रा. सहारा, 10 जुलाई 2009 : पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी ने कमाल किया है| पहली बार पाकिस्तान के किसी उच्च पदस्थ नेता ने खुले-आम यह माना है कि पाकिस्तान की पिछली सरकारों ने ही आतंकवादियों को पैदा किया और पनपाया है| उन्होंने गजब की स्पष्टवादिता से काम लिया है| उन्होंने यहां तक कह दिया कि पश्चिमी राष्ट्रों ने इन आतंकवादियों को अपनेे संकीर्ण लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल किया और अपनी लक्ष्य-सिद्घि के लालच में उन्होंने तानाशाहों को अपने कंधे पर बिठा लिया| उन्होंने पाकिस्तानी लोकतंत्र् की हत्या होने दी| चुने हुए प्रधानमंत्री (जुल्फिकार अली भुट्टो) को फांसी पर चढ़ने दिया|
इस सच्चाई को हर पाकिस्तानी जानता है लेकिन किसी पाकिस्तानी राष्ट्रपति का खुले-आम ऐसा कह देना अनेक संभावनाओं और व्याख्याओं को जन्म देता है| सबसे पहली बात तो यह कि क्या ज़रदारी इस तरह के बयान देकर फौज के खिलाफ कोई मोर्चा खोलने जा रहे हैं ? इसमें ज़रा भी शक नहीं कि पहले मुजाहिदीन, फिर तालिबान और अब दहशतगर्दों के पीछे सबसे बड़ी कोई ताकत रही है तो वह पाकिस्तानी फौज ही रही है| फौज की अनुचर आई एस आई है| इन दोनों संस्थाओं ने कश्मीर को ‘आजाद’ कराने और काबुल की सरकारों को गिराने का लक्ष्य बना रखा था| इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए उन्होंने आतंकवादियों को बाक़ायदा प्रशिक्षण दिया, हथियार दिए, पैसे दिए और निशाने दिए| इन गतिविधियों को पाकिस्तान की चुनी हुई सरकारों ने भी नहीं रोका| उन्होंने भी वही किया, जो फौजी तानाशाहों ने किया था| ज़रदारी जान-बूझकर यह तथ्य छिपा रहे हैं| पाकिस्तान में जैसे नागनाथ रहे, वैसे ही सांपनाथ रहे| पाकिस्तान की इन सभी फौजी और गैर-फौजी सरकारों ने आतंकवादियों को कभी धर्मयोद्घा कहा तो कभी स्वतंत्र्ता सेनानी ! इनके नाम पर आनेवाली पश्चिमी मदद पर भी पाकिस्तान के नेताओं ने जमकर हाथ साफ किया| अब से लगभग 25 साल पहले पेशावर में अनेक अफगान मुजाहिद नेताओं ने मुझे गुपचुप बताया कि पाकिस्तानी फौज के कारिंदे कैसे मालामाल हो रहे हैं| उन्होंने प्रमाण देकर सिद्घ किया कि उन्हें मिलनेवाले हथियारों और डालरों का एक निश्चित हिस्सा उन्हें पाकिस्तान के हुक्मरानों तक पहुंचाना पड़ता है| यह तो गुपचुप की कमाई थी लेकिन पाकिस्तानी सरकारें पश्चिमी सरकारों से खुले आम अपना मेहनताना मांगती थीं| वे कहती थीं कि हम आपके लिए लड़ रहे हैं तो क्या आप हमारे लिए चाय-पानी का इंतजाम भी नहीं करेंगे| काबुल की कम्युनिस्ट सरकारों को गिराने के धंधे में पाकिस्तान के फौजी पूंजीपति बन गए| ज़रदारी ने यह नहीं बताया और भारत के बहुत कम लोगों को यह पता है कि पाकिस्तानी फौज के सेवा-निवृत्त अफसर किस शाही ठाट-बाट के साथ रहते हैं|
तो क्या अब ज़रदारी ऐसी फौज के खिलाफ़ बगावत करने पर उतारू हो गए हैं ? ऐसा नहीं लगता| कुछ पाकिस्तानी मित्रें का कहना है कि ज़रदारी डर गए हैं| फौज उनका तख्ता-पलट करनेवाली है| इसीलिए अभी वे ऐसी उत्तेजक बातें कह रहे हैं, जिन्हें बाद में वे अपने हटाये जाने के कारण के रूप में पेश करेंगे| इस मामले में पहली बात तो यह है कि ज़रदारी चाहे राष्ट्रपति बन गए हैं और सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष भी हैं लेकिन वे कोई व्यापक जनाधारवाले नेता नहीं है| उनकी हैसियत बेनज़ीर और नवाज़ के बराबर भी नहीं है| नवाज़ शरीफ 1997 में तीन-चौथाई बहुमत से जीते थे लेकिन फौज ने फूंक मारी तो वे उड़ कर सउदी अरब में जा पड़े| आज पाकिस्तान में फौज की जड़े इतनी गहरी हैं कि उसे चुनौती देने के लिए जुल्फिकार अली भुट्रटो भी बहुत छोटे पड़ेंगे| फौज से आज पंगा वही ले सकता है, जो क़ायदे-आज़म जिन्ना से भी ज्यादा कद्रदावर हो| जाहिर है कि ज़रदारी ने जो बयान दिया है, वह फौजी अफसरों से बात किए बिना नहीं दिया होगा| आज फौज और आतंकवादी बिल्कुल आमने-सामने हैं| दोनों युद्घ के मैदान में खड़े हैं| अब उनके बीच कोई पर्देदारी नहीं रह गई है| ज़रदारी फौज की मनोकामना को ही शब्दों का जामा पहना रहे हैं| उन्होंने वैसा ही एतिहासिक बयान दे दिया है, जैसे अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने वियतनाम और रूसी नेताओं ने स्तालिन की ज्यादतियों के बारे में दिया था| आज पाकिस्तान की फौज और ज़रदारी, दोनों ही अमेरिका का समर्थन पाने को बेताब हैं| यदि आज अमेरिकी डॉलरों की वर्षा न हो तो पाकिस्तानी खेती सूख जाएगी| अमेरिकी सरकार ज़रदारी की आलोचना से कुपित नहीं हो सकती, क्योंकि वही बात ओबामा अपने काहिरा-भाषण में कह चुके है| यों भी जनरल अशफाक़ परवेज़ क़यानी के नेतृत्व में पाकिस्तानी फौज अपनी लक्ष्मण-रेखा के पीछे लौटने की कोशिश कर रही है| उन्होंने पिछले साल मुशर्रफ को बचाने के लिए हस्तक्षेप नहीं किया और सैकड़ों फौजी अफसरों को सरकारी पदों से वापस बुला लिया| दूसरे शब्दों में ज़रदारी के इस बयान से यह आशा जगती है कि शायद अब पाकिस्तान की रेल पटरी पर आ जाए|
ज़रदारी अपने संविधान में भी मूलभूत संशोधन करनेवाले हैं| वे नाम-मात्र् के राष्ट्रपति रहेंगे और असली शक्तियॉं प्रधानमंत्री के पास होंगी| इस व्यापक संदर्भ की पृष्ठभूमि में रखकर उनके उक्त बयान का देखा जाए तो लगता है कि यह अनगढ़ नेता पाकिस्तान का बुनियादी रूपांतरण करने पर उतारू है| यदि उनका तख्ता-पलट न हो और पाकिस्तान की गाड़ी इसी पटरी पर आगे बढ़ जाए तो मानना पड़ेगा कि ज़रदारी नेताओं के नेता हैं|
लेकिन इस घटना-चक्र का भारत को क्या लाभ मिलेगा ? जो बात ज़रदारी ने खुले-आम कही, वही बात मुशर्रफ भी अंदर ही अंदर महसूस कर रहे थे| वरना 2004 में वे संयुक्त बयान में यह क्यों कहते कि पाकिस्तान की ज़मीन से वे कोई आतंकवादी गतिविधि भारत के खिलाफ नहीं चलने देंगे ? यदि मुशर्रफ अपने कहे को लागू नहीं कर पाए तो उनसे बहुत कम ताकतवर ज़रदारी क्या कर पाएंगे ? यह शंका सही है| यदि ऐसा नहीं होता तो अब तक हमारे दोनों विदेश सचिवों की भेंट हो जाती, कसाब का मामला सुलझ जाता और भारत-पाक संबंधों की जड़ता टूटती| वास्तव में पाकिस्तान में भारत के विरूद्घ इतना ज़हर घोला गया है कि उसे आसानी से धोया नहीं जा सकता| यदि फौज पाकिस्तानी राजनेताओं की अनुचर बन जाए तो भी उसका भारत-विरोध मिटाना आसान नहीं है| जब तक उसका भारत-विरोध पतला नहीं पड़ता, भारत को आतंकवादी तंग करते रहेंगे| फौज केवल उस आतंकवाद के विरूद्घ होगी, जिसके कारण पाकिस्तान तंग है और अमेरिका तंग है| जब तक पाकिस्तान भारत-भय से मुक्त नहीं होगा, भारत की परेशानियां कम नहीं होगीं| यह देखना भारत का काम है कि पाकिस्तान की भय-ग्रंथियॉं कैसे खुलें ? इस संबंध में ज़रदारी दो-टूक बात पहले ही कह चुके हैं| उन्होंने साफ़-साफ़ कहा है कि पाकिस्तान को भारत से नहीं, आतंकवादियों से खतरा है| उनका ताज़ा बयान यह सिद्घ करता है कि उन्होंने सचमुच अब आतंकवादियों के विरूद्घ कमर कस ली है|
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