Dainik Bhaskar, 27 June 2004 : भारत के लिए चीन आज भी अजूबा है| भारत का सबसे बड़ा पड़ौसी लेकिन सबसे बड़ा अजनबी भी ! 42 साल का अंतराल पड़ गया| अगर 1962 का युद्घ नहीं होता तो शायद भारत और चीन मिलकर दुनिया का नक्शा ही बदल देते| दोनों देश इस बीच एक-दूसरे से कटे रहे| चीन दुनिया का ऐसा अकेला देश है, जिसमें अगर कोई भारतीय यात्री जाए तो उससे पूछा जाता है कि क्या आप पाकिस्तान से आए हैं? विदेश में भारतीय और पाकिस्तानी एक-जैसे दिखते हैं| पिछले 35 वर्षों में मैं लगभग 100 देशों में गया हॅूं| कई बार मैंने पाकिस्तानियों को उबलता हुआ देखा है| खास तौर से तब जबकि कोई उनसे पूछता है कि आप भारत में कहॉं के रहनेवाले हैं? लेकिन चीन में मुझसे कई चीनियों ने पूछा कि क्या आप पाकिस्तान से आए हैं| पहले ही दिन शंघाई में अफगान गलीचों की दुकान मैंने देखी तो मैंने फारसी में दुकानदार से पूछा कि आप कहॉं के हैं? तो उसने भी तपाक से फारसी में जवाब दिया कि वह अफगानिस्तान का नहीं, सिंक्यांग का है याने उसी चीनी प्रांत का है, जो अफगानिस्तान और पाकिस्तान से लगा हुआ है| वह उइगर मुसलमान था| उसने जानना चाहा कि क्या मैं भी मुसलमान हॅूं और क्या मैं पाकिस्तान से आया हॅूं|
पाकिस्तान के लोग अक्सर चीन जाते रहे हैं| 10-15 साल पहले तो उरूमची, सियान, हॉंगचाऊ, शूचौ या सियान जैसे दूर दराज के शहरों में तो क्या पेइचिंग, शंघाई और नानचिंग जैसे बड़े शहरों में भी भारतीयों का नामो-निशान तक नहीं मिलता था| छोटे शहरों में यदि हमारा दुभाषिया लोगों को हमारे बारे में बता देता था तो लोग हमारे पीछे-पीछे भीड़ बनाकर चल पड़ते थे| वे बड़े प्रेम और श्रद्घा से कहते ‘इन्दुरन, इन्दुरन’ याने हिन्दू लोग, भारतीय लोग| मैंने उनसे पूछा कि आप भारत के बारे में क्या सोचते हैं तो वे बोलते भारत ‘पश्चिमी स्वर्ग’ है, वह ‘गुरु देश’ है और हम रोज प्रार्थना करते हैं कि यदि हमारा पुनर्जन्म हो तो हम भारत में ही पैदा हों| भारत के प्रति ऐसी श्रद्घा तो मैंने किसी अन्य देश में नहीं देखी| इसका कारण बौद्घ धर्म है| बौद्घ धर्म को चीन पहॅुचानेवाले भिक्खुओं ने चीन को ज्ञान-विज्ञान, ध्यान औषधि, तकनीक, रुई आदि वस्तुऍं भी दीं और चीन ने भारत को रेशम, कागज़, छपाई, चाय, चीनी आदि वस्तुऍं दीं| बौैद्घ पंडितों ने चीन की संस्कृति को ही बदल दिया| चीनी भाषा में संस्कृति के लिए जो शब्द है, उसका शाब्दिक अर्थ है, दो धारणओं का मिलन| भारत आए चीनी यात्र्िायों – फाह्रयान, हृेन सांग, ईत्सिंग आदि के विवरणों ने चीन में सदियों से भारत के झंडे फहराए| औसत चीनियों के लिए यह एक पहेली है कि इतने पास होकर भी भारत चीन से इतनी दूर क्यों है| जिन चीनियों से हमारी बात हुई, उनमें से ज्यादातर को यह पता ही नहीं है कि 1962 में भारत और चीन के बीच क्या हुआ था| चीनी विदेश मंत्रालय के अफसरों, भारतविदों और पत्रकारों को 1962 के युद्घ की जानकारी जरूर थी लेकिन जब भी उस घटना का जिक्र होता तो वे उस अपि्रय प्रसंग को टालने की कोशिश करते| एक विद्वान ने तो यहॉं तक कहा कि हजारों वर्षों के उत्तम संबंधों की हरियाली में अगर 30-40 साल का एक सूखा थेगला आ गया तो क्या हम उसी का ढोल पीटे चले जाऍं?
यह कहना कठिन है कि आज के चीन में कितने लोग बुद्घ को मानते हैं और कितने कन्फूत्स (कन्फ्यूशियस) और लाओत्स को| माओ के जमाने में धर्म की जैसी अवहेलना थी, वैसी अब नहीं है| पेइचिंग, शंघाई, नानचिंग, सियान, फामन आदि जितने स्थानों पर हम गए, अनेक बौद्घ पूजा-स्थलों को देखने का मौका मिला| बुद्घ तथा अन्य अवतारों की ऐसी स्वर्णजटित विशाल मूर्तियॉं मैंने कभी भारत में भी नहीं देखीं| बौद्घ तीर्थ कई एकड़ों में फैले हुए हैं| हजारों लोग वहॉं रोज दर्शन करने आते हैं| उनमें पर्यटक भी होते हैं| बुद्घ को चीनी भाषा में भी शाक्यमुनि कहते हैं| चीनियों की श्रद्घा देखने लायक है| बुद्घ की मूर्ति के पास पहॅुंचने के पहले हवनकुंडों में ज्वाला उठती रहती है| उससे श्रद्घालु लोग अगरबत्तियॉं जलाते हैं| इन अगरबत्ती के डिब्बों पर हिन्दी और कन्नड़ देखकर मुझे आनंद हुआ| बेगलूर, मुंबई और इंदौर की बनी अगरबत्तियॉं ! बुद्घ की विशाल मूर्ति के आगे घुटने टेककर प्रार्थना करने के लिए चमड़े की गद्दियॉं लगी होती हैं| लोग ऑंख बंदकर ध्यानमग्न हो, चीनी भाषा में कुछ बुदबुदाते हुए वहॉं बैठे होते हैं| शंघाई में बुद्घ की यशभ की मूर्ति मे विलक्षण आकर्षण था| चीन के अनेक प्रांतों में बौद्घ मठ, ध्यान केंद्र, तीर्थ, मंदिर आदि बने हुए हैं लेकिन कुछ सप्ताह के प्रवास में उन सबको कैसे देखा जाए? नानचिंग में कन्फूत्स का मंदिर देखने लायक था| वह शहर की मुख्य नदी के मुहाने पर बना हुआ है| कन्फूत्स चीन के प्रसिद्घ विचारक और ऋषि हुए हैं| उनके विचारों और उपदेशों में चीन की संस्कृति ढली हुई है| उनका आश्रम जिस नदी के मुहाने पर है, उसके दोनों किनारों पर वेश्याओं के घर बने हुए थे| वेश्याओं के मुहल्ले में सदाचार की मशाल जलाकर बैठनेवाले संत की हिम्मत को दाद देने का मन करता है| इस आश्रम में कन्फूत्स की विशालकाय मूर्ति तो है ही, लेकिन उसके साथ पत्थरों का ऐसा अजीबो-गरीब संग्रह है, जैसा दुनिया में कहीं नहीं है| ये पत्थर आश्रम के पास स्थित एक पहाड़ से निकलते रहते हैं| आश्रम के बाहर दर्जनों गुमटियॉं हैं, जो इन रंग-बिरंगे पत्थरों को बेचती हैं| ऐसे-ऐसे रंगों के पत्थर हैं कि उन रंगों को रंगरेज़ भी पैदा नहीं कर सकते लेकिन आश्रम के अंदर जिन पत्थरों का संग्रह है, वे हीरे और मोतियों से भी अधिक आकर्षक और विस्मयकारी हैं| इन पत्थरों को बाकायदा शीशे के शोकेसों में सजाकर रखा गया है और ताले-चाबी में रखा गया है| इन पत्थरों में प्रकृति के दृश्य इस तरह खुदे हुए हैं, मानो किसी चितेरे ने चित्रित किए हुए हों| किसी पत्थर पर आप सूर्योदय, किसी पर सूर्यास्त, किसी पर पूर्णिमा, किसी पर अमावस्या, किसी पर ज्वार, किसी पर भाटा और किसी पर कोई मानवीय दृश्य इतने सजीव ढंग से अंकित पाऍंगे कि आप विश्वास ही नहीं कर पाऍंगे कि इन बेजान पत्थरों पर ये दृश्य प्रकृति ने अपने आप खोद दिए होंगे| इस तरह के पत्थरों को गठरी में लादे कई चीनी लोगों को मैंने पहाड़ पर से उतरते देखा| जैसे हमारे किसान अपने टोकरों में भरकर भिंडी या लौकी बेच डालते हैं, वैसे ही वे लोग आश्रम के बाहर लगी दुकानों में अपनी गठरियॉं खोल रहे थे| उन्हें क्या पता कि उन गठरियों में कुछ ऐसे पत्थर भी हो सकते हैं, जिनकी क़ीमत ऑंकना ही असंभव हो| नानचिंग में ही ‘बुद्घ की तोंद’ नामक बाजार-क्षेत्र देखा| इस क्षेत्र की भव्यता, हजारों-लाखों बल्बों का प्रकाश, शीशे के बड़े-बड़े दरवाजोंवाली दुकानों की जगमगाहट और मौज-मस्ती में डूबे चीनी युवजन को निहारना अपने आप में एक अनुभव है| इसी बाजार के बाहर पीले रेशमी वस्त्रों में हृष्ट-पुष्ट रिक्शेवाले भी दिखे| ये खुशमिजाज रिक्शेवाले पर्यटकों को अपने रिक्शे में बिठाकर उन्हें खुद खींचकर सारा बाजार घुमाते हैं| उन्हें देखकर प्रसिद्घ चीनी कथाकार लू शून की रचना की याद हरी हुई| मैंने अपने चीनी दुभाषिए से यह नहीं पूछा कि इस क्षेत्र को बुद्घ की तोंद क्यों कहते हैं? चीन में बुद्घ का पेट बड़ा दिखाया जाता है जबकि अफगानिस्तान और मध्य एशिया की मूर्तियों में बुद्घ की एक-एक पसली दिखाई पड़ती है|
चीन में तोंदवाले लोग कम ही दिखाई पड़ते हैं| ज्यादातर लोग हृष्ट-पुष्ट या दुबले और चुस्त दीखे| इसका एक कारण तो यही है कि चीन में व्यायाम और ध्यान को बहुत महत्व दिया जाता है| यदि आप किसी भी शहर में सुबह की सैर के लिए निकलें तो आप हजारों लोगों को दौड़ते हुए और बगीचों में कसरत करते हुए पाऍंगे| जितनी साइकिलें मैंने चीन में देखीं, दुनिया के किसी देश में नहीं देखीं| जो लोग आदतन साइकिल चलाते हैं, उनका स्वास्थ्य तो अच्छा रहेगा ही| आप किसी भी विश्व-विद्यालय, संस्था, बाजार, अस्पताल आदि में चले जाऍं, आपको सैकड़ों साइकिलें खड़ी मिल जाऍंगी| भारत में बड़े लोग अपने घरों में कसरती साइकिल रखते हैं, बतौर फैशन लेकिन चीन में बड़े-बड़े डॉक्टर, प्रोफेसर, संपादक, प्रबंधक वगैरह साइकिल को बाकायदा अपने वाहन की तरह इस्तेमाल करते हैं| साइकिल चलानेवाले लोगों को चीन में नीची नजर से नहीं देखा जाता| चीन के हर बड़े शहर की सड़क पर साइकिलवालों के लिए अलग से लकीर खींची होती है| चीन में साइकिल इतनी सस्ती है कि उसकी चोरी होने पर किसी को अफसोस नहीं होता| लोगा ताला लगी साइकिल को चुरा ले जाते हैं| चीन में साइकिल-चोरी ब्रज में माखन-चोरी की तरह है| पेइचिंग विश्वविद्यालय से व्याख्यान देकर मैं अपने होटल की तरफ पैदल चला तो कुछ प्रोफेसर पैदल साथ चले और कुछ अपनी साइकिल लेने दौड़े लेकिन एक ने बताया कि उनकी साइकिल गायब हो गई है| उन्होंने कहा कि या तो मैं शाम को नई खरीद लॅूंगा या इसी साइकिल स्टेंड पर कई महीनों से लावारिस पड़ी साइकिलों में से किसी एक को उड़ा लॅूंगा| चीनी साइकिलें बहुत तेज चलती हैं| उनमें सामान ढोने के लिए आगे-पीछे टोकरियॉं लगी होती हैं| गृहस्थ की सेवा और कसरत, एक पंथ दो काज पूरे करती है, चीनी साइकिल !
चीन की जनता के उत्तम स्वास्थ का कारण उनका भोजन भी है| हम लोग यह मानते हैं कि चीनी केवल मॉंस, मछली, अंडे, समुद्री जीव-जन्तु आदि खाते हैं| ऐसा नहीं है| जितनी हरी सब्जियॉं चीन में खाई जाती हैं, किस देश में खाई जाती हैं? असंख्य सब्जियॉं ऐसी देखीं और खाईं, भारत में मैंने जिनका नाम तक नहीं सुना था| हथेली के आकार की चौड़ी कमलनाल और तश्तरी के आकार की मशरूम हमने चीन में ही खाई| नवोत्पन्न कोमल बॉंस की सब्जी के क्या कहने ? देखने में भी वैसी ही बढि़या, जैसी खाने में| यह माना जाता है कि चीन जाकर शाकाहारी बने रहना असंभव है लेकिन अपने अनुभव से मैं कहता हॅूं कि चीन शाकाहारियों का स्वर्ग है| यदि आप शाकाहारी वस्तुओं के नाम चीनी भाषा (देवनागरी लिपि) में लिख लें और उन्हें होटल के पाकशास्त्री को बता दें तो वे आपके लिए उत्तमोत्तम व्यंजन सहर्ष तैयार कर देंगे| भोजन बनाने की चीनी विधि ऐसी है कि यदि उसे हमारे शाकाहारी भोजन पर लागू किया जाए तो उसकी गुणवत्ता दुगुनी हो जाती है| वे सब्जियों को इतना नहीं पकाते कि उनके विटामिन भी नष्ट हो जाऍं और उनका मूल स्वाद भी गायब हो जाए| वे मसाले इतने कम डालते हैं कि आप हर सब्जी के स्वतंत्र स्वाद का आनंद ले सकते हैं| अधपकी सब्जियॉं देखने में भी अच्छी लगती हैं| सब्ज (हरी) लगती हैं| नौ साल पहले जब मैं सपत्नीक चीन गया था तो चीनी सरकार ने हमारे लिए शाकाहारी भोजन का विशेष प्रबंध किया था लेकिन तीन हफ्तों में हम दोनों का पॉंच-पॉंच किलो वज़न कम हो गया था| इस बार शंघाई के विश्व-प्रेक्षण संस्थान ने इतना अच्छा प्रबंध किया था कि एक-डेढ़ हफ्ते में ही स्वास्थ्य चमचमा उठा| चीनी पक्ष की ओर से आए विद्वानों में दो-तीन ऐसे थे, जो भारत में रह चुके थे और हिन्दी भी बोलते थे| खासतौर से पेइचिंग विश्वविद्यालय के भारत-अध्ययन विभाग के अध्यक्ष प्रो. चियांग चिंगखुई ने अपनी पहल पर हम भारतीयों को शुद्घ शाकाहारी भोजन हर शहर में उपलब्ध करवाया| मांसाहार करनेवाले विद्वानों के लिए अलग मेजें लग जाने से शाकाहारियों को विशेष राहत मिली|
चीन में मॉंसाहार इतना विकट तरीके से होता है कि भारतीय शाकाहारियों को एक ही मेज पर बैठकर खाने में सचमुच बड़ी दिक्कत होती है| चीन में लोग क्या-क्या नहीं खाते? गाय, सूअर, बंदर, कुत्ता, गधा, घोड़ा, सॉंप, छिपकली, कीड़े-मकोड़े – सब कुछ खाते हैं| कुछ भोजनालयों में पशु-पक्षी जीवित ही सामने रखे जाते हैं| उनमें से जिन्हें आप चुनें, उन्हें तत्काल मारकर पकाया जाता है और मेज पर इस तरकीब से सजाकर पेश किया जाता है, जैसे कि वे जिन्दा होने पर दिखाई देते हैं| मेहमानों के स्वागत में चीनी लोग पलक-पॉंवड़े बिछा देते हैं| खाने की मेज़ पर दर्जनों पकवान आते रहते हैं| अगर आप शाकाहारी हैं तो शाकाहारी पकवानों की झड़ी लग जाती है| चीन में लोगों को मैंने दूध-दही या रोटी या ब्रेड खाते नहीं देखा| होटलों में मॉंगने पर ये चीजें मिल जाती है| उबला हुआ चावल सर्वत्र मिलता है| भोजन के साथ फल जरूर मिलते हैं| फलों को भी काटकर इस तरह सजाया जाता है कि वैसी सजावट मैंने यूरोप और अमेरिका की पॉंच-सितारा होटलों में भी नहीं देखी| भोजन का प्रारंभ और समापन दोनों ही चाय से होता है| उसे हम चाय का पानी कहें तो बेहतर होगा| उस चाय में चीनी और दूध नहीं होता| केवल चाय की पत्तियॉं और गर्म पानी| इस तरह की चाय अफगानिस्तान और रूस में भी पी जाती है| सारी दुनिया में चाय चीन से गई है| चीन में तरह-तरह की चाय मिलती है| इस बार हम एक ऐसे चाय बाग में गए, जहॉं की चाय विश्व-प्रसिद्घ है| चीन के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हॉंगचाऊ के उस चाय बाग में आते रहे हैं| सभी चीनी और भारतीय विद्वानों को एक से एक सुगंधित चाय चखाई गई| चाय के प्यालों में जैसे ही चाय खत्म होती, चाय की पत्तियों पर गुलाब की पत्तियों से भी सुंदर लड़कियॉं बड़े ऊॅंचे से गर्मागर्म पानी उड़ेल देतीं| केटली और कप में तीन फुट का फासला जरूर रहता होगा लेकिन कप में पानी ऐसे उतरता, जैसे कोई सफेद रस्सी उतर रही हो| पानी जिस अदा से उंडेला जाता, उसने मुझे इन्दौर के दूधवालों की याद दिला दी, जो दो कमंडलों में इस अदा से दूध फेंटा करते थे कि दूध का गजभर का पट्टा-सा खिंच जाता था| बाज़ार में जो चाय दो हजार रु. किलो मिलती है, वह भारतीय मेहमानों के लिए केवल एक हजार रु. में ही उपलब्ध थी| यह चाय ऐसी होती है कि जिसकी 10-15 पत्तियॉं आप कप में डाले रहें और बार-बार गर्म पानी से भरकर उसे पीते रहें| खुशबू बराबर बनी रहती है| गर्म पानी पीना चीनियों की आदत है| मुझे ठंडा पानी पीते देखकर रेस्तरॉं की लड़कियॉं हैरत में पड़ जाती थीं| कुछ चीनी मित्रों ने शिकायत की कि भारतीय घरों और होटलों में पीने का गर्म पानी नहीं मिलने से चीनी यात्रियों को बड़ा कष्ट होता है| यह शायद गर्म पानी का ही प्रताप है कि चीनियों का हाजमा बेहतर होता है और उनके शरीर में चर्बी नहीं जम पाती| चर्बी गलाने के लिए चाय की तरह के ही कुछ पेय भी चीनी दुकानों में बिकते हैं| भारत में इसे सनाय की पत्ती कहते हैं और चीनी भाषा में भी इसका नाम सनाय ही है| इसे भी गर्म पानी से लिया जाता है| भारतीय आयुर्वेद के अनेक ग्रथों का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ है, जिनके सूत्रों का लाभ करोड़ों चीनी अपने दैनंदिन जीवन में उठाते हैं| अंग्रेजों की तरह चीनी लोग लंच और डिनर नहीं करते| उनका दिन का भोज 11 बजे के आस-पास और रात्रि-भोज शाम को छह बजे के आस-पास हो जाता है| मध्यान्ह और सूर्यास्त के पहले भोजन करने की प्राचीन भारतीय परम्परा चीन में आज भी जीवित है| यदि हमारी तरह चीन भी अंग्रेजों का गुलाम रहा होता तो उसके भोजन का समय बदल जाता|
हमारे भोजन का समय क्या, हमारी भाषा भी गुलामी की शिकार हुई है| भारत में अंग्रेजी का जैसा वर्चस्व है, वैसे वर्चस्व की कल्पना चीन में की ही नहीं जा सकती| चीन का बड़े से बड़ा विद्वान, राजनेता या व्यापारी आदतन स्वभाषा का प्रयोग करता है| विदेशियों की सुविधा के लिए अंग्रेजी, हिन्दी या फ्रांसीसी वे जरूर बोल लेते हैं लेकिन अन्तरराष्ट्रीय व्यवहार के लिए चीनी लोग सर्वत्र दुभाषिए का उपयोग करते हैं| शंघाई की जिस विश्व-प्रेक्षण संस्थान की संगोष्ठी में हम लोग गए थे, उसमें प्रत्येक चीनी विद्वान ने अपना भाषण चीनी भाषा में दिया, जिसका सद्य: अनुवाद भारत की सरकारी भाषा अंग्रेजी में हुआ| चीनियों के बीच हिन्दी जानने-बोलने-वाले तीन विद्वान भी बैठे थे लेकिन हिन्दी में अनुवाद नहीं हुआ| मैंने जब हिन्दी में बोलने का आग्रह किया और उसके चीनी अनुवाद की बात कही तो हमारे भारतीय साथियों ने जोर देकर कहा आपकी अंग्रेजी इन चीनियों से कहीं बेहतर है| आप अंग्रेजी में ही बोलिए| चीनी लोग हिन्दी अनुवाद की तैयारी करके नहीं आए है| यही बात पेइचिंग विश्वविद्यालय में हुई| वहॉं भारत-अध्ययन संस्थान के लगभग सभी छात्र हिन्दी पढ़ना-लिखना जानते थे लेकिन 5-7 मिनिट बाद ही उनके अध्यापकों ने मुझसे कहा इन श्रोताओं की हिन्दी अभी काफी कमज़ोर है और इस सभागार में अन्तरराष्ट्रीय मामलों के अनेक विशेषज्ञ भी बैठे हैं, जो हिन्दी बिल्कुल नहीं जानते| वहॉं भी हिन्दी से चीनी अनुवाद की कोई व्यवस्था नहीं थी| इसीलिए मुझे मजबूरन अंग्रेजी में बोलना पड़ा लेकिन मैंने उन प्रोफेसरों को याद दिलाया कि पिछले साल जून में इसी संस्थान का उद्रघाटन जब प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने अंग्रेजी में किया था तो आपने बहुत बुरा माना था| अब मुझसे अंग्रे्रजी में बोलने का आग्रह क्यों कर रहे हैं? उनका जवाब था कि यहॉं आकर कोई भी भारतीय हिन्दी में नहीं बोलता, इसीलिए !
चीनी विद्वानों ने यह माना कि जब तक हजारों चीनी हिन्दी नहीं सीखेंगे और भारतीय चीनी नहीं सीखेंगे, भारत-चीन संबंध घनिष्ट नहीं होंगे| विदेशी भाषा के जरिए दिल की असलियत को समझना असंभव है| दिल्ली विश्वविद्यालय की डॉ. अनिता शर्मा ने कहा कि जिस ज़माने में दोनों देशों के विद्वान एक-दूसरे की भाषा समझते थे, उस ज़माने में ही भारत-चीन का अटूट सांस्कृतिक संबंध स्थापित हुआ| आज भी चीन भारत से आगे है| मुझे चीन में हिन्दी बोलनेवाले जितने विद्वान और कूटनीतिज्ञ दिखे, उतने चीनी बोलनेवाले भारत में कभी नहीं दिखे| चीन की सड़कों, दुकानों, दफ्तरों, घरों, रेलों, बसों, जहाजों – सर्वत्र चीनी भाषा का प्रयोग होता है| चीनी भाषा के अखबार और टी.वी. चैनल सबसे अधिक प्रामाणिक और प्रसारित हैं| चीनी सरकार का सारा आंतरिक और सार्वजनिक कामकाज चीनी भाषा में होता है| कानून भी चीनी भाषा में बनते हैं और न्यायिक फैसले भी उसी में दिए जाते हैं| भारत की तरह अंग्रेजी की गुलामी नहीं होती| ऐसा नहीं है कि चीन के सभी सवा अरब लोग मेन्डारिन चीनी याने सरकारी भाषा समझते-बोलते हों| जो भाषा केन्टन में बोली जाती है, वह पेइचिंग में नहीं समझती जाती है और जो पेइचिंग में बोली जाती है, शंघाई में उसका मतलब दूसरा होता है| चीन के विशाल भू-भाग में अनेक स्थानीय भाषाऍं बोली जाती हैं लेकिन राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से सबने मेन्डारिन को स्वीकार कर लिया है| कुछ चीनी विद्वानों ने आग्रह किया कि भारत की एकता के लिए एक भाषा का सर्वस्वीकार वैसे ही जरूरी है, जैसे कि एक ध्वज या एक संविधान का ! चीनी बाऍं से दाऍं लिखी जाती है और ऊपर से नीचे| यह दुनिया की सबसे कठिन लिपि है| चित्र लिपि है| फिर भी सारा चीन इसे सीखता है| कठिन होते हुए भी वह बहुत सुंदर है|
चीनी लोगों की वेश-भूषा बिल्कुल पश्चिमी मालूम पड़ती है| पुरुष और स्त्रियॉं लगभग वैसे ही कपड़े पहनते हैं, जैसे कि यूरोप या अमेरिका के लोग पहनते हैं| अनेक चीनियों ने मुझसे कहा कि यही चीनियों की मूल वेश-भूषा है| यह कैसे हो सकता है? इतना प्राचीन देश और उसकी अपनी कोई वेश-भूषा न हो, यह संभव ही नहीं| जिस दिन मन में यह विचार उठा, उसी दिन ‘पृथ्वी का स्वर्ग’ समझे जानेवाले हॉंगचाऊ नामक शहर में पहॅुंचे और वहॉं ध्वनि और प्रकाश का कार्यक्रम देखा| चीन के सुंग राजवंश के इतिहास पर बना यह कार्यक्रम विलक्षण था| इसमें सैकड़ों पात्र अभिनय करते हैं| उनकी वेशभूषा अत्यंत आकर्षक थी| रंग-योजना मनोमुग्धकारी थी| चीनी पात्रों की वेश-भूषा प्राचीन भारतीय वेश-विन्यास से मिलती-जुलती थी| भारत और चीन के राजा-रानियों और दरबारियों की वेशभूषा में अंतर करना कठिन मालूम पड़ रहा था| चीन में ढीले-ढाले लंबे चौंगे पहनने का रिवाज़ अब भी है| प्रेक्षागृह के बाहर सुंग राजवंश की जीवंत अनुकृति आयोजित की गई थी, उसमें पुरुषों का सलवारनुमा अधोवस्त्र और लाल रेशमी कमीज बरबस ध्यान खींचते थे| अब चीन में लम्बे कॉलर और मोटे बटनवाले माओकट कोट भी दिखाई नहीं पड़े| माओ और तंग श्याओ पिंग के चित्र भी कहीं दिखाई नहीं पड़े| ऐसा लगा कि चीन अब पूरी तरह पश्चिमी रंग में रॅंगता चला जा रहा है| उसका सैद्घांतिक बुखार उतर गया है| संपूर्ण चीनी इतिहास पर नज़र डालें तो कभी लगता है कि चीन वज्र से अधिक कठोर राष्ट्र है और कभी लगता है कि वह कुसुमों से भी अधिक कोमल है| जैसे कभी वह बौद्घ लहर में और कभी साम्यवादी लहर में बह गया, वैसे ही वह आज पश्चिमी लहर में बहा चला जा रहा है|
पेइचिंग, शंघाई, नानचिंग, केन्टन और शेन-जेन जैसे शहरों में घूमें तो कभी-कभी लगता है कि हम कहीं न्यूयॉर्क, लंदन या पेरिस में तो नहीं आ गए| गगनचुंबी अट्टालिकाओं और आठ-आठ लेनोंवाली सड़कें तो आम बात हैं| सड़कों के ऊपर पुल और पुल के ऊपर पुल तथा सड़कों की तरह कई फर्लांग तक फैले हुए पुल देखने लायक हैं| सड़के हों, पुल हो, बस स्टैंड हों, स्टेशन हों, हवाई अड्डे हों – सभी का आकार विशाल होता है| लगता है जैसे आप किसी बड़े देश में आ गए हों| शंघाई के फुदोंग इलाके में जहाज पर आप सैर करें तो वह न्यूयॉर्क के हडसन बे से कहीं अधिक रमणीय है| लगता है आप साक्षात स्वर्ग-लोग में भ्रमण कर रहे हैं| शंघाई में ही दुनिया की सबसे तेज गति से चलने वाली रेलगाड़ी है| लगभग 450 कि.मी. प्रति घंटे की रफ्तार से चलनेवाली रेल में जब हम बैठे तो पता ही नहीं चला कि 30 कि.मी. का रास्ता कब पार हो गया| बस बैठे और उतरे ! नए चीनी भवनों की साज-सज्जा अत्यंत आधुनिक है| तरह-तरह के संगमरमर, रंग-बिरंगे पत्थरों से सजे फर्श, नक्काशीदार दीवारें और प्लास्टर ऑफ पेरिस की छतों पर ऑंखें टॅंगी-सी रह जाती हैं| चीनी लोग यों ही कलापि्रय हैं और जब हाथ भी खुला हो तो दुनिया की शानदार चीजें चीन में नहीं दिखाई पड़ेंगी तो कहॉं दिखाई पड़ेंगी| चीन की पॉंच-सितारा होटलें, अमेरिका और खाड़ी के देशों की होटलों से कम चकाचक नहीं हैं| नई होटलों में ऐसे नए-नए उपकरण और सजावट के सामान लगे होते हैं कि उनका समझना और उनका उपयोग करना ही कठिन हो जाता है| साफ-सफाई तो बेजोड़ है| बड़े-बड़े गोल खम्बों पर जड़े स्टील के रंग-बिरंगे पतरे ऐसे चमक रहे थे, मानो वे दर्पण ही हों| फर्नीचर पर पालिश इतनी बढि़या होती है कि वह धातु के बर्तनों की तरह चमकता है| सड़कों और बाजारों में कहीं कूड़ा-कर्कट दिखाई नहीं पड़ता| कचरा फैलानेवालों पर सख्त जुर्माना किया जाता है| शंघाई का फुदोंग का क्षेत्र और हॉंगकॉंग का साथी-शहर शेन जेन तो ऐसा लगता है, जैसे महायुद्घ के बाद नव-निर्मित बर्लिन शहर लगा करता था| शेन-जेन पर्यटन का बड़ा केंद्र बन गया है| दुनिया के सभी प्रसिद्घ आश्चर्यों की अनुकृति शेन-जेन में बनाई गई है| आगरा के असली ताजमहल के मुकाबले शेन-जेन का नकली ताजमहल ज्यादा चमचमाता है| चीनियों ने ये शहर पिछले 15-20 साल में ही बसाए हैं| शंघाई को पूरब का न्यूयॉर्क कहा जाता है| लेकिन यह मानकर चलना गलत होगा कि पूरे चीन का ही रूपान्तरण हो गया है| वास्तव में जिन स्थानों का ऊपर जि़क्र किया गया है, वे समृद्घि के द्वीप-मात्र हैं| इसी पेइचिंग और इसी शंघाई के पुराने इलाकों मे अगर आप चक्कर लगाऍं तो आपको चीन में दिल्ली का करोलबाग या कलकत्ता का बड़ा बाजार दिखाई पड़ने लगेगा| खाट पर बैठे खाना खाते या ताश खेलते अनेक चीनी परिवार आपको दिखेंगे| जांघिया-बनियान पहने खुले में दौड़ते-खेलते अनेक बेफिक्र लोग दिखाई पड़ते हैं| सटे हुए मकानोंवाले मुहल्लों की बस्तियॉं भारत की याद दिलाती हैं| वहॉं गरीबी भी है, गंदगी भी है, अंधेरा भी है और बदबू भी है| यही हाल चीनी गॉंवों का है| चीनी शहरों को देखकर आप गॉंवों का अंदाज नहीं लगा सकते| चीनी शहरों के कुछ इलाके तो इतने समृद्घ हैं कि उनमें भीख मॉंगनेवाले भिखारी भी हृष्ट-पुष्ट और अच्छे कपड़े पहने दिखाई पड़ते हैं जबकि गॉंवों में लोगों की औसत आमदनी शंघाई के भिखारियों से भी कम है| उनका रहन-सहन भारतीय किसानों की तरह बहुत सादा है| गॉंवों में बेरोजगारी का आलम बिना पूछे ही मालूम पड़ता है| मैले-कुचैले कपड़े पहने या अधनंगे लोग जगह-जगह झुंड बनाकर बैठे रहते हैं| उनके रूखे बाल, सूखे मॅुंह और अस्थि-पंजर देखकर ही अनुमान लग जाता है कि उनकी आर्थिक दशा कैसी है| चीनी शहरों को देखकर लगता है कि भारत बहुत पिछड़ गया है लेकिन चीनी गॉंवों को देखकर भारत की याद ताज़ा हो जाती है| इस समय चीन के गॉंवों में लगभग 15 करोड़ लोग बेरोजगार हैं| लगभग 8 करोड़ लोग भागकर शहरों में आ गए हैं| समृद्घि के साथ-साथ आर्थिक असमानता भी बढ़ती जा रही है| चीन में असमानता की खाई कितनी चौड़ी है, इसका अंदाज इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि केवल एक प्रतिशत लोगों की आय 50 हजार रु. प्रति माह है जबकि गॉंवों में रहनेवाले 64 प्रतिशत लोगों की आय मुश्किल से 1200 रु. प्रतिमाह है याने अमीरी और गरीबी में 40 गुना अंतर है| 80 करोड़ से ज्यादा लोगों की हालत कोई खास अच्छी नहीं है| वे भूखे नहीं मरते लेकिन उनका पेट ठीक से भरता है या नहीं, यह पता नहीं चलता| चीनके सरकारी ऑंकड़े कहते हैं कि यदि गरीबी की रेखा 3500 रु. प्रति वर्ष हो तो केवल तीन करोड़ चीनी लोग गरीब कहलाऍंगे और 4500 रु. हो तो 9 करोड़ ! इन नेताओं से कोई पूछे कि 300 रु. प्रति महीने में कोई कैसे गुजर कर सकता है? एक तरफ दो हजार रु. रोज खर्च करनेवाले लोग है और दूसरी तरफ 10 रु. रोज ! चीन का खुलापन अगर ऐसे समाज को जन्म दे रहा है तो यह खुलापन पश्चिम के अंधानुकरण के अलावा क्या हैै? एक ही चीन के एक ही समय में पहली सदी भी सॉंस ले रही है और इक्कीसवीं सदी भी दनदना रही है| शंघाई की सड़कों पर मर्सिडीज़ और शेवरलेट कारें दौड़ती हैं और सियान और शूचौ में घोड़ागाडि़यॉं और साइकिल रिक्शे ! मनुष्यों और मनुष्यों के बीच ही नहीं, इलाकों और इलाकों के बीच भी गहरी विषमताऍं हैं| चीन का पश्चिमी और दक्षिणी इलाका जितना समृद्घ है, पूर्वी और उत्तरी इलाका उतना ही गरीब है| चीनी नेतृत्व इन समस्याओं से जूझ रहा है| वह नए-नए उपाय कर रहा है लेकिन अब भी विकासमान राष्ट्रों के लिए चीन नमूना नहीं बन पाया है|
चीनी शहरों की दुकानें, सुपर बाजार और मॉल देखकर धोखा खा जाना बहत आसान है| अमेरिका की तरह चीन में बहुमंजिले सुपर बाजार बन गए हैं| ऐसे सुपर बाजार भारत में इक्के-दुक्के ही हैं| वे दुकान नहीं हैं, अनेकानेक दुकानों के संग्रह हैं, बाकायदा बाजार हैं| जैसे बाजार में घूमने में आपको घंटों लग जाते हैं और आप किस्म-किस्म की खरीदी करते हैं, वैसे ही इन सुपर बाजारों में ग्राहक थककर चूर हो जाते हैं| एक सुपर बाजार में हजारों ग्राहक रोज आते हैं| उनके खाने-पीने, लघु-शंका-शौच, हल्के विश्राम और मनोरंजन की व्यवस्था भी वहॉं होती है| हर मंजिल पर लिफ्टें लगी होती हैं| इन बाजारों में बिकनेवाली वस्तुओं के दाम पहले से उन पर लिखे होते हैं लेकिन मोल-तौल जमकर होता है| हीरे-जवाहरात से लेकर साबुन-पाउडर तक पर सौदेबाजी चलती है| बहुत कम भंडार ऐसे दिखे, जहॉं एक दाम की नीति का पालन होता है| यदि इन दुकानों की चमक-दमक में फॅंसकर आप मॅुंहमॉंगे दाम दे बैठे तो घर लौटकर आपको माथा कूटना पड़ेगा| नानचिंग में जब हम सुन यात सेन के मकबरे पर पहॅुंचे तो सड़कों पर अनेक लड़कियॉं हाथ में मोती की सैकड़ों मालाऍं लिए ग्राहकों को पटा रही थीं| हमारे साथी उनसे मोल-तौल करने लगे| एक-एक हजार रु. की मालाऍं उन्होंने केवल दस-दस रु. में दे दीं| हम समझ गए थे कि वे प्लास्टिक के मोती हैं| अगर नहीं समझते तो जमकर ठगाई होती| ठगाई की बारूद चीन में जगह-जगह बिछी रहती है| बड़ी से बड़ी दुकान में आप कीमती से कीमती चीज़ खरीदें और उस चीज़ को परखे बिना खरीद डालें तो पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगेगा| हॉंगचाऊ के पर्यटन केंद्र पर हमारे भारतीय साथियों ने टाइयॉं खरीदीं| टाइयों के डिब्बे पर लिखा हुआ था, अंग्रेजी में ‘100 परसेंट सिल्क’ और ‘प्योर सिल्क’ | एक टाई का दाम उन्होंने 200 रु. बताया| मुझे जरा संदेह हुआ| मैंने सभी साथियों को सचेत किया| टाई की कीमत घटकर 45 रु. हो गई| सबने जमकर खरीदी| सबको मैंने कहा कि ये रेशम की नहीं हो सकती| कोई नहीं माना| जब होटल पहॅुंचे और टाइयॉं खोलकर अंदर से देखीं तो उन पर लिखा हुआ था कि वे ‘सिल्क नाइलोन’ की हैं| इसका मतलब यह नहीं कि पूरे चीन में ठगी का बोलबाला है|
इसी चीन में बहुत सस्ती और बहुत प्रामाणिक चीजे भी मिलती हैं| तरह-तरह के मोबाइल फोन, केमरे, टेप-रिकॉर्डर, कम्प्यूटर, जे़वर, मोती, कीमती फाउन्टेन पेन, कलाकृतियॉं, वस्त्र, जूते, घडि़यॉं आदि सारी दुनिया से ज्यादा सस्ते शंघाई और पेइचिंग के बाजारों में मिलते हैं| पत्थर, लकड़ी और चीनी मिट्टी की मूर्तियॉं, बच्चों के खिलौने, शरीर की मालिश के उपकरण, रसोई के उपकरण क्या-क्या वहॉं नहीं मिलता| जैसा जूता दिल्ली में दो हजार रु. का मिलता है, वैसा आप शूचौ में दो सौ में खरीद सकते हैं और जो ‘सेमसोनाइट’ का सूटकेस मुंबई में पॉंच हजार रु. में मिलता है, वह चीन में सिर्फ 500 रु. में मिल जाता है| जो मोती की लड़ी भारत में 10 हजार रु. में भी न मिले, वह चीन में केवल दो हजार में मिल सकती है| यही बात रोजमर्रा की चीजों पर लागू होती है| चीनी दुकानें तरह-तरह की चीजों से पटी रहती हैं| उन पर ग्राहक भी टूटे पड़ते हैं| आखिर ये चीजें इतनी सस्ती कैसे होती हैं| हम-जैसे विदेशियों के लिए तो ये सस्ती हैं ही, चीनियों के हिसाब से भी ये महॅंगी नहीं है| इसका प्रमुख कारण यह है कि चीन में मजदूरी सस्ती है और सभी चीजें लाखों-करोड़ों की संख्या में बनती हैं| पहले तो चीन के एक अरब 36 करोड़ लोगों के लिए बनती हैं और फिर दुनिया के बाजारों में छा जाती है| यदि आप यूरोप, अफ्रीका, अमेरिका, यहॉं तक कि लातीनी अमेरिकी देशों में भी जाऍं तो वहॉं के लोग स्वदेशी माल के मुकाबले चीनी माल पसंद करते हैं| दुकानदार को मुनाफा ज्यादा मिलता है और ग्राहक को माल सस्ता पड़ता है| चीन अपने विदेशी व्यापार को 900 बिलियन डॉलर की हद तक ले गया है| एक बिलियन डॉलर में 5000 करोड़ रु. होते हैं तो 900 बिलियन में कितने होंगे| चीन की समृद्घि का रहस्य यही है| सस्ता बेचो, खूब बेचो| खूब बेचो और खूब कमाओ| मैं समझता था कि दुकानदारी की जैसी कला भारत में है, दुनिया में कहॉं होगी| लेकिन इस मामले में चीन हमसे निश्चय ही आगे है| चीनी दुकानदार के साथ मोल-तौल करना भी एक रोचक अनुभव है| ज्यादातर दुकानों पर स्त्र्िायॉं या लड़कियॉं ही बैठती हैं| वे ग्राहकों को वास्तव में पकड़कर बैठ जाती हैं| उन्हें घेर लेती हैं| जब तक कुछ न कुछ आपको टिका न दें, वे आपको दुकान से बाहर नहीं जाने देतीं| दस रुपए की चीज़ एक रुपए में देने को तैयार हो जाती हैं| उनसे पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता है| चीनियों का ‘सेल्समेनशिप’ का यह अभ्यास अन्तरराष्ट्रीय बाजारों में भी जमकर चलता होगा| इसीलिए विश्व-व्यापार का आज पॉंच प्रतिशत हिस्सा चीन के हाथ में है जबकि भारत एक प्रतिशत का ऑंकड़ा छूने को तरस रहा है|
अपने प्रवास में मैंने चीनियों को कही भी अशिष्टता करते हुए नहीं देखा| शायद विदेशियों के प्रति वे विशेष विनम्रता प्रदर्शित करते हैं| कोई भी दुकानदार हम लोगों से इसलिए नाराज़ नहीं हुआ कि उसकी चीज़ के दाम हमने एक-दहाई क्यों बता दिए? अक्सर सामान बॉंधते समय चीनी दुकानदार थैली में कुछ अतिरिक्त चीजे भी डाल देते हैं| टैक्सीवालों को अगर लिखा हुआ पुर्जा दिखा दें तो वे आपको सही जगह पर छोड़ देंगे, मीटर के हिसाब से पैसे लेंगे और रसीद काटकर देंगे| रसीद पर उनका टेलिफोन नम्बर भी लिखा होता है| यदि आप कोई सामान उनकी टैक्सी में भूल जाऍं या गल्ती से ज्यादा पैसे दे दें तो आप तुरंत उनसे संपर्क कर सकते हैं| न व आपकी भाषा जानते हैं और न आप उनकी ! लेकिन ऑंखों और इशारों से जो बात होती है, उसी से पता चलता है कि उनका बर्ताव आदरपूर्ण होता है| यदि आप होटल में किसी से पूछें कि शौचालय किधर है या सड़कर पर पूछ लें कि होटल किधर है तो वह आपको दूर से नहीं बताएगा कि आप उधर चले जाऍं| वह व्यक्ति आपके साथ ठेठ तक जाएगा और मुस्कराते हुए आपकी सहायता करेगा| चीन में बढ़ते हुए उपभोक्तावाद और भौतिकतावाद के बावजूद चीनी संस्कृति के मूल तत्व अब भी जीवन्त हैं| साम्यवादी व्यवस्था का एक सुपरिणाम तो यही हुआ है कि चीनी स्त्र्िायों को पर्याप्त समानता और आजादी मिली है| होटलों, दुकानों, रेस्तरॉं, दफ्तरों में – पुरुषों की तरह चीनी महिलाओं और युवतियों को काम करते हुए देखा जा सकता है| कभी-कभी लगता है कि चीनी समाज में पुरुष के मुकाबले स्त्र्िायॉं अधिक वर्चस्वी हैं| वे जहॉं भी काम करती हैं, वहॉं मधुरता, दक्षता और सौन्दर्य की सृष्टि अपने आप ही हो जाती है| वे दिन गए, जब चीन में औरतें घर में कैद रहती थीं और लंबी न हो जाऍं इसलिए बचपन में ही उनके पॉंवों में बेडि़यॉं डाल दी जाती थीं| आज के चीन में लंबी और सुंदर युवतियॉं सर्वत्र काम-काज सम्हाले दिखाई पड़ती हैं| चीन के जिन नामी-गिरामी रेस्तरॉं में हमें जाने का अवसर मिला, उनमें विशेष तौर से स्वागत करने और भोजन परोसने के लिए ऐसी सुंदर युवतियॉं नियुक्त की गई थीं कि वे किन्हीं परियों से कम आकर्षक नहीं थीं| सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था ने रूसी स्त्र्िायों का सौंदर्य-बोध इतना भोंथरा कर दिया था कि हमारे राजदूत के.पी.एस. मेनन उन्हें चलती-फिरती कोठियॉं कहा करते थे लेकिन चीनी समाज ने न केवल अपने वर्तमान में सौन्दर्य-बोध की पूरी रक्षा की है बल्कि अपनी प्राचीन परम्परा को बनाए रखा है| चीनी चित्रकला, कविता, कहानी, संगीत और नाटक में चीन का सूक्ष्म सौन्दर्य-बोध सर्वत्र परिलक्षित होता है| पर्यटकों के लिए कुछ ऐसे मनोरम-स्थल भी चुने जाते हैं, जहॉं प्रवेश करते ही आप किसी परीनुमा युवती को प्राचीन वेशभूषा पहने हुए और पारम्परिक वाद्य-यंत्र लेकर गाते हुए पाते हैं| चीनी वेश-भूषा में रेशम का स्थान सर्वोपरि है| चटक लाल रंग के चौड़ी बाहोंवाले चोंगे पुरुषों के शरीर पर दिखाई पड़ते हैं तो रेशम की पारंपरिक वेश-भूषा या पश्चिमी वेशभूषा स्त्र्िायों की देह-यष्टि में चार चॉंद लगाती है| दुनिया को श्रेष्ठ रेशम की पहचान चीन ने ही करवाई है| चीनी रेशम प्राचीन भारत में भी प्रसिद्घ था| संस्कृत नाटकों में उसे चीनांशुक कहा जाता था| अब शंघाई की सिल्क फेक्टरी में बनी ‘डबल घोड़ा बोस्की’ सारे विश्व में पहनी जाती है| 1962 के युद्घ के पहले यह बोस्की भारत के श्रीमंतों-सामंतों की खास पसंद हुआ करती थी| अब भी वह भारत में उपलब्ध होती है लेकिन 700 रु. प्रति मीटर से कम नहीं जबकि शंघाई में उसका दाम सौ-सवा-सौ रु. मीटर है| पिछले पच्चीस वर्षों में मैं जब-जब पाकिस्तान गया तो मैंने देखा कि वहॉं अमीर-उमरॉं और बड़े नेता प्राय: बोस्की के कुर्ते और कमीज़ पहनते हैं| हॉंगचाऊ और शूचौ की दुकानों में यह बोस्की हमने नहीं देखी लेकिन क्योंकि ये दोनों शहर रेशम के घर हैं, इसलिए वहॉं रेशमी कपड़ों की बड़ी-बड़ी दुकानें देखने का मौका मिला| डेढ़ सौ रुपए से पॉंच सौ रुपए मीटर के बीच रेशम की अगणित किस्में देखीं| कैसे-कैसे रंग और कैसे-कैसे डिजाइन? कोई कवि ही उनका चित्रण कर सकता है| वहीं एक रेशम संग्रहालय भी देखा| इस सरकारी संग्रहालय में रेशम का सारा संसार बसा हुआ था| रेशमी टाइयॉं और वस्त्र काफी महॅंगे लगे लेकिन संग्रहालय से बाहर निकलते हुए बहुत ही रोचक चीजें दिखीं, जिनका रेशम से कुछ लेना-देना नहीं था| एक चाय की दुकान दिखी| इस दुकान ने चाय को भगवान बना रखा था| चाय से तरह-तरह के रोगों को ठीक करने की विधियॉं लिखी हुई थीं| पहली बार चाय के पंखे और तकिए देखे| फलॉं चाय के पंखे की हवा अगर आप झलें तो फलॉं रोग दूर होगा और फलॉं चाय के तकिए पर सिर रखकर सोऍं तो फलॉं बीमारी से आप मुक्त हो जाऍंगे| यह पढ़कर जरा हॅंसी आई| आगे बढ़े तो एक खिलौने की दुकान भी दिखी| जैसे बॉंस, घास, लकड़ी, खपच्ची, चिंदी, मिट्टी आदि के खिलौने भारत के गॉंवों में बनते हैं, बिल्कुल वैसे ही हाथ से चलनेवाले खिलौने चीनी बच्चों के लिए उपलब्ध हैं लेकिन प्लास्टिक और धातु के ऐसे खिलौने भी देखे कि दिमाग चकरा जाए| एक लोहे का भंवरा ऐसा था कि आप उसे लोहे की तश्तरी पर घुमाऍं तो वह घूमते-घूमते हवा में दो-तीन इंच ऊपर उठ जाता है और स्वतंत्र उपग्रह की तरह हवा में काफी देर तक घूमता रहता है| वह घूमता हुआ आश्चर्य मालूम पड़ता है| उसके पीछे जो भी वैज्ञानिक सिद्घांत है, गुरुत्वाकर्षण या चंुबकीय शक्ति का, उसकी विस्तृत व्याख्या चीनी और अंग्रेजी भाषा में लिखी रहती है| इसी प्रकार दूर-नियंत्रणवाले प्रक्षेपास्त्र, टैंक, तोप, बंदूक आदि खिलौने ऐसे हैं, जो विस्मय और हास्य, दोनों एक साथ उत्पन्न करते हैं| खिलौनों के साथ-साथ घडि़यों और कलमों की दुकानें देखना ऐसा अनुभव है, मानो आप किसी जे़वरात के संग्रहालय में आ गए हों| चीन की घडि़यॉं और कलमें कलाकारी का उत्तम नमूना होती हैं| दुनिया के बड़े से बड़े ब्रांड से बेहतर चीजें चीनी लोग बना सकते हैं| वे नक़ल के उस्ताद हैं| चीन में नकल इतनी तगड़ी होती है कि स्विटजरलैंड में जिस घड़ी के लिए आप 40 हजार रु. खर्च करें, उसे ही 400 रु. में बिकता देख आप दॉंतों तले उंगली दबा लेंगे| वे अगर नक़ल के उस्ताद हैं तो असल के भी उस्ताद हैं| चीन के अपने ब्रांड की घडि़यॉं और पेन इतने बढि़या और आकर्षक होते हैं तथा उनकी क़ीमत इतनी कम होती है कि उनके आगे पश्चिमी ब्रांड पानी भरें|
चीनी माल नेपाल और बर्मा के ज़रिए भारत में कई वर्षों से आ रहा है लेकिन अब जबकि दोनों देशों ने आपसी व्यापार बढ़ाने का संकल्प किया है, भारत के बहुत-से व्यापारी चीन के शहरों में दिखाई पड़ने लगे हैं| चीन के सस्ते माल को वे भारत और दक्षिण एशिया के दूसरे देशों में खपाने और पैसा बनाने के लिए उतावले हैं| नौ साल पहले जब हम चीन आए थे, सारे देश में कोई इक्के-दुक्के भारतीय से भेंट हुई थी लेकिन इस बार तो जहाज में ही दर्जनों भारतीयों से भेंट हो गइ| शंघाई और पेइचिंग के हवाई अड्डों पर दुबारा भारत लौटनेवाले व्यापारियों को देखा| वे चीन आकर काफी खुश लगे| उनमें से कुछ से मैंने पूछा कि आप अपना काम कैसे चलाते हैं? आपको न तो अंग्रेजी आती है और न ही हिन्दी ! उन्होंने कहा हमें तीनों आती हैं| हिन्दी भी, अंग्रेजी भी और चीनी भी| पैसे कमाने की भाषा ही अलग होती है| वे बेचने को बेकरार और हम खरीदने को ! दोनों पक्ष एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ लेते हैं| तीनों भाषाओं की खिचड़ी अपने आप बन जाती है| जो चीनी व्यापारी हमारे साथ पिछले वर्षों से व्यापार कर रहे हैं, वे भी हिन्दी के कई शब्द बोलने लगे हैं| वास्तव में कुछ चीनी व्यापारी ऐसे मिल गए, जो हिन्दी के शब्द ही नहीं, टूटे-फूटे वाक्य भी बोल लेते थे| वे कई बार भारत आ चुके हैं| इस समय भारत-चीन व्यापार 50 हजार करोड़ रु. से भी अधिक का हो गया है लेकिन यह ऑंकड़ा खास बड़ा नहीं है| जापान और रूस के साथ यह व्यापार भारत के मुकाबले दस गुना है| उम्मीद है कि अगले चार-पॉंच साल में भारत-चीन व्यापार भी दस गुना हो जाएगा| इसलिए भी कि दोनों देशों के ग्राहकों की जरूरतें और पसन्दगियॉं लगभग एक-जैसी हैं| चीजों के दाम भी कम हैं| पड़ौसी देश होने के कारण माल की ढुलाई भी ज्यादा नहीं है| व्यापार तो बढ़ेगा, जमकर बढ़ेगा, इसमें शक नहीं है लेकिन दोनों देशों के बीच पर्यटन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी तीव्र गति से बढ़ना चाहिए| क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि अपनी दोनों चीन-यात्राओं के दौरान हम एक भी ऐसे भारतीय से नहीं मिले, जो शुद्घ पर्यटक हो| दो-चार भारतीय इधर-उधर मिले जरूर लेकिन वे भी हमारी तरह किसी न किसी खास काम से चीन आए थे और अपनी छुट्टी के दिन का उपयोग पर्यटन के लिए कर रहे थे| शायद इसीलिए हमें देखते ही चीनी लोग पूछ लेते थे कि क्या आप पाकिस्तान से आए हैं?
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