नवभारत टाइम्स (16 मार्च 2007) : भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों की बैठक को विफल या निराशाजनक कहना बहुत आसान है, क्योंकि दो खास मुद्दों पर दोनों पक्षों की राय अलग-अलग है| क्या हैं, वे मुद्दे ? एक तो जम्मू-कश्मीर से भारतीय फौजें हटाने का और दूसरा आतंकवाद-निरोधी संयुक्ततंत्र् के क्षेत्रधिकार का| पाकिस्तान का कहना है कि इस तंत्र् के तहत जम्मू-कश्मीर को नहीं रखा जा सकता, क्योंकि वह विवादास्पद क्षेत्र् है| इसीलिए दोनों राष्ट्र आतंकवाद-संबंधी केवल उन्हीं मामलों पर गौर करेंगे, जो जम्मू-कश्मीर से संबंधित नहीं होंगे| पाकिस्तानी विदेश सचिव को हमारे विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने एकदम सटीक जवाब दिया है| उन्होंने कहा कि जब यह संयुक्ततंत्र् बना था तो उसमें किसी तरह का कोई बंधन नहीं था| अब यह परिवर्तन क्यों करें ? मेनन चाहते तो इसमें यह भी जोड़ सकते थे कि बताइए, आतंकवाद की जड़ कहाँ हैं ? सबसे ज्यादा लोग कहाँ मारे जा रहे हैं ? आतंकवाद से सबसे ज्यादा दुखी होनेवाले लोग कहाँ रहते हैं ? यदि इसका जवाब कश्मीर नहीं तो क्या है ? दोनों विदेश सचिवों के इस संवाद को बातचीत की विफलता का प्रमाण नहीं माना जा सकता| पाकिस्तान के विदेश सचिव अगर उक्त बात नहीं कहते तो क्या करते ? पाकिस्तान के विरोधी दल उन पर भारत के दलाल का बिल्ला चिपका देते और मुशर्रफ पर आग बरसाते| अब वे भी चुप रहेंगे और संयुक्ततंत्र् अपने ढंग से काम करता रहेगा| वास्तव में इस संयुक्ततंत्र् में सिर्फ कश्मीर ही नहीं, पख्तून और अफगान क्षेत्र् में चल रहे आतंकवाद को भी जोड़ना होगा, क्योंकि ये दोनों आतंकवाद उग्रवादी जिहाद की बायीं और दायीं भुजाएँ हैं|
जहाँ तक कश्मीर से भारतीय फौजें हटाने का सवाल है, पाकिस्तानी विदेश सचिव रियाज़ मुहम्मद खान ने यह पिटा-पिटाया जुमला दोहराकर कश्मीरियों को तो खुश कर दिया, उन्हीं भारत-विरोधी जिहादी तत्वों का भी मुँह बंद कर दिया जो इस भारत-पाक संवाद को ही गलत बता रहे हैं| इस मुद्दे पर भी मेनन का जवाब बहुत साधा हुआ और मर्यादित था| उन्होंने कहा फौज तो हम भी हटाना चाहते हैं, लेकिन जब तक आतंकवाद और रक्तपात जारी है, फौज हटाने की क्या तुक है ? जैसा सवाल, वैसा जवाब ! यह पुरानी परंपरा है| इसके दोहराव के बावजूद दोनों पक्षों में कुछ तनातनी नहीं हुई, कुछ कहा-सुनी नहीं हुई, कुछ गर्मागर्मी नहीं हुई| क्या इसका कोई अभिप्राय नहीं है? इसका स्थूल अभिप्राय तो स्पष्ट है| वह यह कि असहमति अपनी जगह क़ायम है लेकिन वह सहमतियों के मार्ग का रोड़ा नहीं बनेगी| सहमतियों का कारवाँ बढ़ता चला जाएगा|
विदेश सचिवों के इस चौथे संवाद में अनेक मुद्दों पर सहमति हुई है| पहले से जिन मुद्दों पर सहमति हो चुकी थी, उन पर सहमति का विस्तार हुआ है| पाकिस्तान के ‘डॉन’ और ‘न्यूज़’ जैसे प्रसिद्घ अखबारों ने अपने मुखपृष्ठों पर सहमतिसूचक खबरें छापी हैं| जो अखबार प्राय: भारत-विरोधी खबरें छापने में विशेष रस लेते हैं, उनका रवैया भी इस बार काफी नरम मालूम पड़ रहा है| पिछले साढ़े सात वर्षों में पहली बार ऐसा लग रहा है, जैसे नवाज़ शरीफ का युग लौट रहा है| नवाज़ शरीफ ने अपनी अपूर्व विजय के बाद बार-बार कहा था कि वे अब दक्षिण एशिया में नई राजनीति का सूत्र्पात करेंगे| उन्हें फैल करने के पहले फौज ने करगिल-युद्घ छेड़ा और फिर उनका तख्ता-पलट कर दिया| अब लगता है, फौज को यह समझ आ गई है कि भारत को थकाया नहीं जा सकता| न युद्घ से और न आतंकवाद से ! इसीलिए बातचीत का रास्ता खोला गया है|
बातचीत के इस चौथे दौर में दोनों पक्षों ने सहयोग के इतने आयाम उकेरे हैं कि पिछले 60 साल में इतने मुद्दों पर एक साथ इतनी सहमति कभी नहीं हुई| दोनों पक्षों ने इस चौथे संवाद को सफल और सार्थक बताया तथा घोषित किया कि यह संवाद बराबर जारी रहेगा| अप्रैल से जुलाई के बीच दोनों देशों के रक्षा-सचिव और सैन्य-संचालन के महानिदेशक आपस में मिलेंगे और सियाचिन के मामले को हल करने की कोशिश करेंगे| अफसरों के अन्य समूह सीर क्रीक और बगलीघर निपटाने, युद्घ-विराम रेखा पर शांति बनाए रखने, समुद्री सीमा का पालन करने, भूल से सीमा-रेखा पार करनेवालों को लौटाने, परमाणु-सुरक्षा बनाए रखने, जेलों में फँसे कैदियों को रिहा करवाने आदि के कामों के लिए निरन्तर मिलते रहेंगे| दोनों विदेश सचिवों ने पारस्परिक सुरक्षा-सिद्घांतों को विकसित करने की बुनियादी बात भी कही है| ऐसी बात तब तक नहीं कही जाती है, जब तक दोनों पक्षों के हृदय में सदाशय का उदय नहीं होता| दिल में जब शक होता है तो अच्छी बात के भी बुरे अर्थ लगाए जाते हैं लेकिन इस बार पारस्परिक सदाशय का स्तर इतना ऊँचा था कि दोनों पक्षों ने संयुक्त वक्तव्य भी जारी नहीं किया| संयुक्त वक्तव्य की जगह संयुक्त प्रेस-कांफ्रेंस से ही काम चल गया|
दोनों पक्षों में सद्रभाव और सहमति का ऐसा माहौल था कि जिन मुद्दों पर दोनों पक्ष कई वर्षों से अड़े हुए थे, उन पर भी उन्होंने अपेक्षित उदारता दिखाई| जैसे भारत ने पाकिस्तान का यह प्रस्ताव मान लिया कि श्रीनगर और मुजफ्फराबाद के बीच हेलिकॉप्टर सर्विस शुरू की जाए, दोनों कश्मीरों की बीच खेल-प्रतियोगिताएँ रखी जाएँ और उनके बीच डाक-सेवा भी शुरू की जाए| पाकिस्तान ने भारत का यह प्रस्ताव भी मान लिया कि करगिल और स्कर्दू के बीच बस-सेवा शुरू की जाए| दोनों पक्षों ने सीमांत-व्यापार खोलने पर भी सहमति दिखाई| बस के साथ-साथ अब ट्रक भी चलेंगे| पाँच छोटी-मोटी सड़कें भी खुल जाएँगी| ये सहमतियाँ यों तो मामूली जान पड़ती हैं लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि यही कश्मीर के हल का रास्ता है| जिस गुप्त समाधान का रहस्य आजकल सबके सिर पर मंडरा रहा है, दोनों देश चुपके-चुपके उसी ओर बढ़ते चले जा रहे हैं| 2004 में प्रधानमंत्र्ी अटलबिहारी वाजपेयी ने समाधान की जिस सीढ़ी का निर्माण किया था, प्रधानमंत्र्ी मनमोहनसिंह उसी सीढ़ी पर चढ़ते चले जा रहे हैं|
सहमतियों की ये सीढि़याँ इतनी मजबूत हैं कि सरकारों के बदलाव का उन पर कोई खास असर नहीं पड़ता| जैसा कि संदेह है, अगर मुशर्रफ हट भी गए तो भी पाकिस्तान अपने कदम पीछे नहीं हटा सकता| जन-महत्वाकांक्षाओं का उफान इतना तेज़ है कि उसने पीछे लौटने के रास्ते बंद कर दिए हैं| वर्तमान फौजी तानाशाह की जगह अगर कोई अन्य फौजी तानाशाह आ गया तो भी उसे इसी रास्ते पर आगे बढ़ना पड़ेगा और अगर लोकतंत्र् लौट आया तो भारत-पाक संबंधों में नवाज़-युग की वापसी को कोई नहीं रोक सकता|
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