R Sahara, 4 Nov 2004 : इस बार शंघाई में चीनी विद्वानों के साथ जो गहन सम्वाद हुआ, उसके पहले दौर में ही अनेक रचनात्मक संकेत मिल गए| भारत और चीन के बीच छोटे-मोटे अनेक मतभेद हैं| उनके बावजूद चीनी विद्वानों ने कोई ऐसी टिप्पणी नहीं की कि भारतीय विद्वानों को उसका कड़ा प्रतिवाद करना पड़ता| सच्चाई तो यह है कि तीन दिन की धुऑंधार बहस में से सहमति के कई नए बिंदु उभरे, उनका त्वरित असर चीनी विदेश नीति पर भी दिखाई पड़ा| मई में हुए सम्वाद के मुकाबले अक्तूबर के सम्वाद में काम की बातें ज्यादा हुईं| मई में हुए सम्वाद में दोनों तरफ से ज्यादा विद्वानों ने भाग लिया था लेकिन वह एक-दूसरे को टटोलने भर का प्रयास था| यह सम्वाद शंघाई की ‘विश्व अवलोकन अकादमी’ की ओर से आयोजित किया गया था| अकादमी की ओर से राजदूत सुखदेव मुनि, प्रो. सतीशकुमार और मुझे आमंत्रित किया गया था|
यह अद्भुत संयोग था कि उधर चीनियों ने अपने उच्च-स्तरीय नीति-निर्माताओं से हमारा सम्वाद आयोजित किया और इधर चीन के पूर्व विदेश मंत्री और भारी-भरकम नेता थांग च्या सुआन भारत आए| श्री थांग ने भारत आते ही ऐसी प्रसन्नतावर्धक बात कही, जो किसी भी चीनी नेता ने पहले नहीं कही थी| उन्होंने सुरक्षा परिषद्र में भारत की स्थायी सदस्यता का दो-टूक समर्थन तो नहीं किया लेकिन यह जरूर कहा कि सुरक्षा परिषद्र में भारत जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहता है, उसका वे समर्थन करते हैं| अब तक चीन का रवैया भारत-विरोधी रहा था| अमेरिका की तरह चीन भी नहीं चाहता था कि भारत वीटोधारी महाशक्ति कहलाए| लेकिन चीन अभी थोड़ा पिघला है| उसके अब तक के नकारात्मक रवैए को समझने और सुलझाने का हमें शंघाई में अत्यंत सामयिक अवसर मिला| ऐसा लगता है कि भारतीय प्रतिनिधि मंडल के तर्कों का चीनियों पर सीधा असर हुआ|
भारत के विरुद्घ मुख्य चीनी आपत्ति यह थी कि उसने विश्व-व्यवस्था का उल्लंघन करके परमाणु-विस्फोट किया| एक चीनी विद्वान ने कहा कि आपने अग्नि मिसाइल भी बनाया, जो चीन पर भी निशाना दाग सके| आपके प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति क्लिंटन को जो पत्र लिखा, उसमें कहा गया कि भारत को चीन और पाकिस्तान से खतरा है| ऐसे में आप चीन से कैसे उम्मीद करते हैं कि वह सुरक्षा-परिषद में भारत-प्रवेश का समर्थन करे? उनका एक तर्क यह भी था कि जापान संयुक्तराष्ट्र के कुल खर्च का 25: भार उठाता है| वह शांतिपि्रय देश है| उसका किसी देश के साथ विवाद नहीं है| उसे सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता पहले क्यों नहीं मिलनी चाहिए?
जापान के आर्थिक योगदान के तर्क का जवाब देते हुए प्रो. सतीशकुमार ने कहा कि संयुक्तराष्ट्र राष्ट्रों का संगठन है, कोई व्यापारिक कम्पनी नहीं है, जो अपने शेयरहोल्डरों को शेयरों की संख्या के आधार पर पद बॉंट सकती है| मेरा तर्क था कि जापान इसलिए ज्यादा खर्च कर सकता है कि उसका रक्षा-खर्च नही के बराबर है| वह जिम्मेदारी अमेरिका ने ले रखी है| जापान अमेरिका के इशारे पर पैसे लुटाता है| पिछले एराक-युद्घ में भी खर्च का ज्यादातर बोझ उसी ने उठाया| इसके अलावा जापान की तुलना भारत से कैसे की जा सकती है? जापान दुनिया के सबसे मालदार देशों में से है| यदि वह विश्व-संस्था का खर्च नहीं उठाएगा तो कौन उठाएगा? जापान सुरक्षा-परिषद् में जाए, यह अच्छी बात है लेकिन इस कारण, भारत न जाए, यह कौनसा तर्क है?
इसके अलावा चीन और आग्नेय एशिया को यह नहीं भूलना चाहिए कि संयुक्तराष्ट्र में उनके हितों की जितनी जबर्दस्त वकालत भारत ने की है, किसी अन्य देश ने नहीं की| चीन के संयुक्तराष्ट्र-प्रवेश के लिए भारत हमेशा लड़ता रहा| क्या चीन अब भारत का कर्ज अदा नहीं करेगा? वह उसके सुरक्षा-परिषद् प्रवेश का समर्थन करके यह कर्ज अदा कर सकता है| जहॉं तक आग्नेय एशिया का प्रश्न है, भारत और चीन के हितों में कहीं भी टकराहट नहीं है, जबकि चीन और जापान में उग्र प्रतिस्पर्धा है बल्कि जापान के द्वितीय महायुद्घ के कारनामों के कारण शंका-कुशकाऍं भी हैं| इस सम्वाद के दौरान हमें ऐसा भी लगा कि चीनी लोग जापान की बजाय भारत को अधिक पसंद करते हैं|
जहॉं तक परमाणु-विस्फोट का प्रश्न है, हमने कहा कि प्रत्येक राष्ट्र को अपनी आत्म-रक्षा का अधिकार है| जैसे चीन ने 1964 में विस्फोट किया, भारत ने भी 1998 में किया| भारत सरकार से यह गल्ती जरूरी हुई कि उसने विस्फोट का कारण चीन और पाकिस्तान को बता दिया| असली कारण तो यह है कि चीन की तरह भारत भी पश्चिमी राष्ट्रों के परमाणु सामंतवाद को चुनौती देना चाहता था| वास्तव में भारत और चीन दोनों को मिलकर अब पश्चिमी परमाणु-राष्ट्रों से कहना चाहिए कि वे परमाणु निरस्त्रीकरण का टाइम-टेबल बनाऍं| इस विश्व शांति अभियान में पाकिस्तान को भी शामिल किया जा सकता है| यदि भारत और चीन मिलकर परमाणु-निरस्त्रीकरण का अभियान चलाऍंगे तो पश्चिमी राष्ट्रों पर तीसरी दुनिया का जबर्दस्त दबाव पड़ेगा| इस अभियान को सफल बनाने के लिए भारत का सुरक्षा परिषद्र में होना जरूरी है|
सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी का एक मजबूत तर्क यह भी है कि सारे विश्व में भारत ऐसा सबसे बड़ा राष्ट्र है, जिसने लोकतंत्र की रक्षा करते हुए विकास करके दिखाया है| इसी महान मूल्यमान का रक्षक होने के नाते उसे सुरक्षा परिषद्र का स्थायी सदस्य बनाया जाना चाहिए| यदि अकेले यूरोप से फ्रांस, बि्रटेन और रूस – तीन राष्ट्र सु.प. में हो सकते हैं और जर्मनी और इटली जैसे दो अन्य देश दावेदारी कर सकते हैं तो एशिया से चीन, भारत और जापान ये तीन देश क्यों नहीं हो सकते? भारत की सदस्यता तीसरी दुनिया के सही प्रतिनिधित्व और क्षेत्रीय संतुलन की प्रतीक है| भारत और चीन मिलकर केवल सुरक्षा परिषद् ही नहीं, विश्व-व्यापार संगठन, मानव अधिकार आयोग और यूनेस्को आदि में एक-जैसी रणनीति अपना सकते हैं| दोनों प्राचीन सभ्यताऍं हैं, दोनों की समस्याऍं लगभग एक-जैसी हैं, दोनों दुनिया के सबसे बड़े देश हैं| यदि दोनों मिलकर चलें तो वे इक्कीसवीं सदी को अपने पीछे चला सकते हैं| चीनियों को यह विचार काफी पंसद आया|
जहॉं तक सीमा-विवाद का प्रश्न है, चीनियों ने हमारे घावों पर नमक नहीं छिड़का| उन्होंने कहा कि इतिहास द्वारा लादे गए इस बोझ को बातचीत के जरिए कंधे से नीचे उतारना है| भारत की मनमोहन-सरकार, मनमोहन-सोनिया संबंध, वामपंथियों के रवैए और भारत की आर्थिक प्रगति के बारे में चीनी प्रतिनिधियों ने गहरे सवाल पूछे| उन्होंने ‘दक्षेस’ और ‘एसियान’ की पारस्परिक घनिष्टता बढ़ाने पर भी जोर दिया| वे इस बात पर भी चिंतित दिखाई पड़े कि भारत में ‘फालुन गांेग’ नामक चीनी संप्रदाय लोकपि्रय हो रहा है|
सम्वाद के अंतिम दिन ऐसा लगा कि चीनी पक्ष पर हमारे तर्कों का यथेष्ट प्रभाव पड़ा| चीन में विद्वान लोग वहॉं की सरकार से सीधे जुड़े होते हैं| चीन के पूर्व विदेश मंत्री थांग च्या सुआन ने भारत आकर भारत के सुरक्षा-परिषद्-प्रवेश के बारे में जो भी कहा, वह हमारे लिए सुखद आश्चर्य था| इस बात का हमें बड़ा संतोष रहा कि चीनी पक्ष की अनेक गलतफहमियों को दूर करने में हम सफल हुए| लगता है कि चीन भारत के अधिक निकट आना चाहता है| चीनी विद्वानों का कहना था कि दक्षिण एशिया के राष्ट्रों को जापान की बजाय चीन से अधिक सहयोग करना चाहिए| चीन तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बर्मा और भारत का पड़ौसी है| जापान किसका पड़ौसी है? चीनी पक्ष ने हमारे इस प्रस्ताव का स्वागत किया कि सभी सीमांत क्षेत्रों में स्थानीय व्यापार, आवागमन और मेल-जोल के सहकार-वृत्तों का निर्माण करना चाहिए ताकि संपूर्ण दक्षिण एशिया में बहुराष्ट्रीय स्थानीय सहकार की एक विराट महासंघीय व्यवस्था का निर्माण हो सके| चीनियों से हमने यह भी पूछा कि बदली हुई विश्व-व्यवस्था में अब चीन के लिए पाकिस्तान की कितनी उपयोगिता रह गई है? इस पर चीनियों का कहना था कि चीन का रवैया बदल रहा है| चीनी राष्ट्रपति च्यांग चे मिन ने 1996 में इस्लामाबाद में ही यह साफ़-साफ़ कह दिया था कि पाकिस्तान भारत से अपने विवाद शांतिपूर्ण ढंग से खुद हल करे| निश्चय ही चीन की प्राथमिकता सूची में भारत का स्थान ऊॅंचा है| चीनियों ने हमें आश्वस्त किया कि चीन न तो भारत के बागि़यों की कोई सहायता कर रहा है और न ही पाकिस्तान को किसी प्रकार की परमाणु-सहायता दे रहा है|
लेकिन बदले में चीन चाहता है कि तिब्बत में शांति हो| दलाई लामा पर हम दबाव डालें| अब दलाई लामा के ताज़ा बयान से चीनियों को काफी संतोष हुआ होगा| उन्होंने कहा है कि चीन में रहकर ही तिब्बत उन्नति कर सकता है और वे तिब्बत लौट सकते हैं| चीनियों ने भारत में पैसा लगाने की उत्कट इच्छा जताई लेकिन विनिवेश रक्षा संधि की भी मांग की| उन्होंने चीनी व्यापारियों को वीज़ा मिलने में होनेवाली दिक्कतों का भी जि़क्र किया| चीनियों ने उनके सिंक्यांग प्रांत से भारत तक सड़क बनाने की बात को उपयोगी बताया और इस मुद्दे पर सहमति प्रकट की कि आतंकवाद के विरुद्घ दोनों को संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए| चीनियों ने यह भी माना कि यदि भारत-चीन और पाकिस्तान की त्र्िावार्ता हो तो पाकिस्तान को यथार्थवादी रुख अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है|
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं| भारतीय प्रतिनिधि मंडल के नेता के तौर पर वे भारत-चीन सम्वाद में भागलेकर हाल ही में चीन से लौटे हैं)
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