Nav Bharat Times, 18 June 2004 : क्या मुकुट अब सिर्फ मुखौटा रह गया है? ‘मुखौटा’ कह देने भर से गोविन्दाचार्य जैसे प्रतिभाशाली नेता की कभी बलि चढ़ गई थी और अब जबकि पार्टी अध्यक्ष वैंकय्या नायडू ने पार्टी का असली चेहरा दिखा दिया है, कोई उनका बाल भी बॉंका नहीं कर सकता| वैंकय्या पार्टी-अध्यक्ष जरूर हैं लेकिन गोविंदाचार्य उनसे कमतर नहीं थे| फिर क्या वजह है कि वैंकय्या ने खुलकर हर बिंदु पर पार्टी के सर्वोच्च नेता की धज्जियॉं उड़ा दी? उन्होंने कहा नरेंद्र मोदी नहीं हटेंगे और मुंबई अधिवेशन में मोदी पर विचार नहीं होगा| गोविंदाचार्य ने निजी बातचीत में किसी से ‘मुखौटा’ की बात कह दी थी, वैंकय्या ने तो खम ठोककर बयान दे दिया| जाहिर है कि ऐसा बयान लालकृष्ण आडवाणी और सुदर्शनजी से पूछे बिना नहीं दिया जा सकता| श्री आडवाणी नैनीताल में छुट्टी मना रहे थे| उन्होंने अभी तक कोई सार्वजनिक प्रतिक्रया नहीं की है लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद्र और बजरंग दल ने जैसी तीखी प्रतिक्रिया की है, उससे साफ जाहिर होता है कि सारी पार्टी एक तरफ है और अटलजी दूसरी तरफ ! चेहरे और मुकुट में मेल नहीं बैठ रहा| चेहरा बड़ा और मुकुट छोटा हो गया है| पार्टी चाहती तो चुप भी रह सकती थी| अपने सर्वोच्च नेता के भावुकताभरे बयान की अनदेखी भी कर सकती थी लेकिन अटलजी पर जैसे तड़ातड़ हमले हुए, वे यह सिद्घ करते हैं कि कल तक पार्टी जिसे मुकुट कहती थी, उसे वास्तव में वह मुखौटा ही समझती थी| पता नहीं, अब यह पार्टी अपने लिए इस मुखौटे को उपयोगी भी पाएगी या नहीं? कहीं चेहरे और मुखौटे में शक्ति परीक्षण तो शुरू नहीं हो गया? यह भी नहीं कहा जा सकता कि अटलजी अपनी बात पर कहॉं तक डटेंगे| डटना उनका स्वभाव नहीं है| वे बलराज मधोक की तरह नेता नहीं है, आडवाणी की तरह जुझारू कार्यकर्त्ता नहीं हैं और मुरलीमनोहर जोशी की तरह सुदृढ़ सिद्घांत-पुरुष नहीं हैं| वे मूलत: वक्ता है, कवि हैं, भावुक सज्जन हैं और आरामपसंद जीव हैं| इतने आरामपसंद कि प्रधानमंत्री पद भी उनके आराम में खलल नहीं डाल सका| असली शासन की लगाम ब्रजेश मिश्रा को थमाकर उन्होंने छह साल बड़े मजे से काट लिए| व्यक्तिगत दृष्टि से जैसा निष्कलंक प्रधानमंत्र्िात्व उनका कटा, किसी अन्य पूर्णकालिक प्रधानमंत्री का नहीं कटा| संंंंंंसदीय लोकतंत्र की पुस्तक में ‘गठबंंंधन धर्म’ नामक अध्याय अटलजी ने ही जोड़ा| उनका जादुुुुुईर्र्र्र्र्र् व्यक्तित्व कुुुछ ऐसा है कि सारा देश उन्हें प्रणाम करता रहा और असली प्रधानमंत्री ही समझता रहा लेकिन जो असलियत थी, क्या वह पार्टी के लोगों से छिपी रह सकती थी? लेकिन इसके बावजूद कोई बगावत नहीं हुई| इसीलिए नहीं हुई कि दोनों को एक दूसरे की सख्त जरूरत थी| चेहरे को मुखौटे की और मुखौटे को चेहरे की ! अगर भाजपा का चेहरा और मुखौटा एक ही होता तो नरेंद्र मोदी उसी दिन बर्खास्त कर दिए जाते, जिस दिन गोधरा कांड हुआ| गोधरा कांड सुबह आठ-नौ बजे हुआ और प्रधानमंत्री तथा गृह मंत्री दिन के 3.30 बजे तक अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई के साथ लंच करते रहे| हैदराबाद हाउस के उस खुशनुमा माहौल में हमें हवा तक नहीं लगी कि स्वतंत्र भारत का इतना नृशंस कांड गोधरा में हो गया है| 48 घंटे तक जो मुख्यमंत्री सोता रहे, क्या उससे ज्यादा निकम्मे प्राणी की कल्पना की जा सकती है? यदि स्वतंत्र भारत का यह निकम्मा मुख्यमंत्री उसी दिन पौरुष का प्रदर्शन करता तो गुजरात की जनता को पागल होने की जरूरत क्यों पड़ती? गुजरात की जनता ने कानून अपने हाथ में इसलिए लिया कि जिसे कानून का पालन करवाना था, वह अनुभवहीन मुख्यमंत्री चादर तानकर सोता रहा|
यदि यह लेखक इसी स्तंभ में ‘राजधर्म’ के पालन की गुहार नहीं लगाता तो शायद प्रधानमंत्री को यह नरम शब्द भी नहीं सूझता| यह कितनी हास्यास्पद बात है कि वे मोदी से तो राजधर्म पालन की बात कर रहे थे लेकिन वे खुद क्या अपना धर्म निभा रहे थे? यदि मुख्यमंत्री धर्महीन हो गया था तो प्रधानमंत्री का धर्म क्या था? क्या प्रधानमंत्री को अपने ‘राजधर्म’ का पालन नहीं करना था? मान लिया कि मोदी आपकी ही पार्टी का कार्यकर्ता था और पार्टी नेता के नाते आप उसके प्रति बहुत कठोर नहीं हो सकते थे लेकिन असली सवाल यह है कि आप उस समय प्रधानमंत्री थे या नहीं? यदि मोदी की जगह कॉंग्रेस का, या बसपा का या माकपा का मुख्यमंत्री होता तो क्या आप उस कलंक को तुरन्त धो नहीं डालते? मस्जिद के टूटने पर क्या प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने भाजपा की राज्य सरकारों को थोक में उड़ा नहीं दिया था? गुजरात में जो हुआ, वह हजार अयोध्याओं से भी भयंकर था| मस्जिद के खंडहर तो दुबारा खड़े किए जा सकते हैं लेकिन क्या हजारों बेकसूर लोग दुबारा जिलाए जा सकते हैं? क्या बेकसूरों की हत्या ही हिन्दुत्व है? मोदी को हिन्दुत्व का प्रतीक मानना हिन्दुत्व को अकर्मण्यता और पौरुषहीनता का पर्याय बनाना है|
लेकिन यह तर्क भी बिल्कुल बोदा है कि आम चुनाव में हार गए, इसलिए मोदी को हटा दें| मोदी को तो मोदी के कारण ही हटा दिया जाना चाहिए था| न मोदी के रहने से अब कोई फर्क पड़नेवाला है और न ही जाने से ! अगर हार-जीत ही पैमाना है तो मोदी को आजीवन मुख्यमंत्री बने रहना चाहिए, क्योंकि जितने बड़े बहुमत से मोदी जीता है, कोई अन्य मुख्यमंत्री नहीं जीता| मोदी का फैसला गुजरात राज्य के चुनावों से होना चाहिए न कि भारत राज्य के चुनाव से ! भारत राज्य के चुनाव से प्रधानमंत्री की किस्मत का फैसला होना चाहिए| मोदी को हटाने से पहले अटलजी को खुद हटना चाहिए था| प्रधानमंत्री पद पर तो वे चाहते हुए भी नहीं रह सकते थे लेकिन जिस नकली पद पर वे अभी बने हुए हैं, उस पर बने रहने के सारे औचित्य को उन्होंने अपने तर्क से ही धराशायी कर दिया है| अपनी हार का ठीकरा वे मोदी के सिर फोड़ रहे हैं, यह बात उनकी पार्टी के गले भी नहीं उतर रही| यह कितनी विडम्बना है कि अपने पद पर टिके रहने के लिए उन्हें सोनिया गॉंधी के चरण चिन्हों पर चलना पड़ रहा है| विहिप और संघ के इस कथन में कुछ न कुछ सत्यता जरूर है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने मुसलमानों की झूठी खुशामद करके मुसलमानों के वोट तो खोए ही, उन हिन्दुओं के वोट भी खो दिए, जो भाजपा को हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद का पुरोधा मानते थे| भाजपा को न खुदा ही मिला न विसाले-सनम ! क्या भाजपा कभी इस द्वंद्व से उभर पाएगी? अपने नाम के अनुसार क्या वह कभी सारे भारत की जनता की पार्टी बन पाएगी? अटलजी चाहते तो वे भाजपा को अखिल भारतीय राजनीतिक दल बना सकते थे लेकिन उसके लिए मुखौटे को चेहरा बनना पड़ता| कमर कसनी पड़ती| लड़ाई लड़नी पड़ती| अपना राजधर्म निभाना पड़ता| कठोर निर्णय करने पड़ते| जो प्रधानमंत्री रहते हुए कठोर निर्णय नहीं कर सके, उनसे देश अब क्या उम्मीद कर सकता है? अगर चेहरे और मुखौटे में लड़ाई छिड़ जाए तो क्या मुखौटा जीत सकता है? बदलना तो मुखौटे को ही पड़ेगा| अगर यह लड़ाई छिड़ गई तो भाजपा का जबर्दस्त नुकसान होगा| जिस मुखौटे के कारण चेहरे की स्वीकार्यता इतने बरस बनी रही, क्या उस मुखौटे को यह चेहरा कुछ साल और बर्दाश्त नहीं कर सकता?
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