Dainik Bhaskar, 4 March 2004 : देश में इस समय कोई ऐसा नेता या दल नहीं, जो अपने दम पर चुनावों को पाक-साफ कर सके| वह आदर्शवाद अब हवा हो चुका है, जो 1952 के चुनावों में दिखाई पड़ता था| अब तो चुनाव-प्रक्रिया ही राजनीतिक गंदगी का उद्रगम-स्थल बन गई है| राजनीति चुनावों को चलाती, इसके बजाय चुनाव राजनीति को चला रहे हैं| हर राजनीतिज्ञ का अब एक मात्र लक्ष्य यही है कि येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतकर वह विधानसभा या लोकसभा में पहॅुंच जाए| चुनाव जिताने में पैसे और डंडे की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण हो गई है कि सज्जन राजनीतिज्ञों को भी धारा के साथ बहना पड़ता है| इस धारा को उलटने का जो साहसपूर्ण कार्य टी.एन. शेषन ने शुरू किया था, उसे हमारी अदालतों और चुनाव आयोग ने काफी आगे बढ़ाया है|
दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश वी.सी. पटेल और न्यायमूर्ति बी.डी. अहमद ने अपने ताज़ा फैसले से नेताओं की हड्डयिों में कॅंपकॅंपी दौड़ा दी है| उन्होंने चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह उन समस्त चुनावी उम्मीदवारों की पोल खोले, जिन्होंने अभी तक अपने टेलिफोन, बिजली, पानी और किरायों के बिल नहीं चुकाए हैं| जाहिर है कि ऐसे उम्मीदवारों की संख्या सैकड़ों में है| मामूली सांसदों, विधायकों और पार्टी नेताओं की क्या कहें, देश के बड़े-बड़े नेताओं पर सरकारी आवासों और हवाई-यात्राओं के करोड़ों रु. बकाया हैं| बरसों-बरस गुजरते जाते हैं और सरकारी खजाने में वे एक पैसा भी जमा नहीं करवाते| मूल से ज्यादा ब्याज हो गया है| उन्हें किसी का डर नहीं है| कोई भी सरकार आए, वह उनसे पैसे वसूल नहीं करती| राजा-राजा एक जात ! कौन किससे वसूल करे ? जो आज चोर है, वह ही कल कोतवाल बन जाता है| नतीजा यह है कि हमारे नेतागण सरकारी सुविधाओं का धड़ल्ले से दुरुपयोग करते चले जाते हैं जबकि कानून पालनेवाले साधारण नागरिक सरकारी चक्की में पिसे जाते हैं| नागरिकों के दिल में नेताओं के इस दुराचरण के विरुद्घ गुस्सा उबलता रहता है लेकिन पानी में रहकर मगर से बैर कौन करे ? उनसे पंगा कौन ले ? पंगा तो चुनाव आयोग भी लेने को तैयार नहीं| इसीलिए उसने दिसंबर 2003 में जारी अपने इस आदेश को वापस ले लिया कि जब तक ‘बकाया नहीं’ का प्रमाण-पत्र न मिले, किसी भी व्यक्ति को उम्मीदवार नहीं बनने दिया जाएगा| जाहिर है कि यह उचित कदम इसीलिए वापस लिया गया कि नेताओं ने चुनाव आयोग पर जबर्दस्त दबाव डाला| अब भी दिल्ली उच्च न्यायालय ने उक्त निर्देश को लागू नहीं किया है| उसने केवल इतना कहा है कि जितने भी दोषी उम्मीदवार हैं, उनकी देनदारी को उनके निर्वाचन क्षेत्र के कम से कम दो अखबारों में अवश्य विज्ञापित किया जाए ! विज्ञापनों पर करोड़ों खर्च जरूर होगा लेकिन अदालत का कहना है कि जब ‘चमकते भारत’ के विज्ञापनों पर करोड़ों खर्च हो रहे हैं तो नेताओं को कानून-पालन सिखाने पर खर्च क्यों नहीं किया जाए? कानून-निर्माता को कानून-पालन सिखाना लोकतंत्र की आत्मा है| इसके लिए खर्च कितना ही बड़ा हो, वह ज्यादा नहीं माना जाएगा| उम्मीद तो यह है कि चुनाव आयोग को विज्ञापन देने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी| अखबार खुद ही पहल करेंगे| पोल-खोल समाचार तो अपने-आप सुर्खियों में छपेंगे| विरोधी उम्मीदवार भी अपने पैसों से ऐसे विज्ञापन छपवाना चाहेंगे| दिल्ली उच्च न्यायालय के इस फैसले ने जनता की दुखती रग पर उंगली रख दी है| यहॉं सवाल पैसों का उतना नहीं है, जितना सिद्घांतों का है| इस फैसले से यह सिद्घांत सुदृढ़ होगा कि कानून सबके लिए समान है| राजा और प्रजा में कोई भेद नहीं | यही लोकतंत्र है| यहॉं शिकायत का नुक़्ता यही है कि जो डंडा अदालत को खुद चलाना चाहिए था, वह उसने जनता के हाथ में थमा दिया है|
जनता के हाथ में उच्चतम न्यायालय ने एक और डंडा थमाया था, जिसका जलवा इस चौदहवें चुनाव में जरूर दिखाई पड़ना चाहिए| उम्मीदवारों की चल-अचल सम्पत्ति की घोषणा ऐसा प्रावधान है, जो भ्रष्टाचारी नेताओं के दिल में घबराहट पैदा करेगा| यह पोल-खोल-अभियान का अंगद-चरण है| यह ठीक है कि नेतागण का रिश्वत का पैसा स्विटज़रलैंड के गुप्त खातों में जमा होता है या भारत में बेनामी संपत्तियों में खपता है लेकिन एक बार सारी सम्पत्ति की सार्वजनिक घोषणा होने के बाद अपनी अय्याशियों को छिपाना आसान नहीं होगा| नेताओं के दिल में डर जरूर बैठेगा| यदि जनता जागरुकता दिखाएगी तो बहुत-से नेता राजनीति से ही किनारा कर लेंगे| यदि पैसे ही नहीं कमाऍं तो राजनीति में किसलिए जाऍं? यह भाव भारतीय राजनीति के शुद्घिकरण में सहायक होगा| राजनीति और चुनाव एक-दूसरे पर आश्रित हैं| यदि राजनीति में पैसे की लाग घटेगी तो चुनाव में उसका बोलबाला अपने आप मन्दा हो जाएगा|
इस बार चुनाव इसलिए भी बेहतर होंगे कि सारे देश में दस लाख से भी ज्यादा इलेक्ट्रोनिक मतदान मशीनें तैनात की जा रही हैं| मशीनों के साथ खिलवाड़ आसान नहीं है| लोकसभा की 543 और चार विधानसभाओं की लगभग 700 सीटों पर लगभग 68 करोड़ मतदाताओं को वोट का अधिकार मिलेगा| इस बार उन्हें एक नया अधिकार भी मिल रहा है| वह यह कि खटका दबाकर वे यह दर्ज करा सकें कि उन्हें एक भी उम्मीदवार पसंद नहीं ! मान लें कि किसी निर्वाचन-क्षेत्र में ज्यादातर मतदाता इसी तरह का खटका दबा दें तो क्या होगा ? तब क्या उस निर्वाचन-क्षेत्र का चुनाव दुबारा नहीं करवाना पड़ेगा ? यदि 68 करोड़ में से केवल 40-45 करोड़ मतदाता वोट डालने आऍं तो क्या यह नहीं माना जाएगा कि शेष 25-30 करोड़ मतदाताओं का वोट नकारात्मक ही है ? यह कितनी विडंबना है कि 100 करोड़ के देश में सिर्फ 40 करोड़ लोग वोट डालें और जो सरकार बने, उसके पीछे 20 करोड़ वोट भी न हों ? आज तक भारत में कोई भी ऐसी सरकार नहीं बनी, जिसे कुल पड़े हुए वोटों का पचास प्रतिशत भी मिला हो| याने जितने वोट डलते हैं, उनसे आधे भी किसी पार्टी या गठबंधन को न मिलें तो भी उसकी सरकार बन जाती है| यह हमारे लोकतंत्र की बड़ी कमजोरी है| लेकिन इसके कारण निराश होने की जरूरत नहीं है| हमारे लोकतंत्र की ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ रही है, त्यों-त्यों उसके अनेक दोषों का निवारण भी हो रहा है| यह असंभव नहीं कि अगले चुनाव में कुल मतदान का प्रतिशत बढ़ाने और उम्मीदवार की जीत के लिए सर्वाधिक वोटों की बजाय स्पष्ट बहुमत के प्रावधान के लिए भी कुछ ठोस कदम उठा लिए जाऍं|
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