Dainik Hindustan, 12 April 2010 : सभी पूछ रहे हैं कि हमारे विदेश मंत्री आखिर चीन गए ही क्यों? वहां जाकर क्या मिला? सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि दोनों देशों के बीच ‘हॉट लाइन’ कायम हो गई। इस ‘हॉट लाइन’ की जरूरत क्या थी? संचार क्रांति के इस जमाने में दोनों प्रधानमंत्रियों को अगर आपस में बातकरनी हो तो उसमें कितने सेकेंड या मिनट की देर लग सकती है? भारत और पाकिस्तान के बीच ‘हॉट लाइन’ की बात तो समझ में आती है लेकिन भारत-चीन ‘हॉट लाइन’ को जरूरत से ज्यादा महत्व देना समझ में नहीं आता। उसे ‘उपलब्धि’ कहना तो यही बताता है कि और कुछ नहीं तो यही सही।
चीन से जैसी बातें खुलकर होनी चाहिए थीं, इस यात्रा में नहीं हुईं। क्या हमें पता नहीं कि सीमा के सवाल पर चीन टस से मस नहीं हो रहा है। भारत की हजारों मील जमीन का कब्जा छोड़ना तो दूर रहा, वह दो-टूक शब्दों में कहता है कि आप अरुणाचल खाली कीजिए। यदि दलाई लामा या भारत के प्रधानमंत्री अरुणाचल जाते हैं तो वह उनका विरोध करता है जबकि चीनी नेता तिब्बत और सिंक्यांग जाते हैं तो हम अपना मुंह भी नहीं खोलते। हमारे कश्मीर और अरुणाचल के नागरिक जब चीन-यात्रा करते हैं तो उनके पासपोर्ट पर चीनी दूतावास वीजा का ठप्पा नहीं लगाता है, क्योंकि पासपोर्ट पर ठप्पा लगाने का मतलब यह है कि इन दोनों प्रांतों को वह भारत का हिस्सा मान रहा है। यह भारत की सरासर बेइज्जती है। विदेशमंत्री ने पेइचिंग में यह सवाल उठाया जरूर लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि चीनियों ने उन्हें जवाब में क्या कहा। चीनी क्या जवाब देंगे? इसका जवाब तो भारत की तरफ से जाना चाहिए। यदि भारत सिंक्यांग और तिब्बत के नागरिकों को कागजी वीजा देना शुरू कर दे तो चीन की तबियत झक हो जाएगी। चीन क्या कर लेगा? कश्मीर और अरुणाचल पर जितना ऐतिहासिक विवाद है, उससे कहीं बड़ा विवाद तिब्बत और सिंक्यांग के बारे में है। मैं एशियाई राष्ट्रों की वर्तमान यथास्थिति को भंग करने के पक्ष में नहीं हूं। मैं नहीं चाहता कि चीन, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका आदि राष्ट्रों में हम उप-राष्ट्रवाद को भड़काएं लेकिन अगर कोई पड़ौसी राष्ट्र भारत में ऐसे तत्वों को हवा दे रहा हो तो भारत की क्या मजबूरी है कि वह गूंगे-बहरे की मुद्रा धारण कर बैठ जाए?
चीन विश्व मंच पर भी हठधर्मी करता रहता है। उसने पूरा जोर लगाया कि एशियन डेवलपमेंट बैंक अरुणाचल के विकास केलिए ऋण न दे। उसने अपनी चाल उस समय भी प्रकट की जब भारत-अमेरिका परमाणु सौदा संपन्न हो रहा था। उसने परमाणु सप्लायर्स ग्रुप को भरमाने की जी-तोड़ कोशिश की कि भारत को कोई भी रियायत नहीं दी जाए। उसने आग्नेय एशिया के‘आसियान’ राष्ट्रों के साथ चीन, जापान और दक्षिण कोरिया को जोड़ने की वकालत की लेकिन वह भारत, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को जोड़ने का विरोध करता रहता है। आखिर चीन को भारत से क्या डर है? वास्तव में वह भारत को दक्षिण एशिया में कैद करके रखना चाहता है। वह उसे एशियाई महाशक्ति नहीं बनने देना चाहता है। पूरे एशिया का वह एकछत्र नेता बने रहना चाहता है। उसकी इस महत्वाकांक्षा का एकमात्र रोड़ा भारत है। इसीलिए चीन खुलकर कभी नहीं कहता कि भारत को सुरक्षा परिक्षद का सदस्य बनाया जाना चाहिए। भारतीय विदेशमंत्री ने इस मुद्दे पर जब चीन से समर्थन मांगा तो वह देनेकेबजाय चीनी सरकार ने भारत की इस महत्वाकांक्षा के प्रति सहानुभूति जता दी। यही प्रश्न मैंने अपनी कई चीन-यात्राओं केदौरान चीनी नेताओं और विदेश नीति विशेषज्ञों से उठाया तो उन्होंने कहा कि वे भारत का समर्थन करेंगे तो उन्हें जापान का भी समर्थन करना पड़ेगा। वे बिल्कुल नहीं चाहते कि जापान की गिनती विश्व शक्तियों में होने लगे।
चीन इस संभावना के विरुद्ध जबर्दस्त किलेबंदी कर रहा है। उसने पाकिस्तान को अपने गुर्गे की तरह पाला हुआ है। उसे वह हथियार, पैसा, प्रशिक्षण और राजनीतिक समर्थन भी खुलकर देता है। 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्धों के दौरान चीन ने भारत को धमकाने की भी कोशिश की थी। हमारे विदेशमंत्री ने जब पाक-अधिकृत कश्मीर में चीनी निर्माण कार्यो पर आपत्ति की तो चीनी सरकार ने गोलमटोल जवाब दे दिया। पाकिस्तान को परमाणु शक्ति बनाने में सबसे सक्रिय भूमिका चीन ने ही निभाई है। पाकिस्तान चीन का इतना आभारी है कि उसने अपने कब्जाए हुए कश्मीर की हजारों मील भूमि चीन को सेत-मेत में दे दी है। भारत ने अफगानिस्तान को यदि डेढ़ बिलियन डॉलर की सहायता दी तो चीन ने तीन बिलियन डॉलर तांबे की एक खदान में झोंक दिए हैं। वह नहीं चाहता कि म्यांमार और बांग्लादेश की गैस भारत को मिले। इन पड़ौसी देशों के समस्त भारत-विरोधी तत्वों से चीन विशेष निकटता बनाकर रखता है। यह कितनी शर्मनाक बात है कि चीनी लोगों ने भारत सरकार केकंप्यूटरों से गोपनीय सैन्य जानकारियां चुराने की कोशिश की है। इस अंतरराष्ट्रीय अपराध के ठोस प्रमाण भी उपलब्ध हो चुके हैं। चीन की फौज अब भी शीतयुद्ध की मानसिकता से ग्रस्त है। चीन के रणनीतिकार अपनी रचनाओं में दक्षिण एशिया ही नहीं, आग्नेय एशिया और मध्य एशिया में भी चीन का एकछत्र वर्चस्व कायम करने पर आमादा दिखाई पड़ते हैं।
चीन यह समझने की कोशिश क्यों नहीं करता कि भारत किसी भी विश्व-शक्ति का पिछलग्गू कभी नहीं बन सकता, जैसे कि खुद चीन कभी सोवियत संघ का बन गया था। स्वयं चीन अमेरिका के साथ घनिष्ठता बढ़ा रहा है तो वह भारत से ईर्ष्या क्योंकरता है? वास्तव में चीन और भारत एशिया का संयुक्त नेतृत्व कर सकते हैं और यह संयुक्त नेतृत्व 21वीं सदी को एशिया की सदी बना सकता है। पाकिस्तान को भारत केविरुद्ध नकली पहलवान की तरह खड़ा करने की चीनी कूटनीति आत्मघाती भी सिद्ध हो सकती है। पाकिस्तान से निर्यात होनेवाला आतंकवाद न केवल सिंक्यांग के उइगर मुसलमानों को चीन से अलग कर सकता है, वह शंघाई और पेइचिंग में वही दर्दनाक दृश्य भी उपस्थित कर सकता है, जो मास्को में चेचन आतंकवादियों ने किया है। चीनियों को इस तरह के तर्को से समझाने की कोशिश हमारे नेता करते हैं या नहीं, कुछ पता नहीं लेकिन उनकी बातों पर चीनी तभी कान देंगे जबकि वे सीमा, वीजा, कश्मीर, अरुणाचल आदि मुद्दों पर उनके साथ दृढ़ता से पेश आएंगे। चीनियों की इतनी हिम्मत नहीं कि वे अपने 60 अरब डॉलर का भारत-चीन व्यापार खतरे में डाल दे और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अपने विरुद्ध खड्गहस्त कर दे।
लेखक विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं
Leave a Reply