3 Aug 2005 : जब डॉ. मनमोहन सिंह वाशिंगटन में भारत-अमेरिका परमाणु-सहयोग के समझौते पर दस्तखत कर रहे थे, मैं चीन में था| शांघाइ में एकेडेमी ऑफ वर्ल्ड वाच, पेइचिंग विश्वविद्यालय और शांघाइ सामरिक संस्थान के विद्वानों के साथ गहन विचार-विमर्श हुआ| इन चीनी विद्वानों में से कुछ चीनी सरकार के सलाहकार भी थे| अपने दक्षिण एशियाई देशों के कुछ चुने हुए विशेषज्ञ भी थे| विषय था -दक्षिण एशिया में सामरिक और आर्थिक सहयोग| मेरे मुख्य व्याख्यान के बाद ज़रा अजूबा हुआ| किसी एक भी चीनी विद्वान ने कश्मीर या अफगानिस्तान या नेपाल या बांग्लादेश संबंधी सवाल नहीं उठाया, हालांकि वे इन देशों के जानकार थे| लगभग सबने घुमा-फिराकर यही सवाल किया कि बुश-मनमोहन समझौते का निहितार्थ क्या है? क्या यह चीन के विरुद्घ है? क्या भारत परमाणु अप्रसार-संधि पर भी दस्तखत करेगा? क्या अमेरिका भारत को वीटोधारी बनाकर सुरक्षा परिषद्र में बिठा देगा? क्या भारत अमेरिका का परमाणु-कवच स्वीकार करेगा? क्या वह जापान और कोरिया की तरह एशिया में अमेरिकी हितों की पहरेदारी करेगा? क्या चीन के सामरिक घेराव में भारत भी प्यादे की भूमिका निभाएगा? क्या भारत-चीन व्यापार की उत्तुंग-धारा अधोगामी हो जाएगी? क्या मध्य एशिया से भारत और चीन तक आनेवाली गैस और तेल की पाइपलाइनें अब ताक पर धर दी जाएंगी? क्या भारत अमेरिका के इशारे पर हिंद महासागर की चौकीदारी करेगा? क्या वह एराक, अफगानिस्तान और शायद ईरान में भी अमेरिका के मैले कपड़े धोने के लिए अपनी फौजें भेजेगा? क्या वह अपनी शस्त्रास्त्र पद्घति रूसी ढर्रे से निकालकर अमेरिकी ढर्रे पर चलाएगा? क्या अमेरिका अब भारत को ऊपर उठाएगा और पाकिस्तान को नीचे सरकाएगा?
इस तरह के सवालों की झड़ी लग गई लेकिन इन सवालों में कहीं भी भारत के प्रति कोई रोष या व्यंग्य दिखाई नहीं पड़ा| जो दिखाई पड़ रही थी, वह थी चीनियों की चिंता ! अपने राष्ट्रहितों की चिंता ! यह चिंता अनुचित नहीं मानी जा सकती| इसीलिए मैंने भी आक्रामक रवैया नहीं अपनाया| मैंने उनसे पूछा कि आपको भारत से क्या शिकायत है? भारत का क्या दोष है? इस समझौते में ऐसी कौनसी बात है, जो चीन के विरुद्घ जाती है? कृपया यह बताएं कि भारत को चीन से क्या खतरा है? तिब्बत की समस्या प्रधानमंत्री वाजपेयी ने हल कर ही दी है और सीमा-वार्ता गरिमापूर्ण ढंग से चल ही रही है| पारस्परिक व्यापार छलांग भर रहा है| 15 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है| आज तक किसी देश के साथ हमारा व्यापार इतनी तेज़ रफ्तार से नहीं बढ़ा| कई देशों में भारत और चीन मिलकर संयुक्त उद्यम लगा रहे हैं| गैस और तेल की संयुक्त पाइपलाइनों की योजना बन रही है| कश्मीर के सवाल पर चीन ने पाकिस्तान का एकतरफा समर्थन बंद कर दिया है| बर्मा, श्रीलंका और नेपाल के आंतरिक मामलों के बारे में भी भारत और चीन का रवैया लगभग मिलता-जुलता है| विश्व व्यापार संगठन में दोनों देशों का लगभग संयुक्त मोर्चा बना हुआ है| चीन के मर्म-ताइवान-के सवाल पर भी भारत काफी सतर्क है| चीन ने सुरक्षा परिषद्र में भारत की सदस्यता का समर्थन किया है, हालांकि उसे जापान से एतराज है| भारत और चीन मिलकर 21वीं सदी को एशिया की सदी बनाना चाहते हैं| ऐसे में वह कौनसा कारण है, जो भारत को चीन के विरुद्घ जाने के लिए प्रेरित कर सकता है? चीनी विद्वानों से मैंने पूछा कि आप बताएं कि चीन भारत को कहां-कहां नुकसान पहुंचा रहा है या पहुंचाना चाहता है, जिसकी वजह से भारत अमेरिका की शरण में जाए? क्या भारत के नेताओं का दिमाग खराब हो गया है कि वे बैठे-बिठाए चीन की दुश्मनी मोल लेंगे? क्या भारत के नेताओं को अंतरराष्ट्रीय राजनीति का यह ध्रुव सत्य पता नहीं है कि किसी भी राष्ट्र की खातिर कोई अन्य राष्ट्र अपनी सुरक्षा को खतरे में नहीं डालता? इन उत्तरों के बावजूद चीनी विद्वान यह पूछते रहे कि आपके रक्षा मंत्री ने यह रक्षा-फ्रेमवर्क कैसे मान लिया? उन्हें बुश-मनमोहन समझौते पर उतनी आपत्ति नहीं थी, जितनी कि रम्सफेल्ड-प्रणव मुखर्जी समझौते पर थी|
भारत के इरादों पर तो उनकी जिज्ञासा शांत अवश्य हुई लेकिन उन्होंने अमेरिका को कोसे बिना दो तथ्यों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया| एक तो उन्होंने अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस के तोक्यो की सोफिया युनिवर्सिटी (19 मार्च) में दिए गए भाषण का जिक्र किया| इस भाषण में श्रीमती राइस ने अमेरिका-जापान, अमेरिका-कोरिया और अमेरिका-भारत के रिश्तों को इस दृष्टि से महत्वपूर्ण बताया कि वे चीन को बेलगाम न होने देंगे| यहां इस ‘बेलगाम’ शब्द का क्या अर्थ है, यह चीनियों ने पूछा| मैंने कहा इसका अर्थ कोंडॉलीज़ाजी से ही पूछिए| वे ही बताएंगी| यह हमारी भाषा नहीं है और हम इस विचार में शरीक नहीं हैं| यह जॉर्ज केन्नान की भाषा है, जो उन्होंने शीतयुद्घ के मंगलाचार की तरह 1948 में बोली थी| दूसरा मुद्दा चीनियों ने उठाया, पेन्टागॉन की एक रपट का – ‘भारत-अमेरिका सैन्य संबंध’ का| अक्तूबर 2002 में प्रकाशित इस रपट में अमेरिकी फौजी विशेषज्ञों ने कहा था कि भारत को अपना फौजी सहयोगी बनाया जाना चाहिए ताकि उसे अमेरिका के छोटे-मोटे सैनिक मिशन सौंपे जा सकें और बड़ी सैन्य-चुनौतियों के लिए अमेरिकी फौज को मुस्तैद रखा जा सके| इसके अलावा भारत को चीन के मुकाबले एक मोहरा बनाकर भी खड़ा किया जाए| इस रपट पर चीनी अखबार और टी वी चैनलों ने आग बरसाना शुरू कर दी थी| चीनी सरकार के प्रवक्ता की भी कठोर टिप्पणी चीनी अखबारों ने छापी| इसी माहौल में मनमोहन सिंह वाशिंगटन में भारत-अमेरिकी समझौता सम्पन्न कर रहे थे| चीनियों को समझाना काफी कठिन मालूम पड़ रहा था लेकिन इस प्रश्न का उनके पास कोई जवाब नहीं था कि कोन्डॉलीज़ा राइस के बयान और उक्त रपट के कारण क्या चीन अमेरिका से अपना व्यापार बंद कर सकता है, क्या राजनयिक संबंध भंग कर सकता है, क्या कटुता पैदा कर सकता है? अगर नहीं तो भारत से यह उम्मीद क्यों की जाए कि वह अमेरिका को अछूत घोषित कर दे? चीन या पाकिस्तान की हानि किए बिना अगर भारत अमेरिका के साथ अपने संबंध घनिष्ठ बना सकता है तो क्यों नहीं बनाए?
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