेड़ नहीं करना चाहता था|
इन जवाबों में से एक नया सवाल उठ खड़ा होता है| वह यह कि उ. कोरिया की तरह ईरान भी अब परमाणु-ब्लेकमेल क्यों न करे ? ईरान भी बम फोड़ दे और फिर कोई समझौता कर ले| अमेरिकी समझौते ने क्या ईरान के लिए नया रास्ता नहीं खोल दिया है ? रिंद के रिंद रहे और जन्नत भी न गई| उ. कोरिया जैसे 8वीं परमाणु-शक्ति बन गया है, वैसे ही ईरान नौंवी परमाणु-शक्ति क्यों नहीं बन जाए ? निश्चय ही ईरान उ. कोरिया के चरण-चिन्हों पर चल सकता है लेकिन क्या ईरान के लिए रूस वही रोल अदा करेगा जो उ. कोरिया के लिए चीन ने किया है ? इसके अलावा, अगर ईरान ने बम बनाने का संकल्प कर ही रखा है तो उसे इस संकल्प से कोई लालच डिगा नहीं सकेगा, क्योंकि वह उ. कोरिया की तरह गरीब और पर-निर्भर राष्ट्र नहीं है| ईरान को परमाणु-शक्ति बनने से रोकने का तरीक़ा वह नहीं है, जो अमेरिका अपना रहा है| वह तरीक़ा उ. कोरिया में फेल हो चुका है| यदि अमेरिका उ. कोरिया के साथ हुए अपने पिछले समझौतों को ईमानदारी से लागू कर देता और उसे गीदड़भभकियां नहीं देता तो वह परमाणु-बम का विस्फोट ही क्यों करता ?
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