NavBharat Times, 25 Aug 2007 : भारत और जापान का मिलन क्या एशिया की शक्ल बदल सकता है, यह सवाल उभरता है जापानी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा से। इस सवाल का जवाब सकारात्मक ही है, क्योंकि जापान एशिया का सबसे मालदार देश है और भारत के पास सर्वश्रेष्ठ जनबल और बुद्धिबल है। दोनों का मिलन एशिया की गरीबी दूर करने में वह भूमिका निभा सकता है, जो किन्हीं अन्य दो राष्ट्रों का मिलन नहीं निभा सकता। यह मिलन दोनों राष्ट्रों को भी नए आयाम प्रदान कर सकता है।
भारत और जापान का मिलन इसलिए भी अनोखा है कि दोनों लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं। यह बात चीन के बारे में नहीं कही जा सकती। इसीलिए भारत और जापान की जोड़ी भारत-चीन जोड़ी से कहीं अधिक सुगम होगी। इसके अलावा जापान की विदेश नीति और चीन की विदेश नीति में जमीन-आसमान का फर्क है। चीन के हर कदम में राजनीति होती है। वह चाहे पाकिस्तान को परमाणु विद्या सिखाए या अफ्रीका में डॉलरों की बरसात करे या लातीनी राष्ट्रों की तरफ बांहें पसारे, उसकी हर अदा में महाशक्ति के दांव-पेंच होते हैं, जबकि आजकल जापान की विदेश नीति लगभग किसी गुटनिरपेक्ष राष्ट्र की तरह हो गई है। अमेरिकी खेमे का सदस्य और उसका पट्ट शिष्य होने के बावजूद जापान ने खुद को महाशक्ति के दांव-पेंच में कभी उलझने नहीं दिया। उसने अमेरिका का साथ दिया, लेकिन लगभग उसी चुप्पी और मर्यादा के साथ, जैसे किसी गांव का सेठ किसी दादा का साथ देता है। भारत और जापान को कदम मिलाकर चलने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी।
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के जापान और इक्कीसवीं सदी के जापान में काफी अंतर आ रहा है। अब वह पश्चिम की नकल की बजाय अपनी एशियाई मौलिकता की खोज में निकल पड़ा है। अब जापान अमेरिका की छत्रछाया से निकल कर स्वतंत्र भूमिका निभाना चाहता है। जापानी प्रधानमंत्री शिंजो एबे ने भारत और जापान की मित्रता को दो समुदों का मिलन कहा है। भारत और जापान भौगोलिक दृष्टि से बहुत दूर हैं, लेकिन सांस्कृतिक दृष्टि से वे एक-दूसरे के काफी निकट हैं। बौद्ध धर्म दोनों को जोड़ने वाली मजबूत कड़ी है। दूसरे महायुद्ध के दौरान भारत और जापान की जनता में सहानुभूति की अदृश्य गंगा बहती रही है। दोनों लोग अंग्रेज के विरुद्ध थे। जापान ने अंडमान-निकोबार और मणिपुर के कुछ हिस्सों में घुसपैठ कर ली थी, लेकिन इसके बावजूद भारत में जापान-विरोधी भावना नहीं फैली थी। चीन में उन दिनों की जापान-विरोधी भावना आज तक कायम है। सुभाषचंद्र बोस की मदद करने के कारण जापान के प्रति भारत के मन में गहन मैत्री भाव बना रहा है। जापान भी यह कभी नहीं भूलता कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भारतीय न्यायाधीश राधाविनोद पाल ने जापान को युद्ध अपराधी घोषित करने से इनकार कर दिया था।
इसके बावजूद भारत और जापान के बीच घनिष्ठता क्यों नहीं बढ़ी? दोनों का व्यापार सिर्फ सात अरब डॉलर ही क्यों है? चीन की तरह उसने 20 अरब डॉलर का आंकड़ा पार क्यों नहीं किया? इस गतिरोध के तीन कारण समझ में आते हैं। एक तो भौगौलिक दूरी और भाषा भेद। दूसरा, जापान पर जरूरत से ज्यादा अमेरिकी प्रभाव और जापान द्वारा शीत युद्ध के दौरान यह माना जाना कि भारत सोवियत संघ का साथी है। तीसरा, भारत के परमाणु परीक्षणों को लेकर नाराजगी। दूसरे महायुद्ध में परमाणु बम का शिकार बने जापान के मन में परमाणु शस्त्रास्त्रों के लिए घृणा का भाव है। इसीलिए अब भी, जबकि अमेरिका भारत से परमाणु सहयोग के लिए तैयार हो गया है, जापान के मन में झिझक बनी हुई है। एबे की यात्रा के दौरान जापान ने भारत को परमाणु सहयोग का कोई स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया है, हालांकि भारत जापानी प्रधानमंत्री से कुछ ठोस संकेतों की आशा कर रहा था, खास तौर से इसलिए कि उसे आशंका है कि जब भारत-अमेरिका समझौता न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में जाएगा तो चीन विरोध करेगा। उस समय जापानी समर्थन भारत के लिए अमूल्य होगा।
एबे की यात्रा से चीन में काफी सुगबुगाहट पैदा हुई। चीन ने अभी तक अप्रिय टिप्पणी नहीं की है, लेकिन उसकी कोशिश है कि अगर अमेरिका परमाणु क्षेत्र में भारत को आगे बढ़ाएगा तो वह अपने मोहरे पाकिस्तान को पीछे क्यों रहने देगा? भारत से बढ़ते हुए जापानी संबंधों पर चीन की वक्र दृष्टि इसलिए भी हो सकती है कि भारत और जापान के संयुक्त उद्यम एशियाई बाजार में चीन के लिए खतरा बन सकते हैं। जापानी प्रधानमंत्री की यात्रा को चीन अमेरिकी साजिश का हिस्सा भी मान सकता है। इस वक्त चीन के दिमाग में भारत का विरोध कम और जापान का विरोध ज्यादा है। चीन बिल्कुल नहीं चाहता कि जापान सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बने। वह चाहे भारत की सदस्यता का विरोध नहीं करे, लेकिन जापान की सदस्यता का स्पष्ट विरोधी है। एबे की यात्रा के दौरान यह मुद्दा दरी के नीचे दबा रहा, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि चीन को दुखी करने वाला कोई मुद्दा उठा ही नहीं। एबे का बार-बार ‘वृहत्तर एशिया’ में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर जोर देना तथा ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ विशेष सहयोग की बात करना चीन के मन में ‘एशियाई नाटो’ की आशंका जगाए बिना नहीं रहेगा। भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर और जापान की नौसेनाओं के प्रस्तावित संयुक्त अभ्यास ने चीन के कान पहले से खड़े कर रखे हैं।
जो भी हो, अब जापान-भारत संबंधों को नई ऊंचाइयां छूने से कोई ताकत रोक नहीं सकती। येन और रुपये की अदला-बदली का समझौता दोनों राष्ट्रों की आर्थिक निकटता का ठोस प्रमाण है। हालांकि आपसी व्यापार काफी कम है, लेकिन उसमें तेज बढ़ोतरी दिख रही है। पिछले दो वर्ष में भारत में जापान का निवेश 25 करोड़ डॉलर से बढ़कर 52 करोड़ डॉलर हो गया है। जापान चाहे तो अगले पांच बरसों में इसे सौ गुना कर सकता है। यदि मुंबई-दिल्ली उद्योग पट्टी और रेलवे मालवहन पट्टी की महत्वाकांक्षी योजनाओं पर अमल शुरू हो गया तो खरबों रुपये की जापानी पूंजी दौड़ती हुई भारत चली आएगी। छह राज्यों से गुजरता हुआ डेढ़ हजार किलोमीटर लंबा यह गलियारा एशिया का जगमगाता हुआ औद्योगिक केन्द्र बन जाएगा। औद्योगिक सहयोग सामरिक सहयोग की बलिष्ठ पृष्ठभूमि तैयार करेगा। यदि जापान भारत के निकट आएगा तो उसे स्वतंत्र विदेश नीति चलाने की प्रेरणा भी मिलेगी। जापान की पूंजी और तकनीक तथा भारत का श्रम और बुद्धि मिलकर सचमुच एशियाई देशों की बहुत बड़ी सेवा कर सकते हैं।
Leave a Reply