Dainik Bhaskar, 4 Nov 2009 : आठ साल बीत गए लेकिन अफगानिस्तान में बाकायदा एक भी राजनीतिक दल नहीं बना है। स्वयं हामिद करजई का कोई दल नहीं है। दलों के बिना अफगानिस्तान की राजनीति दलदल में बदल गई है। संसद ठीक से नहीं चलती। जरूरी है कि हामिद करजई खुद पहल करें। यदि करजई दृढ़ता और स्पष्टता से काम नहीं करेंगे तो अफगानिस्तान को अराजिकिस्तान बनने से कोई नहीं रोक पाएगा।
अफगानिस्तान के स्वतंत्र चुनाव आयोग ने हामिद करजई को राष्ट्रपति घोषित करके एकदम सही कदम उठाया है। करजई के मुख्य प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला ने खुद को चुनाव से अलग कर लिया, इसके बावजूद यदि सात नवंबर को चुनाव होते तो बहुत बुरा होता। 20 अगस्त के प्रारंभिक चुनाव में अफगानिस्तान की छवि जितनी बिगड़ी, उससे ज्यादा अब बिगड़ती। वह चुनाव नहीं होता, एक हाथ की ताली होती।
एकमात्र उम्मीदवार होने के कारण मतदान में किसी का उत्साह नहीं होता और बहिष्कार के बावजूद अब्दुल्ला को वोट जरूर मिलते। लेकिन वे इतने कम होते कि उन्हें खुद अचरज होता। करजई निश्चय ही जीतते, लेकिन उनके वोट भी बहुत कम रह जाते। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि चुनाव आयोग ने अफगानिस्तान की प्रतिष्ठा बचा ली। दूसरे दौर में जो खून-खच्चर होता, उससे अफगानिस्तान बच गया।
हामिद करजई को अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ की बधाई मिल चुकी है। महासचिव बान की मून ने तो काबुल में साक्षात बधाई दी है। इन दोनों बधाइयों ने राष्ट्रपति के चुनाव की वैधता का मसला अपने आप हल कर दिया है। लेकिन इससे करजई का सिरदर्द घटनेवाला नहीं है। यदि करजई पहले दौर में 56 प्रतिशत मतों से जीत जाते तो भी उन्हें मिलने वाली चुनौतियां ज्यों की त्यों बनी रहतीं। हमें अब यह जानना चाहिए कि करजई के सामने मुख्य चुनौतियां क्या-क्या हैं और उनका सामना वे कैसे करेंगे।
सबसे पहली चुनौती तो यही है कि इस चुनाव ने जो कड़वाहट पैदा की है, उसे घटाया जाए। यदि अफगानिस्तान के लोग अपने आपको पहले पठान, पहले हाजिक, पहले हजारा और पहले उज्बेक मानेंगे तो वहां अपने आपको अफगान कहने वाला कौन रह जाएगा? इस चुनाव ने जो जातीय तनाव पैदा किए हैं, उन्हें घटाने का प्रयत्न करजई पहले से ही कर रहे हैं।
उन्होंने अपने मंत्रिमंडल और चुनाव अभियान में विभिन्न जातियों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया हुआ था, लेकिन अब यदि वे अपने पुराने नाराज साथियों, जैसे पूर्व विदेश मंत्री अब्दुल्ला, पूर्व वित्तमंत्री डॉ. अहदी, अशरफ शमी, पूर्व गृहमंत्री जमाली आदि को साथ लेने की कोशिश करें तो उनका जनाधार मजबूत हो सकता है। राज परिवार के मुस्तफा जाहिर जैसे सुयोग्य शाहजादों को भी जिम्मेदारियां दी जा सकती हैं।
पूर्व राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी और उनके ‘जब्हे-मिल्ली’ के नेताओं का भी सक्रिय सहयोग लिया जा सकता है। यदि वे अगले पांच वर्र्षो के शासनकाल में सफल होना चाहते हैं तो इसे वे करजई सरकार की तरह नहीं, ‘राष्ट्रीय सरकार’ की तरह चलाएं। इस ‘राष्ट्रीय सरकार’ में वे अपने कुछ सुयोग्य राजदूतों को भी जोड़ सकते हैं।
दूसरी चुनौती यह है कि करजई अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए जबर्दस्त आर्थिक सहायता प्राप्त करें। इस समय पश्चिमी राष्ट्रों का फौजी खर्च जितना है, उसका दस प्रतिशत भी रचनात्मक कार्यों में नहीं लगता। काबुल, कंधार, हेरात और जलालाबाद जैसे शहरों के अलावा ग्राम्यदेश के विकास की गति बहुत धीमी है। विकास के नाम पर जो पैसा जाता है, उस पैसे पर काबुल सरकार का नियंत्रण नहीं के बराबर है।
स्वयं राष्ट्रपति करजई ने मुझे बताया कि विदेशी मदद का सिर्फ चार प्रतिशत पैसा उनके नियंत्रण में होता है। प्रांतीय पुनर्निर्माण दल (पीआरटी) के क्रियाकलापों पर भी केंद्र सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। काबुल की सरकार का न तो विदेशी पैसों पर कोई बस चलता है और न ही विदेशी फौजियों पर। यदि अफगानिस्तान को बदहाली से बचाना है तो इन दोनों मामलों में काबुल सरकार को पूर्ण शक्ति और अधिकार मुहैया करवाए जाएं।
तीसरी चुनौती है, अफीम की। दुनिया में सबसे ज्यादा अफीम पैदा होती है अफगानिस्तान में। इस साल लगभग नौ हजार टन पैदा हुई। अफीम से होने वाली आमदनी है लगभग 40 हजार करोड़ रुपए। अरबों रुपए की इस अफीम से तालिबान को जबर्दस्त आमदनी होती है। अफीम की पैदावार पर या तो रोक लगे या उसे भारत की तरह कानूनी बना दिया जाए तो आतंकवाद को मिलने वाली खुराक अपने आप बंद हो जाएगी।
अफीम की खेती पर पलने वाले किसानों के लिए अगर वैकल्पिक खेती का प्रबंध हो और तस्करों के विरुद्ध सख्ती हो तोअफगान सरकार मालामाल हो सकती है। चौथी चुनौती है भ्रष्टाचार की। अफगानिस्तान की अदालतों, सरकारी दफ्तरों और पुलिस थानों में खुलेआम रिश्वत ली जाती है और दोषियों का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। हामिद करजई को अब ऐसी सख्ती करनी होगी कि वह अफगान इतिहास की मिसाल बन जाए।
उन्हें अपने मंत्रिमंडल और सलाहकारों में से उन सब लोगों को निकाल बाहर करना चाहिए, जिनकी छवि खराब है। उनके भाइयों और रिश्तेदारों पर भी आरोप हैं। यदि वे आरोप निराधार हों तो भी उन्हें अपने लोगों को नेपथ्य में धकेल देना चाहिए। लोक मर्यादा के बिना लोकतंत्र की रक्षा कठिन है।
पांचवीं, विदेशी सेनाओं की वापसी की सुनिश्चित तारीख घोषित की जानी चाहिए। इसमें शक नहीं है कि अफगान लोगों के हृदय में पश्चिमी सेनाओं के प्रति कृतज्ञता का भाव है और उनके प्रति उनमें वैसी नफरत नहीं है, जैसी सोवियत सेनाओं के प्रति थी। फिर भी वे अपना देश खुद चलाना ज्यादा पसंद करते हैं। वे नहीं चाहते कि उनका शासक किसी अन्य मालिक की कठपुतली हो। यदि विदेशी सेनाएं अफगानिस्तान खाली कर देंगी तो तालिबान की लड़ाई का आधे से ज्यादा आधार तो अपने आप खत्म हो जाएगा।
विदेशी सेनाएं वापस तभी की जानी चाहिए, जब अफगान सेना अपने पांव पर खड़ी हो। अगले एक-दो वर्र्षो में कम से कम पांच लाख अफगान जवानों की फौज खड़ी की जाए तो वे आतंकवादियों से भी जमकर लड़ेंगे और पूरे अफगानिस्तान में कोई नौजवान बेरोजगार नहीं रहेगा। आतंकवादियों, तस्करों और अपराधियों के मानव स्रोत सूख जाएंगे। एक लाख विदेशी फौजियों का खर्च स्वदेशी फौज के पांच लाख जवानों के मुकाबले कई गुना ज्यादा है।
एक अफगान जवान के मुकाबले एक पश्चिमी जवान पर प्रतिदिन 70-80 गुना पैसा खर्च होता है। अपनी फौजों को वापस ले जाकर यदि पश्चिमी राष्ट्र अफगान फौज का खर्च कुछ वर्र्षो तक उठाते रहें तो यह सौदा उनके लिए बहुत सस्ता पड़ेगा। इस मामले में भारत की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो सकती है।
छठी चुनौती राजनीतिक है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आठ साल बीत गए लेकिन अफगानिस्तान में बाकायदा एक भी राजनीतिक दल नहीं बना है। स्वयं हामिद करजई का कोई दल नहीं है। दलों के बिना अफगानिस्तान की राजनीति दलदल में बदल गई है। संसद ठीक से नहीं चलती और संसद व सरकार में आवश्यक समन्वय नहीं रह पाता।
जरूरी है कि हामिद करजई खुद पहल करें, विरोधी दलों को प्रोत्साहित करें और दलों के माध्यम से जनता को शासन के साथ जोड़ें। यदि हामिद करजई दृढ़ता और स्पष्टता से काम नहीं करेंगे तो अफगानिस्तान को अराजिकिस्तान बनने से कोई नहीं रोक पाएगा।
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