NavBharat Times, 8 June 2004 : श्रीमती सोनिया गॉंधी ने जिस रात घोषणा की कि वे प्रधानमंत्री नहीं बनेंगी, उसके अगले दिन ही हम शंघाई पहॅुंचे| शंघाई के विश्व-अध्ययन संस्थान में भारतीय और चीनी विद्वानों के बीच दो दिन तक भारत-चीन संबंधों पर गहन सम्वाद चलता रहा| चीनी पक्ष चिंतित था कि जो भी नई सरकार बनेगी, वह चीन के साथ पता नहीं कैसे संबंध रखेगी| पता नहीं कौन भारत का प्रधानमंत्री बनेगा और उसका रुख चीन की तरफ कैसा होगा? चीनी विद्वानों, नौकरशाहों और नेताओं के दिल में वाजपेयी-सरकार के प्रति काफी सहानुभूति दिखाई पड़ी| उनका मानना था कि भारत के साथ चीन के आजकल जैसे संबंध हैं, वैसे पिछले 42 साल में कभी नहीं रहे| भारत ने तिब्बत को चीन का अंग मान लिया है और बदले में चीन ने सिक्किम को अपने नक्शों में भारत का अंग बता दिया है| पिछले साल दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने संकल्प किया था कि 2005 तक भारत-चीन व्यापार 500 अरब रुपए तक बढ़ जाएगा लेकिन इस लक्ष्य की पूर्ति अभी एक साल पहले ही हो गई है| चीनियों को डर था कि भारत में सत्ता-परिवर्तन के कारण भारत-चीन संबंधों का यह चढ़ाव कहीं उतार में न बदल जाए|
चीनियों का यह डर स्वाभाविक था| साम्यवादी राष्ट्रों में सत्ता-परिवर्तन उतना सहज नहीं होता, जितना कि लोकतांत्र्िाक देशों में होता है| चीनी विद्वानों को पहले हमें विस्तार से बताना पड़ा कि आखिर भारत में हुआ क्या है और सरकार कौन बनाएगा| लोगों ने डॉ. मनमोहन सिंह का नाम तो सुना था लेकिन संवाद में भाग लेनेवालों ने उनके बारे में ज्यादा जानकारी चाही| सत्ता-परिवर्तन के बावजूद भारत-चीन संबंध तीव्र गति से आगे बढ़ेंगे, यह सिद्घ करने के लिए हमने अनेक तर्क दिए| पहला तो यही कि सरकारें बदलने पर अनेक मूलभूत नीतियॉं बदलती हैं लेकिन विदेश नीति में बदलाव प्राय: कम ही होता है| वाजपेयी-सरकार की चीन-नीति का कॉंग्रेस ने कोई स्पष्ट विरोध नहीं किया था| इसीलिए कॉंग्रेस-नीत सरकार घड़ी के कॉंटों को उलटा घुमाएगी, ऐसी आशा नहीं है|
दूसरा, चीन से संबंध सहज बनाने की नीति श्री राजीव गॉंधी ने शुरू की थी| 1988 में चीनी नेता तंग स्याओ पिंग से राजीव की भेंट ने इस नई नीति का सूत्रपात किया था, जिसे श्री पी.वी. नरसिंहराव ने आगे बढ़ाया| उसी कॉंग्रेस के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अपने नेताओं की नीति को आगे बढ़ाऍंगे या पीछे हटाऍंगे? यदि भारत के राष्ट्रहितों को ध्यान में रखते हुए श्री वाजपेयी ने उसी नीति को आगे बढ़ाया है तो डॉ. सिंह से तो और भी ज्यादा उम्मीद की जा सकती है| तीसरा, स्वयं डॉ. मनमोहन सिंह, जब केवल वित्तमंत्री थे तो उन्होंने उदार-अर्थव्यवस्था के द्वार खोले थे तो अब प्रधानमंत्री के तौर पर क्या वे उसी उत्साह से कार्य नहीं करेंगे, जिससे श्री तंग स्याओ पिंग ने चीन में किया था| डॉ. मनमोहन सिंह भारत के तंग स्याओ पिंग सिद्घ हो सकते हैं| यदि वे भारत का विकास तेजी से करना चाहेंगे तो वे चीन से सबक भी लेंगे और सहयोग भी बढ़ाएंगे| चौथा, जहॉं तक मार्क्सवादियों के अडंगे का सवाल है, वे नग्न उदारवाद पर ब्रेक का काम जरूर करेंगे लेकिन चीन के साथ संबंधों को घनिष्ट बनाने के सवाल पर वे मनमोहन-सरकार के एक्सीलरेटर (गति-प्रेरक) सिद्घ होंगे| चीन तो मार्क्सवादियों का मक्का-मदीना रहा है|
इसके अलावा अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में ऐसे अनेक तत्व उभर रहे हैं, जो भारत और चीन को एक-दूसरे के निकट आने के लिए मजबूर करेंगे| जैसे अमेरिका का एकछत्र वर्चस्व ! भारत और चीन दोनों महसूस करते हैं कि सोवियत संघ के बिखरने के बाद दुनिया एकध्रुवीय हो गई है| अकेला अमेरिका सारी दुनिया को नाच नचा रहा है| यह स्थिति न तो विश्व-शांति के अनुकूल है और न ही विश्व-न्याय के ! फलस्तीन और एराक़ के मामले में यह स्पष्ट हो गया है| विश्व व्यापार संगठन में भी अमेरिका की दादागीरी चल रही है| इस दादागीरी के विरुद्घ भारत, चीन और रूस कोई गठबंधन नहीं बनाना चाहते और न ही खुले तौर पर अमेरिका-विरोधी बयान देना चाहते हैं| ये तीनों राष्ट्र अमेरिका से अपने द्विपक्षीय संबंध घनिष्ट करते रहना चाहते हैं लेकिन वे अंदर ही अंदर महसूस करते हैं कि यदि उनमें आपसी एकता, समझ, व्यापार और सहयोग बढ़े तो अमेरिकी दादागीरी पर आवश्यक नियंत्रण अपने आप लगेगा| यह नियंत्रण सारे विश्व के लिए जितना लाभदायक होगा, उससे भी ज्यादा कल्याणकारी अमेरिका के लिए होगा|
भारतीय और चीनी, दोनों पक्षों ने महसूस किया कि भारत और चीन दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं के प्रतिनिधि हैं और दोनों में अद्रभुत समानताऍं हैं| इनकी तुलना में अमेरिकी सभ्यता नई है| लेकिन वह दुनिया को नई राह दिखाने में असमर्थ है| यदि भारत और चीन मिलकर चलें तो वे इक्कीसवीं सदी को एशिया की सदी बना सकते हैं| वे दोनों परम्परा और परिवर्तन, व्यक्ति और समाज तथा मनुष्य और प्रकृति के बीच उचित संतुलन का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं| दोनों की जनसंख्या ही एक-तिहाई विश्व के बराबर है|
दोनों पक्षों की राय थी कि दोनों राष्ट्रों की अनेक मूलभूत समस्याऍं एक-जैसी हैं| जैसे जनसंख्या, आर्थिक असमानता, सामाजिक अन्याय, ग्रामीण गरीबी और आतंकवाद ! इन समस्याओं के समाधान में दोनों राष्ट्र एक-दूसरे के सहायक हो सकते हैं और एक-दूसरे से कुछ न कुछ सीख सकते हैं| चीनी पक्ष ने आतंकवाद के सवाल पर भारत के साथ सहानुभूति जताई और उसे दक्षिण एशिया का प्रमुखतम राष्ट्र भी कहा| हमारी राय थी कि चीन यदि सचमुच आतंकवाद का विरोधी है तो वह पाकिस्तान को समझाए| पाकिस्तान जितनी चीन की सुनता है, किसी अन्य देश की नहीं सुनता| वह चीन को अपना अभिन्न मित्र मानता है| बिल क्लिंटन के पॉंच बार फोन करने के बावजूद नवाज़ शरीफ़ ने परमाणु-बम विस्फोट किया| यदि चीनी राष्ट्रपति एक बार भी फोन कर देते तो पाकिस्तान ठिठक जाता| अब भी भारत, पाकिस्तान और चीन मिलकर परमाणु-निरस्त्रीकरण का विश्व-अभियान चला सकते हैं और दुनिया के सामने एक नया संयुक्त परमाणु-सिद्घांत प्रस्तुत कर सकते हैं| चीनियों को हमारा यह प्रस्ताव बहुत पसंद आया कि कश्मीर पर पाकिस्तान वही रवैया अपनाए, जो भारत ने सीमा के मामले में चीन के साथ अपना रखा है| याने विवादास्पद मुद्दे पर बातचीत जारी रहे लेकिन उसके कारण आपसी आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संबंधों का चक्का जाम न हो| चीनियों ने इस बात पर सहमति जताई कि अगर भारत, पाकिस्तान और चीन में सहज संबंध स्थापित हो जाऍं तो मध्य एशिया के तेल, गैस और खनिजों के खजाने सारे एशिया के लिए खुल जाऍंगे| रूस की भूमिका भी बढ़ जाएगी| चीनियों ने हमारा यह प्रस्ताव भी माना कि ‘यूरो’ की तरह एशियाई देशों को ‘एसियो’ नामक मुद्रा का प्रचलन करना चाहिए तथा एशियन मॉनीटरी फंड और एशियाई व्यापार संगठन भी कायम करना चाहिए|
चीन के कुछ प्रतिनिधियों का मानना था कि भारत को सुरक्षा परिषद्र का स्थायी सदस्य बनाया जाना चाहिए लेकिन उन्होंने घुमा-फिराकर यह भी कहा कि अब भी दोनों देशों के बीच विश्वास की कमी है| एक-दूसरे के इरादों के बारे में शंका बनी रहती है| विश्वास बढ़े तो व्यापार तो अपने आप बढ़ जाएगा| यदि जापान और अमेरिका के साथ चीन का व्यापार 5000 अरब रुपए का हो सकता है याने भारत से दस गुना तो भारत तो बिल्कुल पड़ौसी देश है| उसके साथ चीन का व्यापार 20 गुना बढ़ना चाहिए| चीनी विद्वानों ने यह स्वीकार किया कि जब दोनों राष्ट्रों के संबंध सहज थे तो सदियों तक भारत ने चीन के सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक निर्माण में जबर्दस्त भूमिका निभाई थी| इसीलिए आज भी साधारण चीनी लोग भारत को ‘गुरु देश’ और ‘पश्चिमी स्वर्ग’ कहते हैं और चाहते हैं कि यदि उनका पुनर्जन्म हो तो भारत में ही हो|
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं और हाल ही में चीन-यात्रा से लौटे हैं)
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