राष्ट्रीय सहारा, 6 फरवरी 2009 : सुभाषचंद्र अग्रवाल नामक एक आम आदमी ने हमारे प्रधानमंत्री कार्यालय और उच्चतम न्यायालय की खाट खड़ी कर दी है| ये दोनों संस्थाएँ हमारे लोकतंत्र् के दो स्तंभ हैं| तीन में से दो ! अग्रवाल ने सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी है, उच्चतम न्यायाधीशों और मंत्रियों की चल और अचल संपत्ति की| जजों और मंत्रियों की संपत्तियाँ घोषित की जाएं, इससे सूचना आयोग सहमत है| उसका कहना है कि ये संपत्तियाँ गोपनीय विषयों के अंतर्गत नहीं आतीं| इन संपत्तियों का देश की रक्षा, जासूसी, मंत्रिमंडल के गुप्त विचार-विमर्श आदि से कोई संबंध नहीं है| सूचना आयोग के अनुरोध पर दोनों संस्थाओं ने हाथ खड़े कर दिए हैं|
उच्चतम न्यायालय की कहानी तो बहुत रोचक है| सूचना आयोग ने जब उच्चतम न्यायालय से सूचना मांगी तो उसने आयोग को सूचना देने के बजाय दिल्ली के उच्च न्यायालय में याचिका लगा दी| ऐसा शायद पहली बार हुआ है| बड़ा न्यायालय अपने लिए छोटे न्यायालय के पास जा रहा है| वह अपने बारे में खुद फैसला नहीं करना चाहता, यह अच्छी बात है लेकिन उसने जो ‘दूसरा’ चुना है, क्या वह सचमुच ‘दूसरा’ है ? जो अपने से छोटा है, जो अपने जैसा है, जिसे अपन ने ही नियुक्त किया है, वह ‘दूसरा’ कैसे हो सकता है ? उच्चतम न्यायालय के आचरण पर फैसला ही करवाना था तो या तो संसद से करवाया जाना चाहिए था, या मंत्रिमंडल से या किसी ऐसी कमेटी से, जिसमें लोकतंत्र् के इन तीनों स्तंभों के शीर्ष लोग होते| उच्च न्यायालय अब बड़ी मुसीबत में फँस जाएगा| वह क्या करेगा ?
वास्तव में उच्च न्यायालय के जज जब अपने वरिष्ठ जजों के बारे में कोई फैसला करेंगे तो वह उन पर भी लागू होगा| दूसरे शब्दों में वे अपने बारे में भी खुद ही फैसला करेंगे| ऐसा करना कौनसी न्याय-व्यवस्था में उचित माना गया है ? कठघरे में खड़ा आदमी और जज के सिंहासन पर बैठा आदमी, क्या दोनों एक हो सकते हैं ? खैर, फैसला तो उन्हें करना ही पड़ेगा| उनकी इतनी हिम्मत नहीं कि वह मामला उच्चतम न्यायालय को लौटा दें| अब सवाल यह है कि अगर उन्होंने अपने वरिष्ठों के हक में फैसला दे दिया तो क्या सुभाष अग्रवाल को उसके विरूद्घ उच्चतम न्यायालय में अपील करनी होगी ? और यदि उन्होंने अपने वरिष्ठों के विरूद्घ फैसला दे दिया तो क्या बड़े जज अपनी अदालत में ही अपनी अपील दायर करेंगे ? याने कुल मिलाकर गेंद तो उच्चतम न्यायालय के पाले में ही आनी है| यों इस दुविधा से बचने का उपाय उसके पास पहले से ही था| सुदर्शन नाचिअप्पनन की अध्यक्षता में बने संसद की कार्मिक, विधि और न्याय की स्थायी समिति के पैनल की रपट को हमारे बड़े जज ज़रा ध्यान से पढ़ लेते| उसमें साफ़ लिखा है कि उन्हें अपनी संपत्तियों की घोषणा अवश्य करनी चाहिए| निजी संपत्ति की घोषणा और न्यायिक प्रकि्रया-दो अलग-अलग चीजें हैं|
वैसे मेरी राय में ये दो अलग-अलग चीजें नहीं हैं| जजों की अर्थ-शुचिता और न्याय-प्रकि्रया एक ही सिक्के के दो पहलू हैं| यदि जजों के पास अपनी वैध-आय से अधिक संपत्ति है तो उसका अर्थ स्पष्ट है| न्याय-प्रकि्रया को भ्रष्ट किए बिना ऐसी संपत्ति जमा नहीं की जा सकती| पूर्व उच्चतम न्यायाधीश एस. पी. भरूचा ने स्वीकार किया था कि लगभग 20 प्रतिशत जजों की ईमानदारी संदेहास्पद है| पिछले दिनों हरयाणा के जजों को 15 लाख रू. दिए जाने का मामला उछला था| किसी एक पूर्व उच्चतम न्यायाधीश के परिजनों द्वारा नोएडा में भूखंड हथियाने का मामला भी गर्माया था| गाजियाबाद में भविष्य-निधि का सवाल भी उठा था| इस तरह के कुछ उदाहरणों के आधार पर हमारी न्यायपालिका के बारे में कोई अंधाधुंध राय बना लेना बिल्कुल गलत होगा| हमारे ज्यादातर न्यायाधीश बेहद ईमानदार, निष्पक्ष, निर्भय और अत्यंत प्रतिभाशाली होते हैं| समाज में आज भी उनकी इज्ज़त सबसे ज्यादा है| इसी इज्जत की रक्षा के लिए जरूरी है कि वे अपने संपत्ति के बारे में कोई लुकाव-छिपाव की बात न करें| साँच को आँच क्या है ?
उच्चतम न्यायालय के कुछ जज इसके लिए तैयार भी हैं| मैं उनसे यही कहूँगा कि वे अपनी संपत्तियों की घोषणा खुले-आम कर दें| वे किसी की राय या फैसले का इंतजार न करें| जो जज घोषणा नहीं करेंगे, उनके बारे में लोग अपनी राय खुद बनाएँगे| 7 मई 1997 को संपूर्ण उच्चतम न्यायालय ने जो प्रस्ताव पारित किया था, उस पर सारे जज न सिर्फ अमल करें बल्कि थोड़ा उससे आगे भी बढ़ें| अपनी संपत्ति का ब्यौरा सिर्फ प्रधान न्यायाधीश को सौंपना ही काफी नहीं है| उसे जनता-जर्नादन के सामने भी पेश किया जाना चाहिए| क्या जजों को न्याय का यह पुराना सिद्घांत हमें बताना होगा कि न्याय होना ही काफी नहीं है, न्याय होता हुआ दिखाई भी पड़ना चाहिए| हमारे न्यायाधीश पवित्र् हैं लेकिन उनको वैसा दिखाई पड़ने में कोई संकोच क्यों होना चाहिए ?
और सिर्फ जज ही क्यों, यह सिद्घांत मंत्रियों पर भी लागू होना चाहिए| चुनाव लड़ते वक्त हर विधायक और सांसद अपनी संपत्तियों की घोषणा करते हैं तो मंत्री बनने के बाद उसे छिपाने का कारण क्या है ? चुनाव लड़ते वक्त राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के उम्मीदवारों को भी घोषणा करनी पड़ती है| वास्तव में सभी संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को अपना वार्षिक आयकर-ब्यौरा सार्वजनिक करना चाहिए| उनके निकट रिश्तेदारों को भी इस परिधि में रखा जाना चाहिए| अपने पदों पर बने रहने की यह अनिवार्य शर्त होने लगे तो देश में से 90 प्रतिशत भ्रष्टाचार अपने आप खत्म हो जाएगा| ऐसे लोग राजनीति और नौकरशाही में जाएँगे ही नहीं, जो भ्रष्टाचार के जरिए पैसा कमाना चाहते हैं| उन्हें पता होगा कि वे किसी भी दिन रंगे हाथों पकड़े जाएँगे| तख्त पर बैठने का सपना उन्हें तख्त पर लटकवा देगा| यदि ऊपर के लोग साफ-सुथरे होंगे तो निचली नौकरशाही में भ्रष्टाचार न्यूनतम होगा| सब लोग नियमानुसार कार्य करेंगे| भारत सरकार की कार्य-कुशलता कई गुनी बढ़ जाएगी| भारत ने पचास साल में जितनी प्रगति की है, उससे ज्यादा वह अगले पाँच साल में कर लेगा| मनमोहनसिंह सरकार अगले चुनाव में रहे या जाए, उसे लोग सदियों तक याद रखेंगे| लेकिन यदि जजों, मंत्रियों और ऊँचे अफसरों की संपत्तियों पर पर्दा पड़ा रहा तो भ्रष्टाचार का मूल स्त्रेत सदा सुरक्षित रहेगा| सूचना का अधिकार खाली झुनझुना साबित होगा| यदि सरकार इस मामले में फिलहाल कुछ न कर सके तो क्या हमारे राजनीतिक दल अपने चुनाव घोषणा-पत्रें में उक्त प्रावधान जोड़ेंगे ? जो जोड़ें, उन्हें ही जिताया जाना चाहिए|
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